लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

 इंसान जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार उसके साथ व्यवहार  करते हैं।अपने व्यवहार के प्रति सजग और शब्दों के प्रति संयमित रहें। 
जीवन की सच्चाईयों को भगवद गीता खुद में संजोए है. अगर  गीता के इन श्लोकों को अपने जीवन में उतार लें तो शायद  कभी असफ़लता का मुँह  न  देखना पड़े......
हर आदमी का जीवन बसर होता है
शोर से अधिक एकांत में असर होता है
भागता है हर पल वो सुकून की तलाश में
बस अपने से ही बेखबर होता है
कर बैठता है नादानियाँ किसी मौड़ पर
जिक्र उसका घर -घर होता है
उपलब्धियाँ वो नहीं दे पाती जो,
आलोचना में जो असर होता है
       -------शोभा जैन 

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

जहाँ वृक्ष पर खिलते हैं नारी आकृति वाले 'नारीलता' फूल....

      इसकी सत्यता पर एक बार विचार अवश्य करें ..



प्रकृति के कई रंग हैं। कई बार प्रकृति कुछ ऐसे अजूबे भी उत्पन्न करती है कि उन पर विश्वास करना मुश्किल होता है, ठीक वैसे ही जैसे परियों की कहानियाँ। इसी प्रकार बचपन में हम अक्सर सुना करते थे कि गूलर का फूल होता है, पर वह रात्रि को खिलता है और उसे कोई देख नहीं सकता। इसी तर्ज पर ’गूलर का फूल’ होना जैसी एक कहावत भी है। जिसका इस्तेमाल तब किया जाता है जब हमारा कोई परिचित एक लंबे समय बाद आँखों से ओझल रहने पर अचानक प्रकट होता है। ऐसी न जाने कितनी किंवदंतियाँ और बातें हैं, जिनके बारे में शत-प्रतिशत दावा करना मुश्किल होता है, पर यही तो हमारी उत्सुकता व रोचकता को बढ़ाते हैं। अक्सर अपने आस-पास हम पेड़-पौधों को तमाम देवी-देवताओं या जीवों की आकृति रूप में देखते हैं। हममें से कितनों ने कस्तूरी मृग देखे हैं, पर कस्तूरी खुशबू के बारे में अक्सर सुनते रहते हैं।

प्रकृति का एक ऐसा ही अजूबा है- ’नारीलता फूल’। नारी की सुदरता का बखान करने के लिए कई बार उसकी तुलना फूलों से की जाती है, पर यहाँ तो बकायदा नारी-आकृति फूल के रूप में पल्लवित-पुष्पित होती है। कहा जाता है कि यह एक दुर्लभ फूल है जो 20 साल के अंतराल पर खिलता है। यह भारत के हिमालय और श्रीलंका तथा थाईलैंड में पाए जाने वाले एक पेड़ में खिलता है। हिमालय में इसे इसके आकार के कारण नारीलता फूल कहा जाता है। जब यह फूल खिलता है तो पूरे पेड़ पर चारों तरफ नारी-आकृति वाले यह फूल लटके रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी ने उन पेड़ों पर ढेर सारी गुडि़या लटका दी हों। वाकई नारी-आकृति वाला यह फूल दुर्लभ एवं प्रकृति की अनमोल कलाकारी है।


यही कारण है कि नारीलता फूल सदैव चर्चा में रहा है। यू-ट्यूब, फेसबुक और गूगल तक पर लोग इसके बारे में चर्चा कर रहे हैं और इसे खोज रहे हैं। कुछेक लोगों का तो ये भी मानना है कि यह किसी इंसान की हरकत है जिसने तमाम गुडि़यों को वृक्ष पर लटका दिया है, तो कुछेक इसे डिजिटल टेक्नालाजी से जोड़-तोड़ की कला बताते हैं। सच क्या है, यह किसी को नहीं पता। आखिर 20 साल का अंतराल कम नहीं होता है। पर जो भी हो प्रकृति की अद्भुत कलाकारी के हमने कई रंग देखे हैं और यह भी उसी में से एक हो तो आश्चर्य नहीं।

    जानकारी आकांशा यादव --शब्द शिखर 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

जब तक "सत्य " घर से बाहर निकलता है.......!
तब तक " झूठ " आधी दुनिया घूम लेता है...!! 
आलेख -                
                  कितने मासूम ये दीये....

