लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

सोमवार, 7 मार्च 2016

 अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर

आलेख -स्त्री

लेखिका -शोभा जैन

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" इस उद्घोष को एक बार पुनः  से आत्मसात करते हुए  नारी का हृदय से सम्मान करते है ! स्त्री मानव अस्तित्व का अाधार है मनुष्य के जीवन का सृजन है। वो अब साहित्य की श्रेष्ठ कथाओं काव्य  तक सिमित नहीं। पुरुष के संघर्ष में निहित जीवन के अवरोधों में समायें  हैं उसकी सफलता के बीज ।अनादि काल से सृष्टि के केंद्र में स्त्री रही है। स्त्री मनुष्य के रूप में एवं एक तत्व के रूप में सृजन का पर्याय है। किन्तु फिर भी पुरुषजन्य कि  दहलीज पर उसकी महत्वाकांक्षा नियंत्रित  ही है । अक्सर उसके जीवन के अर्द्ध विराम , पूर्ण विराम बनकर ही रह जाते हैं विशेषकर उसके विवाह विच्छेद या विधवा होने की स्थिति में । उसे तब तक ही सम्पन्न माना जाता हैं जब तक वो पिता या पति की छत्र छाया में रहती है.निः संदेह स्त्री एक पुरुष के बिना अपूर्ण  है और एक पुरुष का जीवन भी एक स्त्री के बिना अस्त व्यस्त है दोनों का अपना- अपना महत्व है कोई एक दूसरे की जगह नहीं ले सकता जहाँ एक और भारतीय संस्कृति में स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानकर पुरुष को अर्धनारीश्वर की संज्ञा दी गयी फिर 'स्त्री को महिला होने के बावजूद वाला भाव' उसकी उपलब्धियों में क्यों मुखर रहता है। जबकि हम देखते है साहित्य और इतर कला माध्यमों में सर्वाधिक चित्रण और वर्णन स्त्री का ही हुआ है।मनुस्मृति में स्त्री के लिए "भोज्येषु माता, रूपेच लक्ष्मी। शयनेषु रंभा, क्षमया धरित्री" कहा गया है । बावजूद इसके आज भी वास्तविक व्यवहार में इसके विपरीत समाज में स्त्री लांछित, अपमानित और पीड़ित है हर दिन अख़बार की निराशाजनक ख़बरों का अहम हिस्सा है हम ऐसा मान ले की स्त्री के प्रति भोगवादी प्रवृत्ति का विकास मध्य युग में हुआ था जो आज भी विद्यमान है। कहा गया है ---"पिता रक्षति कौमार्ये, भर्ता रक्षति यौवने, सुत: रक्षति वार्धक्ये, न स्त्री स्वातंत्र्यम् अर्हसि"।
इसके अनुसार पुरुष को पिता, पति और पुत्र के रूप में स्त्री की रक्षा का दायित्व सौंपा गया है। किन्तु जब ये तीनों ही अपने कर्तव्य से विमुख होते प्रतीत होते है तो स्त्री के लिए उपरोक्त सूक्ति एक  आपत्तिजनक भाव है।इसका अर्थ ये भी नहीं कि  'स्त्री स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है'उसे आश्रिता घोषित कर दिया जाय।स्त्री की दैहिक सुरक्षा अनिवार्य है और यह केवल पुरुष ही प्रदान कर सकता है, क्योंकि उसका अस्तित्व उस पुरुष के लिए बहुमूल्य है जो कि उसका स्वामी है, मालिक है, उपभोक्ता है तथा शरणदाता है।  इस धारणा के अनुसार स्त्री का पुत्री, पत्नी और माता के रूप में पुरुष के अधीन रहना ही उचित और अनिवार्य है।किन्तु उसके सम्मान सुरक्षा  को अधीनस्थता की स्थिति में परिवर्तित कर देना अनुचित है।  यह एक निर्विवाद सत्य है कि मानव समाज आरंभ से ही पुरुषवादी, पितृसत्तात्मक समाज रहा है।तथाकथित मातृसत्तात्मक समाजों में भी निर्णय लेने का अधिकार पुरुष के पास ही आरक्षित रहता है, जिसे स्त्रियाँ बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लेती हैं ऐसी स्थिती में एक पुरुष कि नैतिक जिम्मेदारी और अधिक प्रबल होनी चाहिए की एक स्त्री उसके हर एक निर्णय के प्रति स्वयं को प्रतिबद्ध मानकर उसके साथ चलती है तो  उसके निर्णयों में ईमानदारी,निश्छलता,निः स्वार्थता और परिवार के हित का भाव होना चाहिए ।किन्तु ऐसा नहीं होने पर वह स्त्रीवादी बहस और विवाद का केंद्र बिन्दु  बन जाती है ,उसकी  स्वायत्तता, व्यक्तिगत स्वेच्छा तथा उसकी स्वतन्त्रता का मुद्दा बनकर रह जाती है। कभी -कभी ऐसी महिलाओं को चरित्रहीन भी करार दिया जाता है।.  कोई भी महिला पुरुष के द्वारा निभाई गयी उपरोक्त जिम्मेदारियों  के सशक्त निर्वहन के चलते चरित्रहीनता के रास्ते के चलने के विषय में सोच भी नहीं सकती उसके गलत तरीकों से देहरी लांघने का कारण स्वयं पुरुष ही होते है।.एक जिम्मेदार पुरुष कभी अपने घर की लक्ष्मी और शोभा को किसी के तीक्ष्ण नजरों और शब्दों का हिस्सा नहीं बनने दे सकता । पुरुष जो समर्पण, त्याग और सेवा का भाव स्वयं के प्रति स्त्रियों से अपेक्षा करता है, वही भाव उसे भी स्त्री के प्रति होना चाहिए।