लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

गुरुवार, 26 जनवरी 2017


गणतंत्र दिवस पर आलेख 

                                  गणतंत्र दिवस पर आलेख
                                       ‘अपना गणतंत्र स्वयं रचे’
                                             --शोभा जैन


 गणतंत्र एक शब्द है किन्तु जिम्मेदारियों से भरा |अगर इसका आशय लिया जाये तो मनुष्यों के एक ऐसे समूह का दृश्य सामने आता है जो उनको नियमबद्ध होकर चलने के लिये प्रेरित करता है। कहा जाता है मनुष्य सबसे बुद्धिमान प्राणी है धरती पर शायद सबसे अधिक बुद्धिमान होने के कारण उसके ही अनियंत्रित होने की संभावना भी अधिक रहती है। विश्व के जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा है जिसे राज्य व्यवस्था की आवश्यकता है। क्यो क्योकि राज्य, संकट पड़ने पर प्रजा की मदद करता है।यह गणतंत्र का मूल सिद्धांत है पर यह एक तरह का भ्रम भी है। प्रथम अपराध करने वाले के मन में उसके परिणामों का ‘भय’ जरा भी नहीं |दूसरा याचक को न्याय मिलते -मिलते उसकी आयु ही उसका साथ छोड़ने लगती है |यह एक भ्रम ही प्रतीत होता है की  गणसमूह और उसका तंत्र व्यक्ति के जीवन को सुलभ बनाता है |धन, पद और अर्थ के शिखर पुरुषों का समूह गणतंत्र को अपने अनुसार प्रभावित करते हैं जबकि आम इंसान केवल शासित है। अगर आदमी को अकेले होने के सत्य का अहसास हो तो वह कभी इस भ्रामक गणतंत्र की संगत न करे। न्याय के नाम पर केवल नियमो की पंक्ति है और अंतिम पंक्ति तक पहुँचते -पहुँचते वह स्वयं को ही अपराधी महसूस करने लगता है |कहने का अर्थ वह वह इस गणतंत्र का प्रयोक्ता है न कि स्वामी। स्वामित्व का केवल भ्रम है मनुष्य को अपना जीवन संघर्ष अकेले ही करना है। ऐसे में वह अपने साथ गणसमूह और उसके तंत्र के साथ होने का भ्रम पाल सकता है पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। निरर्थक संवादों से गणतंत्र को स्वयं से संचालित होने का यह भ्रम हम अनेक लोगों में दिन प्रतिदिन बढ़ते क्रम में देख रहे हैं ।नियमों का लचीलापन ही अपराध करने का साहस बढाता है क्योकि अपराध सिद्ध होते- होते इतना लम्बा समय निकल जाता है की याचक का आक्रोश स्वतः ही ठंडा पड़ जाता है किन्तु जो उसने खोया इन वर्षों में उसकी भरपाई उसे कभी कोई न्याय व्यवस्था नहीं कर पाती |बदले में उसे जो मिलता है वो केवल सहनशीलता का पाठ |सहनशीलता, सरलता और कर्तव्यनिष्ठ से ही वह अपना जीवन संवार सकते हैं।जिनके पास ये नहीं हैं वो आक्रामक तरीके से उभरकर सामने आते है अनावश्यक और निरर्थक बहसें और वादविवाद कर स्वयं को सही साबित करने का प्रयास करते हैं |मेरा ऐसा मानना है गणतंत्र से ज्यादा शीघ्र और संतुष्टिप्रद न्याय ‘आध्यात्म’ देता है| इसलिए अपना गणतंत्र स्वयं बनायें |अगर आदमी को अकेले होने के और स्वयं से द्वंद करने के सत्य का अहसास हो तो वह कभी इस भ्रामक गणतंत्र की संगत न करे।मेरी दृष्टि में गणतंत्र केवल एक भ्रम ही तो है |देश को चलाने के लिए क्या सचमुच  एक सविंधान और कानून की आवश्यकता है अगर वास्तव में हाँ तो क्या कानून व्यस्था अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में खरा उतर रही है |सच को सच साबित करने में १० वर्ष लग गए |तलाकशुदा स्त्री को न्याय पाने में कम से कम ६-७  वर्ष लग गए| मदद के रूप में उधार दिये गए पैसों को वापस पाने में ५  वर्ष लग गए|इन वर्षों में जो खोया उसकी कीमत कभी नहीं मिल पायेगी| गणतंत्र झुण्ड हो सकता है आदमी का किन्तु झुण्ड का होना कितना सार्थक होता है ये कहने की आवश्यकता नहीं | शायद गणतंत्र भ्रम ही है |न्याय केवल आप खुद से लड़कर ही पा सकते हो लोगो के झुण्ड द्वारा बनायीं गई नीतियाँ और नियम राज्यव्यवस्था चलाने के लिए उचित हो सकते है जिसके तहत व्यावसायिक अनुबंध राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर के विमर्श हो सकते हैं किन्तु एक आम आदमी का जीवन चलाने में ये खरा नहीं उतर पाया | ये केवल नियमों की पंक्ति बनकर रह गया हैं शायद ये भ्रम ही आदमी को शिक्षित होने का आभास कराता है की उसे ‘गणतंत्र’ का आभास है वो एक लोकतान्त्रिक देश का नागरिक है भले ही वो उसकी जरूरतों की सही समय पर पूर्ति न कर सके | इसीलिए शायद आदमी को अपना गणतंत्र स्वयं रचना चाहिए स्वयं को नियमों में बांधे न की नियमों पर चलने पर विवश होना पड़े |उसका रचा गणतंत्र उसे न सिर्फ स्वयं पर जीत हासिल करवाएगा बल्कि उसके भीतर एक कर्मठ सहनशील व्यक्तित्व  का निर्माण भी करेगा |
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गुरुवार, 5 जनवरी 2017


जो दिया तुमने .......
   -- शोभा जैन 

पाया तुममें, सार्थक जीवन, आत्मचेतना, गहन चिन्तन|
भीड़ से अलग खुद को, बौना पाया हर दुःख को |
व्यथा ‘उसकी’ स्वयं जीकर, दिया उसका स्वयं ‘मूल्य’
तुम्ही शिक्षक, तुम्ही प्रेरणा,साथी तुम अतुल्य|
करुणा तुम, संवेदन तुम, ‘उन्मुक्त’ रहो वो ‘बंधन’ तुम
सोच में इत्मिनान तुम, खुद में एक सायबान तुम,
छोड़ दुनियाँ से छाँव की उम्मीद,खुद अपनी पहचान तुम |
मेरे अन्तस् की ‘धूप’ मेरी पूरी दुनियाँ, मेरा गाँव ‘तुम’|
मेरे सृजन के शिखर ‘तुम’ मौन ‘मैं’ शब्द मुखर ‘तुम’
नेपथ्य में उजास ‘तुम’, मेरी धरती मेरा आकाश ‘तुम’ |
मेरे प्रतिबिम्ब का आकार तुम,एक अनोखा संसार ‘तुम’
तुम ही आलोक, मेरी देह, मेरा प्राण तुम,
मैं ‘जीवंत’ मेरा ‘निर्वाण’ ‘तुम’|
इस बात को कितने संकोच से स्वीकार करते हो,
बेपरवाह बाधाएं पार करते हो |
अब शेष नहीं कुछ भी,
जो टीस बने मन की|
ये शब्द आत्माभिव्यक्ति है ‘मेरे’ ह्रदय और मन की|
न कह सकूँ न रख सकूँ, है यही ‘निष्कर्ष’ अब,

जो दिया ‘तुमने’ बस उसे सार्थक कर सकूं |