लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016


आलेख --

रक्षाबंधन -वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एक पुनरावलोकन 

                                     
भारत त्योहारों का देश है। कहा जाता है प्राचीनकाल में रक्षाबंधन मुख्यत: ब्राह्मणों का, विजयदशमी क्षत्रियों, दीपावली वैश्यों और होली शूद्रों का त्यौहार माना जाता था। रक्षाबंधन के पर्व पर यह आलेख इस त्यौहार के अर्थपूर्ण निर्वहन पर एक पुनरवलोकन है। रक्षाबंधन के  त्यौहार पर  प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बांधते थे, जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था।
येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे  रक्षे मा चल मा चल।।
इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)" भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए इस मन्त्र का  स्वस्तिवाचन किया था (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है) रक्षाबंधन जिसे एक त्यौहार के रूप में हम मनाते है इसे मनाये जाने के पीछे कई मान्यताएं रहीं है इसके  संबंध में एक  पौराणिक कथा भी प्रसिद्ध है। देवों और दानवों के युद्ध में जब देवता हारने लगे, तब वे देवराज इंद्र के पास गए। देवताओं को भयभीत देखकर इंद्राणी ने उनके हाथों में रक्षासूत्र बाँध दिया। इससे देवताओं का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने दानवों पर विजय प्राप्त की। तभी से राखी बाँधने की प्रथा शुरू हुई। दूसरी मान्यता के अनुसार ऋषि-मुनियों के उपदेश की पूर्णाहुति इसी दिन होती थी। वे राजाओं के हाथों में रक्षासूत्र बाँधते थे। इसलिए आज भी इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी बाँधते हैं।रक्षाबंधन का त्योहार भाई-बहन के पवित्र प्रेम का भी प्रतीक है। यह सबसे अहम  कारण रक्षा बंधन के दिन को बहुमूल्य बनाता है। हालांकि कई अन्य मान्यतायें और कथाएँ रक्षा बंधन के सन्दर्भ में प्रचलित है और राखी के इन धागों में  अनेक कुरबानियाँ निहित  हैं।अंततः  इस पर्व का सार 'रक्षा सूत्र' के रूप में ही उभर कर आता है। शायद इसीलिए  रक्षाबंधन का त्योहार हर भाई को बहन के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाता है।किन्तु उत्सवों और त्योहारों को मनाने का मूल कारण अब महज एक दिवस की ओपचारिकता जैसी प्रतीत होती है शायद हम इस बात को भूल गए हैं कि राखी के धागों का संबंध मन की पवित्र भावनाओं से हैं।एक पुरुष को ईश्वर ने स्त्री के रक्षक के स्वरुप में ही निर्मित किया है समयानुसार उसके पद और स्थान में बदलाव किया किन्तु स्त्री को सदैव पुरुष का संरक्षण सस्मान प्राप्त हो इसलिए ही पिता, भाई और पति के रूप में स्त्री के जीवन में एक पुरुष को अनिवार्य किया। हालांकि अब समय इतना तेजी से  आगे निकल रहा है की आज की नारी स्वयं को पुरुष तुल्य बनाने में स्वयं को सक्षम कर रही है। किन्तु समय कितना भी आगे निकल जाय कुछ चीजें कभी नहीं बदलती ईश्वर ने अगर स्त्री और पुरुष को दो अलग -अलग स्वरुप में निर्मित किया है तो अवश्य ही इसके पीछे कोई ठोस कारण रहा होगा। स्त्री को समर्पण के साथ मानसिक सहयोग के लिए पुरुष के जीवन में होना अनिवार्य किया। समयानुसार  पद और स्थान का बदलाव कर एक पुरुष को भी  माता के रूप में, बहन के रूप में और पत्नी के रूप में स्त्री अनिवार्य की गयी। इसका अर्थ जो कार्य स्त्री का है वो शायद उससे बेहतर कोई नहीं कर सकता और जो कार्य एक पुरुष का है वो कार्य उससे बेहतर कोई नहीं कर सकता किन्तु आज प्रकृति के नियमों के साथ थोड़ी छेड़-छाड़  हो रही है स्त्री और पुरुष दोनों ही अपने -अपने काम को दरकिनार कर कर्तव्यविमुख हो रहें है। सभ्यता और परिवेश के विकास के साथ प्रकृति द्वारा प्रदत्त नेमत का भी ससम्मान निर्वहन करना अनिवार्य है। अन्यथा किसी भी  विकास का चरम पतन का कारण भी बन जाता है। घर- गृहस्थी,साज श्रृंगार सेवा पूजा संस्कार जैसी बातें एक स्त्री के पिछड़ेपन का घोतक मानी जाने लगी है.। किन्तु नोकरी करने वाली स्त्री सेल्फ और आत्मविश्वासी औरत के रूप में संबोधित होने लगी है एसी महिलाओं को रक्षक की जरुरत ही महसूस नहीं होती शायद इसलिए क्योकि जो रक्षा करेगा उसकी भी अपनी अपेक्षायें होंगी जो निः संदेह एक पुरुष की एक स्त्री से होती है पदानुसार माँ,बहन,और पत्नी के रूप में।  