हमारे समाज में शील और चरित्र की पवित्रता और शुचिता के मानदंड स्त्री और पुरुष के लिए भिन्न भिन्न होते हैं। पुरुष दुराचारी और व्यभिचारी होकर भी सद्चरित्र बना रहता है किन्तु स्त्री का शील और उसकी चारित्रिक शुचिता हमेशा पुरुष के मापदंड से मापी जाती है जो कि हमेशा पक्षपात पूर्ण होती है।आज की नारी पुरुष से सवाल करती है - "सीता की माँग करने वाले से यह भी तो पूछा जाएगा कि क्या वह राम बन सका?" ''अपनी पराजय को विजय मानने वाले ऐसे पुरुषों से भी समाज शून्य नहीं, जो छोटे बच्चों को छोड़कर दिन-दिन भर परिश्रम करने वाली पत्नियों के उपार्जित पैसों से सिनेमा घरों की शोभा बढ़ा आते हैं।" (अतीत के चलचित्र से। )हमें समझना होगा  कि -नारी पुरुष के जीवन को अपने समर्पण की मधुरिमा से भर देती है। उसमे प्रेम और समर्पण का भाव प्रकृति ने सहज रूप से भर दिया है जिसे वह स्वयं जानती है स्त्री को उसके हिस्से के सामाजिक कर्तव्य को सम्पन्न करने की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए, तभी समाज में संतुलन बना रहेगा और नारी उत्पीड़ित नहीं होगी।
    आज हम स्त्री को एक सशक्त महिला के रूप में देखते है किन्तु  एक स्त्री के सशक्त होने के साथ- साथ उसमें संवेदना और कोमलता का अभाव पाया जा रहा है  शीर्ष पदों पर आसीन महिलायें जिस कार्य क्षेत्र में ख्याति पर ख्याति हासिल कर रही है दरअसल वो उनका कार्य क्षेत्र नहीं है मेरा ऐसा मानना है। घर  परिवार और बच्चों को काम वाली बाई के हवाले करना अगर उनके सशक्त होने का उदाहरण है तो मैं ऐसे सशक्तिकरण को नहीं मानती अगर वो अपने परिवार समाज और रिश्तों के प्रबंधन में सशक्त है उसमें शीर्ष हैं  तो निः संदेह वो मिडिया की शीर्ष महिलाओं के श्रेणी में आती है। उनकी प्राथमिकता  किस कार्य के लिए होनी चाहिए  ये  जानना आवश्यक है स्त्री की रचना पैसा कमाने के लिए हुई है क्या। ईश्वर ने स्त्री और पुरुष की रचना अलग- अलग कुछ  सोच विचार कर ही की होगी किन्तु फिर भी स्त्री पुरुष का स्थान लेने की होड़ में अपने जीवन की प्राथमिकताओं से विमुख हो प्रेम, समर्पण और संवेदना कोमलता से कोसों दूर होती पैसा कमाने में विलिप्त है.  अब एक पुरुष किसके पास जाय अपनी संघर्ष भरी थकान मिटाने, अपने मन की बात कहने,घर पर एक ग्लास पानी प्रेम पूर्वक पाने की अभिलाषा से घर जाने की लालसा क्यों रखे।  जब घर की महिला खुद घर में है ही नहीं।आप घर से बाहर काम करके ही स्मार्ट कहलायें ये जरुरी नहीं आप घर से बाहर अपनी प्रतिभा अवश्य दिखाए किन्तु अपनी प्राथमिकताओं के पश्चात् । पर  वो अपनी दुनियाँ अलग बसा रही है ।जब घर की स्त्री पत्नी ,माँ बहु घर  में है ही नहीं तो फिर बच्चों की परवरिश में कहाँ से आएंगे संस्कार के बीज। उनकी सोच में कैसे शामिल होगी पारिवारिक जीवन शैली प्रेम,सदाचरण, एक दूसरे की फ़िक्र, मानवीय मूल्य, इस  बात का जवाब मैं हर उस महिला से मांगती हूँ जो पुरुषों से आगे निकल जाने की होड़ में शामिल होने के लिए अपनी घर गृहस्थी परिवार और रिश्तों की तिलांजलि देने के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से पूर्णतः तैयार है। दरअसल  वो जिस काम के लिए बनी है उसे दरकिनार कर रही है। जाने कितने पुरुष अपनी पत्नी या माँ के हाथों के बने खाने को भूल चुके है,घर की साज सज्जा सुंदरता और स्त्री की मुस्कुराहट के साथ शाम को घर का दरवाजा खुलना अब बंद हो गया हैं। घर की दिया बत्ती आरती का चलन अब आफिस में गुजर रहा है. मज़बूरी में या फिर प्रतिस्पर्धा में। विवशता में औरत का बाहर काम करना समझ में आता है उस पर भी कभी चर्चा की जाएगी विवशता के भी कई अर्थ- कहीं दिखावा या विलासिता के जीवन की लालसा तो नहीं। यहाँ सिर्फ सवाल इस बात का हैं 'शीर्ष' पर  वर्किंग वुमन ही हो ये सरासर गलत है। जबकि उनका वर्क कुछ और ही है और वो कर कुछ और रही है । मुझे स्त्री के आगे बढ़ने से एतराज नहीं किन्तु अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ कर आगे बढ़ने वाली महिला मेरी नजर में सशक्त नहीं। फिर पुरुष का क्या काम और पुरुष एक महिला पर किस बात के लिए पूरी तरह से आश्रित रहता है जिसका कोई विकल्प नहीं ये सारी बातें कौन सोचेगा, कब सोचेगा मुझे लगता हैं एक दिन महिलायें थक जायेगी  और पुनः अपने घर की राह लेंगी उन्हें भी  सुरक्षा सम्मान और प्रेम के लिए पुरुष चाहिए होगा। परिवार से एक दूसरे के लिए प्रेम ,मिठास,आदर,और करुणा ख़त्म होने का कारण मुख्य रूप से स्त्री  है।स्त्री को ये कभी नहीं भूलना चाहिए की वो समपर्ण के लिए बनी है और पुरुष संघर्ष करने के लिए।