                              शोभा जैन


                                                       
                                                                                   
भारत का सबसे भव्य माने जाना वाला पर्व ‘दीपावली’ जिसकी भव्यता को पूर्णता देते हैं ये मिट्टी के  दिये | भारतीय संस्कृति की परम्पराओं में जिस तरह स्वास्तिक,कलश और शंख को महत्वपूर्ण माना गया है उसी तरह दीये भी इसी परंपरा का एक अहम हिस्सा हैं | ये मिट्टी के दीये भारतीय संस्कृति में हमें अपने जीवन से अज्ञान को दूर कर पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का सन्देश भी देते हैं कितने मासूम होते होंगे वो हाथ, कितनी शिद्द्त होती होगी उनकों आकार देने वाले दोनों हाथों में जो प्रज्वलित होने पर इनकी शोभा चार गुनी बढ़ा देते है | पर जरुरी नहीं हमारे त्योहार को भव्य बनाने वाले इन हाथों के घर की दिवाली भी उतनी ही भव्य होती होगी |अब  इस बदलते परिवेश में इन जलते दीयों का रुदन सुनाई देने लगा है जिन दो हाथों के सामंजस्य से इन दीयों को आकार मिलता है वही दो हाथ इस तपती चिलचिलाती धूप में अपनी और इशारा कर बुलाते है एक सही खरीदार को उसी मासूमियत से जिस मासूमियत से इन्हें आकार में ढाला गया |दिये की  टोकरी में रखा प्रत्येक दिया टोकरी के बाहर झांक रहा है ताक रहा है दिवाली के भीड़ भरे बाजार में कि कोई  साहेबा बिना भाव ताव किये इस मासूम से बच्चे  को उसकी मासूमियत की कीमत दे जाय दीये की मासूमियत भी बिल्कुल वैसी ही जैसी उसे तपती धूप में बेचने वाली किशोरी  की  | लोग आते है भाव पूछकर चले जाते है उन पर तराशी गई मासूमियत से भरी बनावट और सुन्दरता, रंग रोगन का पारिश्रमिक भी उन्हें सही समय नहीं मिल पाता | कभी- कभी दिवाली आकर चली भी जाती है  और हाथ में रह जाती है महज़ कुछ चिल्लरें|  फिर भी दिये करते है इन्तजार अगली दिवाली का की हम इस टोकरी से बाहर आयेगे कोई साहेबा हम मे से किसी एक को अपने हाथ में लेकर उसी मासूमियत से देखेगी जिस मासूमियत से उन्हें बनाने वाले ने उन्हें अपनी  कल्पना में उकेरा था और उस कल्पना को साकार कर लाया इस बाज़ार में बेचने के लिए | दिये करते हैं इन्तजार आएगी कोई साहेबा और उठाकर देखेगी दिये के ढेर में एक साबुत से साफ़ सुधरे दीये को,  आजू बाजू घुमाकर उसे चारों और से देखेगी,  देखेगी उसकी बनावट को , उसकी उस गहराई को जिसमें तेल भरा जायेगा, ‘दिये’ की ‘गहराई’ निर्धारित करेगी वो अँधेरे में कब तक जलेगा , साहेबा देखेगी उसका तल, दिये का विस्तार, उसमें तराशी गई  चारों और सीडीनुमा कंगूरे वाली डिजाइन और वो सिरा जिसमें कपास की बत्ती निरंतर जलने के लिए अपना विराम लेगी केवल एक ही नहीं चार सिरे भी एक दिये में समा गए जिसमें चार बत्तियां एक साथ रोशन करेगी एक दिये को|  उन सिरों की गहराई इतनी सुंदर की बत्ती खुद ठहर कर जलने को आतुर हो जाय| है कोई ऐसा खरीदार इन मासूम दीयों का जो समझ सके इनका आकार ? बनावट? और विस्तार ? है कोई जो समझ सके  इनके सिरों में छिपी गहराई?  इसके तल में छिपी दृढ़ता,  इसके बनने से लेकर बाज़ार में  बिक जाने तक की व्यथा? कितने मासूम ये ‘दीये’ ढूँढ रहें  है किसी ऐसे खरीदार को| जो समझ सके इसके आकार प्रकार को |कितने मासूम ये ‘दिये’ |इन्हें जलाते नहीं है हम, ये तो अपनी ही आग में जलते है ‘कितने मासूम ये दिये’ |
                    अंत में किसी रचनाकार की कुछ पंक्तियाँ ----
अपना साया भी अंधेरों में साथ देता नहीं,
बनके साथ चलते है ये मिट्टी के दीये|
कभी आँगन,कभी मरघट,कभी समाधी पर,
किसी की याद में जलते है ये मिट्टी के दीये |
कितना स्वार्थी है जमाना  जलाता है इन्हें,
सिसकियाँ तक नहीं भरतें हैं ये मिट्टी के दीये |