उन्हें पूरा करने के लिए उसे अपने पारिवारिक जीवन में स्वयं को  डुबोना  होगा। घर के हर एक सदस्य की जरूरतों खुशियों का ख्याल रखना होगा ये काम शायद बाहर जाकर पैसा कमाने से भी कठिन है क्योकि ये काम शिद्दत और समर्पण मांगता है। जिसे देने के लिए शायद आज की शिक्षित नारी तैयार नहीं। बाहर जाकर काम करना कोई गलत काम नहीं किन्तु अपनी जिम्मेदारियों के सम्पूर्ण निर्वहन के पश्चात् ही इस और अग्रसर होने का  कदम बढ़ाना एक उचित निर्णय होगा। बल्कि अपने शोक या स्वयं को रचनात्मक बनाए रखने के लिए ऐसा कोई भी कार्य करना बिल्कुल सही निर्णय होगा। किन्तु स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता का अतिरेक कई परिवारों में विघटन का कारण बन रहा है। फलस्वरूप आज की स्त्री घर में रहना ही नहीं चाहती।  घर के कार्यो की दक्षता उसे गर्वित महसूस नहीं कराती। जबकि उसके पास एक पुरुष है जो उसे आर्थिक रूप से भी सुरक्षित संरक्षित कर सम्मान की जिन्दगी देने में सक्षम है। इस विषय का मूल थोडा गहरा है की रक्षा सूत्र तभी बांधना या बंधवाना उचित होगा जब दोनों एक दूसरे के कर्तव्यों  का निर्वहन कर सकें। फिर वो भाई का बहन के साथ ही क्यों न हो। अगर भाई रक्षा करने के लिए तत्पर है तो बहन भी समर्पण के लिए स्वयं को सक्षम बनायें।पदानुरूप एक पुरुष से  एक स्त्री  की  अपने जीवन में दो ही अनिवार्य आवश्यकता होती है संरक्षण[सुरक्षा] और सम्मान। बिना पुरुष के ये दोनों ही आवश्यकतायें पूरी नहीं होगी या  संभव नहीं ऐसा लिखकर मैं  किसी के विचारों या स्वाभिमान को ठेस न पहुचाते हुए प्रकृति के सत्य से अवगत करने का प्रयास अवश्य करुँगी की कोई तो वजह रही होगी ईश्वर ने स्त्री और पुरुष दोनों को पृथक रूप में निर्मित किया न केवल शारीरिक अपितु मानसिक तौर पर भी। मैं यहाँ उनके विचारों से भी सहमत हूँ जो स्त्री को 'आज की नारी से' संबोधित करते है मैं मानती हूँ भारत देश में कई वीरांगनायें जन्मी है जिन्होंने पुरुषों के समान साहसिक कार्य  किये हैं किन्तु उनकी वीरता युद्ध के साथ उनके प्रेम और समर्पण की भी गाथा कहती है।और समानुसार उन्होंने स्वयं को केवल 'पत्नी' बने रहना भी स्वीकारा।  जिसमें उनकी प्रतिभा एक बेहतर  माँ,पत्नी और बहु के साथ -साथ एक कुशल रानी के रूप में भी उभर कर सामने आयी।  अतः इस रक्षाबन्धन रक्षा सूत्र का अर्थ गहराई से समझकर स्त्री भी इस रक्षा सूत्र की कीमत देने के लिए तत्पर रहे। रक्षाबंधन केवल एक पर्व ही नहीं अपितु  सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता एवं एकसूत्रता एवं हमारी  सांस्कृतिक विरासत को पुनर्सृजित करने का एक अवसर है. एक ऐसा पर्व जो घर -घर मानवीय रिश्तों में उर्जा का संचार कर दे। नारी के सम्मान और सुरक्षा पर केन्द्रित ये पर्व विलक्षण इसी लिए है क्योकि सबसे अधिक जिम्मेदारी से परिपूरित है। प्राचीन काल में जब शिष्य गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूरी कर अपने गुरु से विदा लेते थे तब आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वे रक्षा सूत्र बांधते थे जबकि आचार्य अपने विधार्थी को इस कामना के साथ रक्षा सूत्र बांधते थे की उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है उसका वह अपने भावी जीवन में समुचित ढंग से प्रयोग करेंगे अर्थात् दोनों की एक दुसरे के प्रति अपेक्षायें निहित है। वर्तमान समय मानवीय संवेदना और मानवीय उसूलों से परे  केवल साज श्रृंगार के साथ भाईयों की जेब की इतिश्री करने से ज्यादा और कुछ नहीं।