                  उसकी सशक्तता के पीछे उसकी विवशता न होकर एक पुरुष का उत्साह होता तो शायद ये और भी गौरव का विषय होता अक्सर विवशता और परवशता ही हौसलों को उड़ान देती हैं किन्तु जब एक पुरुष अपने साहस से एक स्त्री को स्वयं आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता हैं उसकी प्रतिभा का सम्मान करता है और इस बात का आश्वासन देता हैं की 'तुम बढ़ो आगे मैं तुम्हारे साथ हूँ' तब एक पुरुष का न सिर्फ बड़प्पन  झलकता है बल्कि प्रौढ़ता और परिपक्वता भी उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है । हमें ये कभी नहीं भूलना चाहिए की स्त्री और पुरुष का आपस में कोई प्रतिद्वंद नहीं ठीक वैसे ही जैसे आम और सेब का नहीं गुलाब और गेंदे का नहीं है। आम धारणा  के अनुरूप ये अवश्य  कह सकते हैं की एक स्त्री स्वयं अवश्य अपनी तुलना  एक दूसरी स्त्री से करे किन्तु पुरुष से अपनी तुलना करने का कोई औचित्य नहीं दोनों अपने आप में एक अलग और विशिष्ठ कृति है।निष्कर्षतः यही कहना चाहूंगी की स्त्री के सशक्त होने का कारण उनकी विवशता न होकर एक पुरुष का उत्साह और बड़प्पन होना चाहियें तभी समाज में सकारात्मक सन्देश पहुंचेगा स्त्री और पुरुष दोनों के परिप्रेक्ष्य में। ठीक वैसे ही जैसे एक पिता अपनी पुत्री को इंजीनियर या डॉक्टर खुद बनाना चाहता हैं या उसकी स्वेच्छा से वो बनना चाहती हैं , ठीक वैसे ही जैसे एक पत्नी अपने शौक से या अपने भीतर प्रतिभाओं के चलते अपने पति के सानिध्य में आगे बढ़ती है.तब उसकी सफलता के अर्थ और परिणाम अलग होते हैं जब उसकी सफलता के पीछे एक पुरुष का साथ होता है विवशता में उठाये गए कदम एक स्त्री के लिए 'अर्थ' के रूप में सफलता अवश्य दे सकते हैं किन्तु आत्मसंतुष्टि नहीं । पुरुष स्त्री  को  सम्मान जनक जीवन दें ,एक स्त्री की एक पुरुष से यही सर्वोपरि अपेक्षा रहती है।और पुरुष को एक स्त्री से सन्तुष्टिप्रद सुखद जीवन की कामना रहती है। और दोनों को ही अपने अपने कार्य क्षेत्र में सशक्त होना चाहिए तभी समाज में महिलाओं के प्रति एक पुरुष की सोच बदलेगी और समाज में परिवार रिश्तों और संबंधों  को लेकर एक सकारात्मक सन्देश पहुंचेगा। शायद इस बदलाव से अवसाद,तनाव,अकेलेपन,जैसी समस्या पर नियंत्रण भी पाया जा सकेगा फिर शायद  कोई इसका इलाज घर के बाहर नहीं तलाशेगा जब घर में समाधान उपलब्ध होगा ।
  अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर हर महिला को अनंत शुभकामनायें असंख्य भावी सफलताओं की अग्रिम शुभकामनायें। शोभा जैन 

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