……………………………………………………………………………………
जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है और जो जल्दी अविचारपूर्वक निर्णय लेने के आदी हो जाते हैं, वे उसे जानने से वंचित ही रह जाते हैं।"—

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016


--ठन्डे आदमी की सोच 
         - शोभा जैन 




जब तक आपको यह ज्ञात न हो जाय की आप किस उद्द्देश्य की पूर्ति के  लिए बने  है तब तक सुकून से जीने की चेष्टा करना व्यर्थ है ..संक्षेप में कहें तो प्रतिपल आपको आत्मबोध होते रहना चाहिए ...क्योकि दुनियाँ का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए बना है समय ईश्वर ने सबको एक समान दिया है उसकी उपयोगिता आपके भविष्य का निर्धारण करती है ...हमारा अतीत और वर्तमान दोनों का निचोड़ हमारा मार्गदर्शन करता है आपका कुछ भी किया व्यर्थ नहीं जाता बशर्ते उसका उपयोग खाद के रूप में किया जाय ..दुनियाँ के सारे ही लोग महान 'दार्शनिक' नहीं बन सकते किन्तु 'चिन्तन' की प्रवृत्ति इंसान को आत्मबोध के लिए प्रेरित करती है ...कोशिश इस बात के लिए की जानी चाहिए की हर रोज एक आम इंसान की तरह अन्न को पचाना है या अन्न से उर्जा का निर्माण करना है ....अपने विचार और कर्म के मध्य संतुलन सेतु में चिन्तन की अहम भूमिका होती है ...ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है चिन्तन फिर चाहे किसी छोटे से कार्य को प्रारंभ करने के पूर्व ही क्यों न किया गया हो जैसे -भले ही गृहणी का रोटी बेलना, करछी से सब्जी चालना या फिर लेखक का कलम से पहला शब्द लिखना ये तीनों ही कार्य एक चिंतनशील व्यक्ति बहुत सोच विचार कर करेगा जिसके परिणाम उसके कार्य में स्पष्ट झलकेंगे ये सत्य है विचार मंथन  कभी गलत परिणाम नहीं देगा ....अक्सर ऐसे लोगो को 'ठंडा इंसान' कहकर व्यंगात्मक रूप से संबोधन दिया जाता है क्योकि वो किसी भी कार्य की शुरुआत करने में इतना अधिक सोचते विचारते और निर्णय लेने में असीम धैर्य का परिचय भी देते है इस वजह से कई बार चीजें छूट भी जाती है ..अर्थात किसी चीज की शुरुआत ही नहीं हो पाती क्योकि  आम इंसान की भागने की प्रवृत्ति और शीघ्र हाथ का काम निबटाने की आदत उसे ऐसे चिंतक लोगो से स्वतः ही दूर कर देती है.....किन्तु किसी भी कार्य के समस्त पहलुओं पर विचार मंथन कर उसके परिणाम और दुष्परिणाम दोनों के लिए मानसिक तैयारी ही सफल व्यक्ति  का  परिचय बनती  है दरअसल ऐसे में मानव की स्थिति के हर पहलु को छूना होता है ...और मानसिक तैयारी वक़्त लेती है ...किसी भी कार्य को आज के द्रष्टिकोण से नहीं बल्कि भविष्य के नजरिये से तैयार करना ही दूरदर्शिता का परिचायक होता है अक्सर कुछ निर्णय  वर्तमान में ठेस पहुंचाते है  किन्तु एक सुद्रण भविष्य की नीव रख देते है...अतः इंसान को भविष्य को केंद्र में रखकर अपने वर्तमान की परिधि में  अपने निर्णयों और योजनाओं का क्रियान्वयन कर समाज में एक ठन्डे किन्तु बुद्धिमान शख्सियत की छवी के रूप में स्वयं को स्थापित करना चाहिए  जिससे दूसरे भी आपका अनुसरण कर सके .. हो सकता  है ऐसा करने से आप कई सुनहरे अवसरों से हाथ धो बैठे किन्तु जो हाथ लगेगा वो आजीवन आपके साथ होगा ,एक संतुष्टि और सुकून के साथ बिना किसी जोखिम के ..... [यहाँ युवाओं के लिए एक बात अवश्य लिखी जायेगी की अवसरों के पीछे नहीं भागे बल्कि स्वयं अवसर बनाये स्वनिर्मित अवसर आपके जीवन में  विरासत का काम करेंगे  वो विरासत जो आपने स्वयं बनाई है जो आज आपकी अमूल्य धरोहर होगी जिसे आप भावी पीढ़ी के हाथों सोंप सकेंगे ]
      इस आलेख में मेरे अपने व्यक्तिगत अनुभवों की भरमार है इसे लिखने में मैंने बेहद सुकून का अनुभव किया कारण एक मात्र की इसे लिखने से पहले जिया गया है इस जीने ने मेरा मनोबल बढाया फिर मुझे लगा क्यों न इस अनुभव को अपनों के साथ बांटा जाय शायद किसी के काम आ जाय .......
      साभार -