रक्षाबंधन -वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एक पुनरावलोकन 
भारत त्योहारों का देश है। कहा जाता है प्राचीनकाल में रक्षाबंधन मुख्यत: ब्राह्मणों का, विजयदशमी क्षत्रियों, दीपावली वैश्यों और होली शूद्रों का त्यौहार माना जाता था। रक्षाबंधन के पर्व पर यह आलेख इस त्यौहार के अर्थपूर्ण निर्वहन पर एक पुनरवलोकन है। रक्षाबंधन के  त्यौहार पर  प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बांधते थे, जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था।
येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे  रक्षे मा चल मा चल।।
इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)" भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए इस मन्त्र का  स्वस्तिवाचन किया था (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है) रक्षाबंधन जिसे एक त्यौहार के रूप में हम मनाते है इसे मनाये जाने के पीछे कई मान्यताएं रहीं है इसके  संबंध में एक  पौराणिक कथा भी प्रसिद्ध है। देवों और दानवों के युद्ध में जब देवता हारने लगे, तब वे देवराज इंद्र के पास गए। देवताओं को भयभीत देखकर इंद्राणी ने उनके हाथों में रक्षासूत्र बाँध दिया। इससे देवताओं का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने दानवों पर विजय प्राप्त की। तभी से राखी बाँधने की प्रथा शुरू हुई। दूसरी मान्यता के अनुसार ऋषि-मुनियों के उपदेश की पूर्णाहुति इसी दिन होती थी। वे राजाओं के हाथों में रक्षासूत्र बाँधते थे। इसलिए आज भी इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी बाँधते हैं।रक्षाबंधन का त्योहार भाई-बहन के पवित्र प्रेम का भी प्रतीक है। यह सबसे अहम  कारण रक्षा बंधन के दिन को बहुमूल्य बनाता है। हालांकि कई अन्य मान्यतायें और कथाएँ रक्षा बंधन के सन्दर्भ में प्रचलित है और राखी के इन धागों में  अनेक कुरबानियाँ निहित  हैं।अंततः  इस पर्व का सार 'रक्षा सूत्र' के रूप में ही उभर कर आता है। शायद इसीलिए  रक्षाबंधन का त्योहार हर भाई को बहन के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाता है।किन्तु उत्सवों और त्योहारों को मनाने का मूल कारण अब महज एक दिवस की ओपचारिकता जैसी प्रतीत होती है शायद हम इस बात को भूल गए हैं कि राखी के धागों का संबंध मन की पवित्र भावनाओं से हैं।एक पुरुष को ईश्वर ने स्त्री के रक्षक के स्वरुप में ही निर्मित किया है समयानुसार उसके पद और स्थान में बदलाव किया किन्तु स्त्री को सदैव पुरुष का संरक्षण सस्मान प्राप्त हो इसलिए ही पिता, भाई और पति के रूप में स्त्री के जीवन में एक पुरुष को अनिवार्य किया। हालांकि अब समय इतना तेजी से  आगे निकल रहा है की आज की नारी स्वयं को पुरुष तुल्य बनाने में स्वयं को सक्षम कर रही है। किन्तु समय कितना भी आगे निकल जाय कुछ चीजें कभी नहीं बदलती ईश्वर ने अगर स्त्री और पुरुष को दो अलग -अलग स्वरुप में निर्मित किया है तो अवश्य ही इसके पीछे कोई ठोस कारण रहा होगा। स्त्री को समर्पण के साथ मानसिक सहयोग के लिए पुरुष के जीवन में होना अनिवार्य किया। समयानुसार  पद और स्थान का बदलाव कर एक पुरुष को भी  माता के रूप में, बहन के रूप में और पत्नी के रूप में स्त्री अनिवार्य की गयी। इसका अर्थ जो कार्य स्त्री का है वो शायद उससे बेहतर कोई नहीं कर सकता और जो कार्य एक पुरुष का है वो कार्य उससे बेहतर कोई नहीं कर सकता किन्तु आज प्रकृति के नियमों के साथ थोड़ी छेड़-छाड़  हो रही है स्त्री और पुरुष दोनों ही अपने -अपने काम को दरकिनार कर कर्तव्यविमुख हो रहें है। सभ्यता और परिवेश के विकास के साथ प्रकृति द्वारा प्रदत्त नेमत का भी ससम्मान निर्वहन करना अनिवार्य है। अन्यथा किसी भी  विकास का चरम पतन का कारण भी बन जाता है। घर- गृहस्थी,साज श्रृंगार सेवा पूजा संस्कार जैसी बातें एक स्त्री के पिछड़ेपन का घोतक मानी जाने लगी है.। किन्तु नोकरी करने वाली स्त्री सेल्फ और आत्मविश्वासी औरत के रूप में संबोधित होने लगी है एसी महिलाओं को रक्षक की जरुरत ही महसूस नहीं होती शायद इसलिए क्योकि जो रक्षा करेगा उसकी भी अपनी अपेक्षायें होंगी जो निः संदेह एक पुरुष की एक स्त्री से होती है पदानुसार माँ,बहन,और पत्नी के रूप में।  उन्हें पूरा करने के लिए उसे अपने पारिवारिक जीवन में स्वयं को  डुबोना  होगा। घर के हर एक सदस्य की जरूरतों खुशियों का ख्याल रखना होगा ये काम शायद बाहर जाकर पैसा कमाने से भी कठिन है क्योकि ये काम शिद्दत और समर्पण मांगता है। जिसे देने के लिए शायद आज की शिक्षित नारी तैयार नहीं। बाहर जाकर काम करना कोई गलत काम नहीं किन्तु अपनी जिम्मेदारियों के सम्पूर्ण निर्वहन के पश्चात् ही इस और अग्रसर होने का  कदम बढ़ाना एक उचित निर्णय होगा। बल्कि अपने शोक या स्वयं को रचनात्मक बनाए रखने के लिए ऐसा कोई भी कार्य करना बिल्कुल सही निर्णय होगा। किन्तु स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता का अतिरेक कई परिवारों में विघटन का कारण बन रहा है। फलस्वरूप आज की स्त्री घर में रहना ही नहीं चाहती।  घर के कार्यो की दक्षता उसे गर्वित महसूस नहीं कराती। जबकि उसके पास एक पुरुष है जो उसे आर्थिक रूप से भी सुरक्षित संरक्षित कर सम्मान की जिन्दगी देने में सक्षम है। इस विषय का मूल थोडा गहरा है की रक्षा सूत्र तभी बांधना या बंधवाना उचित होगा जब दोनों एक दूसरे के कर्तव्यों  का निर्वहन कर सकें। फिर वो भाई का बहन के साथ ही क्यों न हो। अगर भाई रक्षा करने के लिए तत्पर है तो बहन भी समर्पण के लिए स्वयं को सक्षम बनायें।पदानुरूप एक पुरुष से  एक स्त्री  की  अपने जीवन में दो ही अनिवार्य आवश्यकता होती है संरक्षण[सुरक्षा] और सम्मान। बिना पुरुष के ये दोनों ही आवश्यकतायें पूरी नहीं होगी या  संभव नहीं ऐसा लिखकर मैं  किसी के विचारों या स्वाभिमान को ठेस न पहुचाते हुए प्रकृति के सत्य से अवगत करने का प्रयास अवश्य करुँगी की कोई तो वजह रही होगी ईश्वर ने स्त्री और पुरुष दोनों को पृथक रूप में निर्मित किया न केवल शारीरिक अपितु मानसिक तौर पर भी। मैं यहाँ उनके विचारों से भी सहमत हूँ जो स्त्री को 'आज की नारी से' संबोधित करते है मैं मानती हूँ भारत देश में कई वीरांगनायें जन्मी है जिन्होंने पुरुषों के समान साहसिक कार्य  किये हैं किन्तु उनकी वीरता युद्ध के साथ उनके प्रेम और समर्पण की भी गाथा कहती है।और समानुसार उन्होंने स्वयं को केवल 'पत्नी' बने रहना भी स्वीकारा।  जिसमें उनकी प्रतिभा एक बेहतर  माँ,पत्नी और बहु के साथ -साथ एक कुशल रानी के रूप में भी उभर कर सामने आयी।  अतः इस रक्षाबन्धन रक्षा सूत्र का अर्थ गहराई से समझकर स्त्री भी इस रक्षा सूत्र की कीमत देने के लिए तत्पर रहे। रक्षाबंधन केवल एक पर्व ही नहीं अपितु  सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता एवं एकसूत्रता एवं हमारी  सांस्कृतिक विरासत को पुनर्सृजित करने का एक अवसर है. एक ऐसा पर्व जो घर -घर मानवीय रिश्तों में उर्जा का संचार कर दे। नारी के सम्मान और सुरक्षा पर केन्द्रित ये पर्व विलक्षण इसी लिए है क्योकि सबसे अधिक जिम्मेदारी से परिपूरित है। प्राचीन काल में जब शिष्य गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूरी कर अपने गुरु से विदा लेते थे तब आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वे रक्षा सूत्र बांधते थे जबकि आचार्य अपने विधार्थी को इस कामना के साथ रक्षा सूत्र बांधते थे की उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है उसका वह अपने भावी जीवन में समुचित ढंग से प्रयोग करेंगे अर्थात् दोनों की एक दुसरे के प्रति अपेक्षायें निहित है। वर्तमान समय मानवीय संवेदना और मानवीय उसूलों से परे  केवल साज श्रृंगार के साथ भाईयों की जेब की इतिश्री करने से ज्यादा और कुछ नहीं।


