लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

जाने क्या हैं पर्युषण पर्व -

जैन धर्म में सबसे उत्तम पर्व है पर्युषण। यह सभी पर्वों का राजा है। इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है, जिसमें तप कर कर्मों की निर्जरा कर अपनी काया को निर्मल बनाया जा सकता है।

पर्युषण पर्व को आध्यात्मिक दीवाली की भी संज्ञा दी गई है। जिस तरह दीवाली पर व्यापारी अपने संपूर्ण वर्ष का आय-व्यय का पूरा हिसाब करते हैं, गृहस्थ अपने घरों की साफ- सफाई करते हैं, ठीक उसी तरह पर्युषण पर्व के आने पर जैन धर्म को मानने वाले लोग अपने वर्ष भर के पुण्य पाप का पूरा हिसाब करते हैं। वे अपनी आत्मा पर लगे कर्म रूपी मैल की साफ-सफाई करते हैं।

पर्युषण आत्म जागरण का संदेश देता है और हमारी सोई हुई आत्मा को जगाता है। यह आत्मा द्वारा आत्मा को पहचानने की शक्ति देता है। पर्युषण का अर्थ है – ‘ परि ‘ यानी चारों ओर से , ‘ उषण ‘ यानी धर्म की आराधना। पर्युषण अर्थात आत्मा के पास बैठो और उसकी सार – संभाल करो। वर्ष भर के सांसारिक क्रिया – कलापों के कारण उसमें जो दोष चिपक गया है , उसे दूर करने का प्रयास करो। शरीर के पोषण में तो हम पूरा वर्ष व्यतीत कर देते हैं। पर्युषण के आठ दिनों में हम शरीर के राजा अर्थात आत्मा की ओर ध्यान दें।

अपने चारों ओर फैले बाहर के विषय – विकारों से मन को हटा कर अपने घर में आध्यात्मिक भावों में लीन हो जाना। यदि हम हर घड़ी हर समय अपनी आत्मा का शोधन नहीं कर सकते तो कम से कम पर्युषण के इन आठ दिनों में तो अवश्य ही करें। आठ कर्मों के निवारण के लिए साधना के ये आठ दिन जैन परंपरा में सबसे महत्वपूर्ण बन गए।
सारांश में हम यह कह सकते हैं कि इन आठ दिनों में धर्म ही जीवन का रूप ले लेता है। धर्म से समाज में सहयोग और सामाजिकता का समावेश होता है। बगैर इसके समाज का अस्तित्व संभव नहीं है। इसी से समाज , जाति और राष्ट्र में समरसता आती है और उसकी उन्नति होती है। इसी से मनुष्य का जीवन मूल्यवान बनता है।
इन दिनों साधु वर्ग के लिए पांच विशेष कर्तव्य बताए गए हैं -संवत्सरी, प्रतिक्रमण, केशलोचन, यथाशक्ति तपश्चर्या, आलोचना और क्षमायाचना। इसी तरह गृहस्थों (श्रावकों) के लिए भी कुछ विशेष कर्तव्य बताए गए हैं। इनमें मुख्य हैं -शास्त्रों का श्रवण, यथाशक्ति तप, अभयदान, सुपात्र दान, ब्रह्मचर्य का पालन, आरंभ स्मारक का त्याग, संघ की सेवा और क्षमा याचना।इसके अलावा आलस्य तथा प्रमाद का परित्याग करके धर्म आराधना और उपासना के लिए तत्पर बने रहना ही पर्युषण पर्व का मुख्य संदेश है।
                 पर्युषण एक क्षमा पर्व भी है। यह हमें क्षमा मांगने और क्षमा करने की सीख देता है। क्षमा मांगना साहस भरा काम है, न कि दुर्बलता का। क्षमा करना वीरता का काम है। पर्युषण का यह पक्ष हमारे सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को नया जीवन देता है।
संपूर्ण दुनिया में पर्युषण ही ऐसा पर्व है जो हाथ मिलाने और गले लगने का नहीं, पैरों में झुककर माफी माँगने की प्रेरणा देता है। हम सभी मिलकर इस पर्व के दस दिनों में क्षमा, मार्दव (अहंकार), आर्जव (सरल बनना), शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्रह्मचर्य ( ये ही दसलक्षण धर्म के सर्वोच्च गुण हैं। ) जो पर्युषण पर्व के रूप में आकर हमें पूरे देशव‍ासियों, प‍ारिवारिकजनों और जैन धर्मावलंबियों और प्राणी मात्र के प्रति सुख-शांति का संदेश देते हुए सभी को क्षमा करने और क्षमा माँगने की प्रेरणा देते हैं। जो व्यक्ति गलती या वैर-विरोध हो जाने पर तुरंत क्षमा माँग लेता है उसे पूरे वर्ष में एक बार नहीं, 365 बार क्षमा करने और माँगने का सौभाग्य मिल जाता है। वर्ष भर छोटे बड़ों को प्रणाम करते हैं पर एकमात्र पर्युषण पर्व ऐसा है जिसमें क्षमा पर्व के दिन सास बहू को, पिता-पुत्र को बड़े-छोटों को प्रणाम करने के लिए अंत:प्रेरित हो उठते हैं। आइए,इस क्षमा पर्व का लाभ उठाएँ। सबसे हाथ जोड़कर क्षमा माँगे

सभी को जैन पयुर्षण के क्षमावाणी पर्व पर दिल से मिच्छामी दुक्कड़म ‘उत्तम क्षमा’।
अंत में सभी को जय जिनेंद्र!

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर,
मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!
बैठ जा तू क्यों खड़ी है
क्यों नज़र तेरी गड़ी है
आह सुखिया, आज की रोटी
बनी मीठी बड़ी है

क्या मिलाया सत्य कह री?
बोल क्या हो गई बहरी?
देखना, भगवान चाहेगा
उगेगी खूब जुन्हरी

फिर मिला हम नोन-मिरची
भर सकेंगे पेट खाली
चल रही उसकी कुदाली


आँख उसने भी उठाई 
कुछ तनी, कुछ मुसकराई
रो रहा होगा लखनवा
भूख से, कह बड़बड़ाई
डॉ.शिवमंगल सिंह 'सुमन'
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।

जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं

दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।

साँसों पर अवलम्बित काया
जब चलते-चलते चूर हुई
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई

पथ के पहचाने छूट गए
पर साथ-साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर

इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।

कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल-अन्तर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर

आभारी हूँ मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।
डॉ.शिवमंगल सिंह 'सुमन'