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

कूड़े जैसे ढेर.....








भोजन की तलाश में गाँव से शहर आने वाले मजबूर लोग भीख में रोटी चावल की उम्मीद नहीं करते थे, वे भीख में बस चावलकी माड़ी मांगते थे। प्रेमेन्द्र लिखते हैं, 
'शहर की सड़कों पर देखें हैं,
 कुछ अजीब जीव/
बिल्कुल इंसानों जैसे/या,
 कि इंसानौं जैसे नहीं/
मानों उनके व्यंग्य चित्र, विद्रूप विकृत!/
फिर भी वे हिलते डुलते हैं बतियाते हैं, और
सड़क किनारे कूड़े जैसे ढेर बनाते हैं/
जूठन के कूड़ेदानों पर, बैठे हांफते/और माड़ी मांगते।'

रविवार, 9 अक्तूबर 2016

अच्छी किताबें,
और
अच्छे लोग
तुरंत समझ में नहीं आते,
उन्हें पढ़ना पड़ता है....

बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

मेहनत से उठा हूँ, मेहनत का दर्द जानता हूँ,
आसमाँ से ज्यादा जमीं की कद्र जानता हूँ।
लचीला पेड़ था जो झेल गया आँधिया,
मैं मगरूर दरख्तों का हश्र जानता हूँ।
छोटे से बडा बनना आसाँ नहीं होता,
जिन्दगी में कितना जरुरी है सब्र जानता हूँ।
मेहनत बढ़ी तो किस्मत भी बढ़ चली,
छालों में छिपी लकीरों का असर जानता हूँ।
कुछ पाया पर अपना कुछ नहीं माना,
क्योंकि आखिरी ठिकाना मेरा मिटटी का घर अपना जानता हूँ 
बेवक़्त, बेवजह, बेहिसाब मुस्कुरा देता हूँ,
आधे दुश्मनो को तो यूँ ही हरा देता हूँ!!

   ---- अज्ञात 
प्राप्त करना सहज है किन्तु उसे सहेजना बेहद कठिन ..

रविवार, 2 अक्तूबर 2016

हिंदी साहित्य में स्त्री आत्मकथाएँ सिर्फ व्यथा कथाएँ नहीं हैं बल्कि तमाम तरह की पितृसत्तात्मक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए स्त्री के बनने की कथाएँ हैं। इस बनने के क्रम में बहुत कुछ जर्जर मान्यताएँ टूटती हैं लेकिन जो बनती है उसे या उसके अस्तित्व को पूरी दुनिया स्वीकार करती है।