मंगलवार, 16 अगस्त 2016







हम सभी के जीवन से हर रोज गुजरती  कुछ पंक्तियाँ।  रिश्तों और संबंधों के गिरते स्तर, तनाव,  अलगाव के अहम कारणों पर प्रश्न वाचक शैली में संदेशात्मक किसी लेखक की ये पंक्तियाँ  ----मैं रूठा, तुम भी रूठ गए फिर मनाएगा कौन ? आज दरार है, कल खाई होगी फिर भरेगा कौन ? मैं चुप, तुम भी चुप इस चुप्पी को फिर तोडेगा कौन ?...

सोमवार, 8 अगस्त 2016

‘अमृता प्रीतम’ की आत्मकथा रसीदी टिकटका एक अंश, जो उनके शब्दों में उनकी समूची जीवनी का सार है।



पूरा नामअमृता प्रीतम
जन्म31 अगस्त1919
जन्म भूमिगुजराँवाला, पंजाब (पाकिस्तान)
मृत्यु31 अक्टूबर2005
मृत्यु स्थानदिल्ली
कर्म-क्षेत्रसाहित्य
मुख्य रचनाएँकाग़ज़ ते कैनवास (ज्ञानपीठ पुरस्कार), रसीदी टिकट, पिंजर आदि।
भाषापंजाबीहिन्दी
पुरस्कार-उपाधिपद्म विभूषण (2004), पद्मश्री(1969), साहित्य अकादमी पुरस्कार(1956), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982)
प्रसिद्धिकवयित्री, उपन्यासकार, लेखिका
नागरिकताभारतीय





शुरुआत अमृता इमरोज --

सामाजिक दायरों को तौड़ते हुए इस प्रेम कहानी को हर किसी के लिए स्वीकारना इतना आसान नहीं था कहा जाता है अमृता प्रीतम और इमरोज की पहली मुलाकात १९५७ में हुई इसके बाद दोनों की मुलाकातें प्यार में बदल गई। अमृता की शादी १९३५ में प्रीतम सिंह से हो चुकी थी लेकिन १९६० में दोनों ने अलग रहने का फैसला कर लिया था। अमृता की कविताओं को पढकर लगता है उन्हें सच्चे प्यार की तलाश थी। उनकी ये तलाश इमरोज कल करीब आकर पूरी हुई। दोनों का धर्म अलग था लेकिन दोनों ने कभी इस बात की परवाह नहीं की। दोनों ने कभी शादी या लिखकर कोई करार नहीं किया इसके बावजूद चालीस वर्ष [चार दशक ] तक तक एक दुसरे का साथ निभाते रहे। 'अमृता इमरोज ;ए लव स्टोरी' किताब के मुताबित एक रोज अमृता ने मुस्कुराते हुए इमरोज से कहा --'हम एक ही छत के नीचे एक साथ रहते है क्या रिश्ता है हमारा ? इस पर इमरोज ने एक तस्वीर बनाते हुए कहा --
'तु मेरी समाज मैं तेरा समाज बस इससे ज्यादा और समाज नहीं।' दोनों अपनी कभी कभार की अनकही नाराजगी को कविता कहानियों या चित्रकारी में बयां करते। २००५ में अमृता और इमरोज साहब की ४० साल की अनोखी दास्तान हमेशा के लिए खामोश हो गई। उस समय अमृता प्रीतम की आयु 86 और इमरोज की ७९ साल थी।
  परंपरा ये है कि आदमी-औरत एक ही कमरे में रहते हैं. हम पहले दिन से ही एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहते रहे. वो रात के समय लिखती थीं. जब ना कोई आवाज़ होती हो ना टेलीफ़ोन की घंटी बजती हो और ना कोई आता-जाता हो.
उस समय मैं सो रहा होता था. उनको लिखते समय चाय चाहिए होती थी. वो ख़ुद तो उठकर चाय बनाने जा नहीं सकती थीं. इसलिए मैंने रात के एक बजे उठना शुरू कर दिया. मैं चाय बनाता और चुपचाप उनके आगे रख आता. वो लिखने में इतनी खोई हुई होती थीं कि मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थीं. ये सिलसिला चालीस-पचास सालों तक चला.अमृता और इमरोज़ की लव-रिलेशनशिप तो रही है लेकिन इसमें आज़ादी बहुत है. बहुत कम लोगों को पता है कि वो अलग-अलग कमरों में रहते थे एक ही घर में और जब इसका ज़िक्र होता था तो इमरोज़ कहा करते थे कि एक-दूसरे की ख़ुशबू तो आती है. ऐसा जोड़ा मैंने बहुत कम देखा है कि एक दूसरे पर इतनी निर्भरता है लेकिन कोई दावा नहीं है.

     उमा त्रिलोक बताती हैं, ''वो ये कहती थी कि साहिर एक तरह से आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत! साहिर और अमृता का प्लैटोनिक इश्क था. इमरोज़ ने मुझे एक बात बताई कि जब उनके पास कार नहीं थी वो अक्सर उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे."
"अमृता की उंगलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं... चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो. उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया. इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं! लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता है. वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं. मैं भी उन्हें चाहता हूँ.''
    अमृता जहाँ भी जाती थीं इमरोज़ को साथ लेकर जाती थीं. यहाँ तक कि जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया तो इमरोज़ हर दिन उनके साथ संसद भवन जाते थे और बाहर बैठकर उन का इंतज़ार किया करते थे.
वो उनके साथी भी थे और उनके ड्राइवर भी. इमरोज़ कहते हैं, ''अमृता काफ़ी मशहूर थीं. उनको कई दूतावासों की ओर से अक्सर खाने पर बुलाया जाता था. मैं उनको लेकर जाता था और उन्हें वापस भी लाता था. मेरा नाम अगर कार्ड पर नहीं होता था तो मैं अंदर नहीं जाता था. मेरा डिनर मेरे साथ जाता था और मैं कार में बैठकर संगीत सुनते हुए अमृता का इंतज़ार करता था."
"धीरे-धीरे उनको पता चला गया कि इनका ब्वॉय-फ़्रेंड भी है. तब उन्होंने मेरा नाम भी कार्ड पर लिखना शुरू कर दिया. जब वो संसद भवन से बाहर निकलती थीं तो उद्घोषक को कहती थीं कि इमरोज़ को बुला दो. वो समझता था कि मैं उनका ड्राइवर हूँ. वो चिल्लाकर कहता था- इमरोज़ ड्राइवर और मैं गाड़ी लेकर पहुंच जाता था.''
 प्रेम त्रिकोण --

अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी. अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में वो लिखती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे. साहिर के जाने के बाद वो उनकी सिगरेट की बटों को दोबारा पिया करती थीं.
इस तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लगी. अमृता साहिर को ताउम्र नहीं भुला पाईं और इमरोज़ को भी इसका अंदाज़ा था. अमृता और इमरोज़ की दोस्त उमा त्रिलोक कहती हैं कि ये कोई अजीब बात नहीं थी. दोनों इस बारे में काफ़ी सहज थे.
उमा त्रिलोक बताती हैं, ''वो ये कहती थी कि साहिर एक तरह से आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत! साहिर और अमृता का प्लैटोनिक इश्क था. इमरोज़ ने मुझे एक बात बताई कि जब उनके पास कार नहीं थी वो अक्सर उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे."
साहिर अमृता से सीधे सवाल भी करते  -- इमरोज की तुम्हारी जिन्दगी में क्या जगह है ? और अमृता कहती --तुम्हारा प्यार मेरे लिए किसी पहाड़ चोटी है पर चोटी पर ज्यादा डर खड़े नहीं सकते। बैठने को समतल जमीन भी चाहिए। इमरोज मेरे लिए समतल जमीन से है। अमृता ये भी कहती तुम मेरे लिए छायादार घने वृक्ष के समान हो,जिसके नीचे बैठकर चैन सुकून पाया जा सकता है किन्तु रात नहीं गुजारी जा सकती। जब साहिर ये पूछते है --    इमरोज को पता है मैं यहाँ हूँ  ? जवाब में अमृता कहती ---'जब बरसों तक उसकी पीठ पर मैं तुम्हारा नाम लिखती रहती थी यहाँ की ख़ामोशी से वो समझ ही गया होगा कि मैं तुम्हारे साथ हूँ।
   इसी तरह के सवाल और जवाबों के साथ थोड़ी देर दोनों चुप बैठे रहते और उनके बीच की बहती प्रेम धारा और बोलती ख़ामोशी को दोनों शिद्दत से महसूस करते। दोनों ने एकदूसरे के प्रेम में उत्कृष्ट रचनाएँ रच डाली और हमारा साहित्य समृद्ध हुआ।
रसीदी टिकिट से ............
            मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उनके वर्जित मेल से यह सब रचनाएं पैदा हुईं। जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की किस्मत इसकी किस्मत है और इसे सारी उम्र अपने साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगतने हैं।

मन का सपना क्या था, इसकी व्याख्या में जाने की आवश्यकता नहीं है। यह कम्बख्त बहुत हसीन होगा, निजी जिन्दगी से लेकर कुल आलम की बेहतरी तक की बातें करता होगा, तब भी हकीकत अपनी औकात को भूलकर उससे इश्क कर बैठी और उससे जो रचनाएं पैदा हुईं, हमेशा कुछ कागजों में लावारिस भटकती रहीं…”
 वे जानती थीं कि उनके मुक्त व स्वतन्त्र व्यक्तित्व को पुरातनपंथी समाज पचा नहीं सकेगा, लेकिन फिर भी उन्होने स्वयं को बांधना स्वीकार नहीं किया। एक पूरा विद्रोही जीवन जिया और स्याही में कलम डुबोकर बदलाव की इबारत रची। शताब्दियों तक उनका जीवन दूसरों, विशेष कर स्त्रियों को आजादी की उड़ान भरने की प्रेरणा देता रहेगा।

हम प्रति क्षण दो समानान्तर जीवन जी रहे होते हैं एक, जो हमारे बाहर दुनियावी कोलाहल बनकर तैर रहा है, दूसरा जो हमारे भीतर कुलबुला रहा होता है। जब इन दोनों जीवनों के मध्य असमंजस की लहरें उफान लेने लगती हैं, तो सहन करने की एक निश्चित सीमा के उपरान्त विद्रोह का अंकुर फूटता है। इस अंकुर से फूटता है जीवन का वास्तविक अर्थ और स्वयं के अस्तित्व का कारण। अमृता प्रीतम भी जीवन के झंझावतों से जूझती रहीं। बचपन में सगाई और किशोरावस्था में विवाह के उपरान्त दो बच्चों की मां बनीं, लेकिन पारिवारिक बंधन भी उन्हें अधिक समय तक रोक नहीं सके। उन्होने निजी समस्याओं को सिरे पर रख, कालजयी साहित्य रचा। प्रेम भी किया और साहसी हो स्वीकार भी किया।

अमृता के व्यक्तित्व में जो साहस था, सामाजिक वर्जनाओं के विरुद्ध जो विद्रोही भावना थी, वह बचपन के दिनों से ही उपजने लगी थीं। जैसा वे स्वयं लिखती हैं – “सबसे पहला विद्रोह मैने नानी के राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बर्तनों से हटाए हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ तब परछत्ती से उतारे जाते थे, जब पिताजी के मुस्लिम दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज धोकर फिर वहीं रख दिए जाते थे।

उम्र के जिस पड़ाव पर दूसरी लड़कियां गुड़ियाएं सजाने अथवा घर सम्भालने के गुर सीख रही होती थीं, अमृता के मन में कई प्रश्न उबलने लगे थे। जातियता और धर्म के नाम पर बने सामाजिक खांचे उन्हें उद्वेलित करने लगे थे। ग्यारह बरस की उम्र में अमृता ने ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर दिया। उन पर धार्मिक पिता का दबाव था, समाज की अपेक्षाएं थीं, लेकिन वे इन सबसे इतर हर रात, सामाजिक किलों से आजादी के सपने देखती। ऐसे ही एक सपने के बारे में वे लिखती हैं

एक सपना था कि एक बहुत बड़ा किला है और लोग मुझे उसमें बंद कर देते हैं। बाहर पहरा होता है। भीतर कोई दरवाजा नहीं मिलता। मैं किले की दीवारो को उंगलियों से टटोलती रहती हूं, पर पत्थर की दीवारों का कोई हिस्सा भी नहीं पिघलता। सारा किला टटोल टटोल कर जब कोई दरवाजा नहीं मिलता, तो मैं सारा जोर लगाकर उड़ने की कोशिश करने लगती हूं।
         मेरी बांहों का इतना जोर लगता है कि मेरी सांस चढ़ जाती है। फिर मैं देखती हूं कि मेरे पैर धरती से ऊपर उठने लगते हैं। मैं ऊपर होती जाती हूं, और ऊपर, और फिर किले की दीवार से भी ऊपर हो जाती हूं। सामने आसमान आ जाता है। ऊपर से मैं नीचे निगाह डालती हूं। किले का पहरा देने वाले घबराए हुए हैं, गुस्से में बांहें फैलाए हुए, पर मुझ तक किसी का हाथ नहीं पहुंचता।

अमृता ने धार्मिक और जातीय बंधनों के विरोध में कई रचनाएं गढ़ीं, जिसके कारण तत्कालीन सिख समाज उनकी मुखालफत करने लगा। देश के विभाजन के उपरान्त लिखी गई एक कविता ने अमृता को प्रशंसा भी दिलाई, साथ ही कुछ समुदायों ने उन्हें प्रश्नों के घेरे में भी खड़ा कर दिया।
आज वारिस शाह से कहती हूं, अपनी कब्र में से बोलो,और इश्क की किताब का कोई नया पृष्ठ खोलो,ऐ दर्दमंदों के दोस्त! अपने पंजाब को देखो,वन लाशों से अटे पड़े हैं, चिनाव लहू से भर गया है।
अमृता ने कई सामाजिक मंचों और सम्मेलनों में खुलकर एक धर्म मुक्त समाज बनाने जैसी बातें कहीं। तथाकथित धार्मिक मठाधीशों की ओर से उनका विरोध होना स्वाभाविक था। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि भीरू समाज को ऐसे साहसी व विद्रोही स्वर कभी रास नहीं आए। उन्हें चुप करने की कवायदें जोर मारती रहीं। लेकिन क्या उन्हें चुप किया जा सकता है? नहीं, कभी नहीं।
                           अमृता ने विश्व के कई देशों और सभ्यताओं के साहित्यकारों के बीच, अपनी विद्रोही रचनाएं पढ़ी और प्रशंसा बटोरी। उन्होने दूसरे विद्रोही कवियों लेखकों को भी भरपूर सुना और समझा। विश्व का कोई भी कोना ऐसा नहीं है, जहां कोई सामाजिक भेद नहीं हो। हर हिस्से की अपनी समस्या है और ऐसे में ककनूसीनस्ल के साहित्यकार कागजों पर विद्रोह रचते रहे हैं। कलम से युद्ध लड़ते रहे। अमृता लिखती हैं – “मनुष्यों की जिस नस्ल ने हर विनाश में से गुजर सकने की अपनी शक्ति को पहचाना,अपना नाम जल मरने वाले और अपनी राख में से फिर पैदा हो उठने वाले ककनूस से जोड़ दिया।
प्रेम प्राथमिक क्रांति है। स्वतन्त्र व्यक्ति ही सच्चा प्रेम कर सकता है। साहिर से उनका प्रेम खामोशियों के इर्द गिर्द पनपता रहा। जुबां ने मशक्कत नहीं की, लेकिन मन सब कुछ जानता था। साहिर के बारे में, अमृता कुछ यूं लिखती हैं
                   “वह चुपचाप सिर्फ सिगरेट पीता रहता था, कोई आधी सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नई सिगरेट सुलगा लेता था और उसके जाने के बाद केवल सिगरेटों के बड़े बड़े टुकड़े कमरे में रह जाते थे।

कभीएक बार उसके हाथ को छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी, जो तय नहीं होती थी। उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेटों के टुकड़ों को सम्भाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक एक टुकड़े को अकेले बैठकर जलाती थी। और जब अंगुलियों के बीच पकड़ती थी, तो लगता था, जैसे उसका हाथ छू रही हूं।
                     जिससे एक मर्तबा प्रेम हो जाए, फिर जीवन भर नहीं छूटता। अतीत की स्मृतियों से वह कभी रिक्त नहीं होता। प्रेम की मृत्यु हमारी आंशिक मृत्यु है। हर बार प्रेम के मरने पर हमारा एक हिस्सा भी हमेशा के लिए मर जाता है। जब साहिर की मृत्यु हुई, तो अमृता ने लिखा – “सोच रही हूं, हवा कोई भी फासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फासला तय किया करती थी। अब इस दुनिया और उस दुनिया का फासला भी जरूर तय कर लेगी…”

अमृता प्रेम में रहीं और मुक्त भी रहीं। सच्चा प्रेम कभी बांधता नहीं है। वे प्रेम में और स्वतन्त्र होती गईं। जब उन्हें इमरोज से इश्क हुआ, तो कई बरस उनके साथ रही। जीवन की धूप छांव में दोनों एक दूसरे का हाथ थामे रहे। एक दूसरे पर कुछ थोपे बिना, सदा साथ बने रहे।

                          रसीदी टिकट का हर पन्ना बयां करता है कि कैसे अमृता ने एक स्त्री होते हुए, बन्धनों के बीच, बन्धनों का सशक्त विरोध किया। अन्याय और असमानताओं के खिलाफ लिखती बोलती रहीं।एक स्त्री, एक मां, एक प्रेमिका और एक लेखिका होने के बीच उलझतीं रही और निकलने को राह भी बनाती रहीं। उनके लिए, जीवन यथार्थ से यथार्थ तक पहुंचने का सफर रहा। यथार्थ को पाने का हासिल, आखिर कितनों का मकसद होता है और कितने उसे छू भर भी पाते हैं? अमृता जैसी साहसी लेखिका कागज पर काले अक्षरों से सुनहरा इतिहास लिख जाती हैं और हम पन्ने पलट पलट कर उनकी छाया का महज अनुमान लगा सकते हैं। एक कभी न मिटने वाली छाया। तमाम उम्र वे कंकड़ों पर चलीं, लेकिन लौटी नहीं। अपने सपनों को जिया। पूरी बांहों का जोर लगा कर, सचमुच किले की नहीं पिघलने वाली दीवारों से बहुत ऊपर उठ गईं।  धरती से ऊपर उठ, आसमां में उड़ान भरने लगी। किले पर पहरा देने वाले उन्हें यूं उड़ता देख घबराए, गुस्से में बांहें फैलाए रहे, लेकिन फिर कोई हाथ उन तक पहुंच नहीं सकता था।
संक्षेप ----
जीवन परिचय के तौर पर ... [निम्नलिखित जानकारी भारत खोज से अवतरित है - [http://bharatdiscovery.org/india]
          अमृता प्रीतम (अंग्रेज़ी: Amrita Pritam, जन्म: 31 अगस्त, 1919 पंजाब (पाकिस्तान) मृत्यु: 31 अक्टूबर, 2005 दिल्ली) प्रसिद्ध कवयित्री, उपन्यासकार और निबंधकार थीं जिन्हें 20वीं सदी की पंजाबी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री माना जाता है। इनकी लोकप्रियता सीमा पार पाकिस्तान में भी बराबर है। इन्होंने पंजाबी जगत में छ: दशकों तक राज किया। अमृता प्रीतम ने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्म विभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।
   सम्मान और पुरस्कार

अमृता प्रीतम
अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया, जिनमें प्रमुख हैं 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, 1988 में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार; (अन्तर्राष्ट्रीय) और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार। वे पहली महिला थीं जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थीं जिन्हें 1969 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया।[1]

साहित्य अकादमी पुरस्कार (1956)
पद्मश्री (1969)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (दिल्ली युनिवर्सिटी- 1973)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (जबलपुर युनिवर्सिटी- 1973)
बल्गारिया वैरोव पुरस्कार (बुल्गारिया – 1988)
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (विश्व भारती शांतिनिकेतन- 1987)
फ़्रांस सरकार द्वारा सम्मान (1987)
पद्म विभूषण (2004)


गुरुवार, 4 अगस्त 2016

                                                  




                                                        आलेख

प्रकाशस्तंभ – ‘समावर्तन’ मासिक
[ साहित्य,समाज और संस्कृति विमर्श केन्द्रित पत्रिका ]
                                 –शोभा जैन
सर्वविधित है –‘पत्रिकाएँ हमारे जीवन से जुड़ी सामाजिक,सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विधाओं के विकास एवं संवर्धन में अहम भूमिका निभाती रही है ।’ अपनी भाषा,साहित्य एवं संस्कृति के अध्ययन के क्षेत्र में अपना योगदान देना किसी तपस्या से कम नहीं । क्योकि इनका प्रभाव सीधे तौर पर समाज पर पड़ता है ।शिक्षित समाज विकसित होता है संवर्धित होता है विचारशील,चिंतनशील होता है । पत्रिकाएँ मानव समाज की दिशा निर्देशिका मानी जाती है । समाज के भीतर घटती घटनाओं से लेकर परिवेश की समझ उत्पन्न करने का कार्य पत्रिका का प्रथम व महत्वपूर्ण कर्तव्य है । सामाजिक चिन्तन की समझ पैदा करने के साथ विचारकीय सामर्थ्य पत्रिकाओं के माध्यम से ही उत्पन्न होता है । निः संदेह यह कहा जा सकता है की पत्रिकाओं ने युगों से अपने दायित्व का निर्वहन किया है
         ऐसे ही अपने दायित्व- निर्वहन की समस्त कसौटियों को पूर्ण करते हुए समय –समय पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती ‘समाज’,’संस्कृति’ एवं ‘साहित्यिक’ विमर्श  केन्द्रित राष्ट्रीय स्तर की हिंदी पत्रिका ‘समावर्तन’ अनेक पड़ावों से गुजरकर आज राष्ट्रीयता की मिशन यात्रा में विगत नौ वर्षों  से अनवरत प्रकाशन कर समाज, लोकसंस्कृति एवं साहित्य के संवर्धन में अपना बहुमूल्य योगदान देते हुए पत्रिकाओं के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बना चुकी है ।  ‘समावर्तन’ जिसे अब परिचय की आवश्यकता नहीं । पाश्चात्य और आधुनिकता के मध्य जहाँ हमारी लोकसंस्कृति धूमिल होती नजर आ रही है वहीँ ‘समावर्तन’ ग्रामीण, क्षेत्रीय लोकजीवन को अपने विविध अंकों में महत्वपूर्ण स्थान देकर सामाजिक,संस्कृति और परम्पराओं की पहचान को सम्रद्ध बनाये रखने में अपना बहुमूल्य योगदान दे रही है । लोकसाहित्य एवं लोकसंस्कृति पर केन्द्रित राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका ‘समावर्तन’ की ये पहल लोक जीवन के उत्सव, पर्व-त्यौहारों,और उनकी सभी कलाओं को जीवंत करती है जो लोक आस्था के बोधक है । निः संदेह ‘समावर्तन’ का ये उत्कृष्ट अवदान लोकजीवन के मानसिक भाव,परंपरा,एवं मांगलिकता के प्रति प्रेम भाव एवं जीवन के उल्लास के साक्षात् दर्शन कराता है ।
          लोकसंस्कृति की भावनाओं से ओतप्रोत,सामाजिक इच्छाओं विचारों उपलब्धियों को समझने उन्हें व्यक्त करने की पहल -‘समावर्तन’ मासिक की यह यात्रा कब और कैसे प्रारंभ हुई इस पर एक द्रष्टि ----
    ‘एक छोटे से किन्तु एतिहासिक उज्जैन नाम के कस्बे से ‘समावर्तन’  नाम की एक साहित्यिक –सांस्कृतिक –सामाजिक सरोकार संवाहक,निराली –अनोखी –अद्वितीय और अपने किस्म की एक मात्र मासिक पत्रिका का अभ्युदय  हुआ । और उसने पंख खोले –पहली बार भारत की राजधानी नई दिल्ली के लोदी रोड स्थित इंडिया इन्टरनेशनल अनेक्स में जब इसका विधिवत लोकार्पण किया भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कविवर कुँवरनारायण ने १५ मार्च २००८  की शाम को ५ बजे   पत्रिका के संस्थापक, संरक्षक—‘दूब से नरम, अस्तित्व में द्रढ़ निश्चय एक ठोस चट्टानी जुनूनी उत्सवी पुरुष वरिष्ठ साहित्यकार रंगकर्मी एवं राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित प्रो.डॉ.प्रभात कुमार भट्टाचार्यजिनकी टीम आज भी पूरी निष्ठा और समर्पण से ‘समावर्तन’ के लिए अवैतनिक कार्यरत है ।  ‘समावर्तन’ की टीम में ऐसे स्वनामधन्य साहित्य सम्मिलित है जिन पर किसी भी पत्रिका को गर्व होगा । किसी भी पत्रिका की सफलता के पीछे उसकी गहन तपस्या छिपी होती है इस तपस्या में सारथी बने –
सह संस्थापक –सम्पादन परामर्शी –अभिलाष भट्टाचार्य,[मुम्बई] 
सह संस्थापक -स्वामी प्रकाशन एवं मुद्रक – डॉ. अजय भट्टाचार्य,[सूरत],
अध्यक्ष सम्पादक मंडल- प्रोफेसर रमेश दवे [भोपाल]
निदेशक प्रकाशक,डॉ.रमेश सोनी[इंदौर] 
प्रधान सम्पादक-मुकेश वर्मा[भोपाल]
सम्पादक- डॉ.निरंजन क्षोत्रिय[गुना]
कार्यकारी सम्पादक, श्री राम दवे [उज्जैन]
अक्षय आमेरिया –कला सम्पादक,[उज्जैन]
 प्रबंध सम्पादक-सदाशिव कौतुक,[इंदौर]
विशेष सम्पादक, वक्रोक्ति –सूर्यकान्त नागर, [इंदौर]
सह सम्पादक, सरोकार -डॉ.निवेदिता वर्मा [उज्जैन]
विशेष परामर्शी,लोकरंग  -शिव चोरासिया,[उज्जैन]
वाणी दवे एवं हरदीप दायले-सहयोगी सम्पादक[उज्जैन]
एक एतिहासिक गरिमा धारण किये पत्रिका ‘समावर्तन’ के जुलाई २०१६ में अनवरत नो वर्षों की सफल यात्रा के अब तक  सौ वाँ अंक निकल चुके है ।समावर्तन पत्रिका  की ‘रुपरेखा’ जो इसके  आकर्षण का  केंद्र होने की मुख्य वजहों में शामिल है इसके तीन स्थाई स्तम्भ ---
‘एकाग्र’ –किसी एक महत्वपूर्ण साहित्यकार पर केन्द्रित अंक
‘रंगशीर्ष’ –संगीत,नाट्य,नृत्य,पेंटिंग,में से किसी एक विभूति पर केन्द्रित अंक
‘सरोकार’- किसी एक विद्वान या पत्रकार या समाजसेवी या वैज्ञानिक या उद्योगपति जैसे किसी विभूति पर केन्द्रित इनमें से दो स्तम्भ हर अंक में होते है ।
   इस प्रकार इसकी रुपरेखा से यह स्पष्ट होता है की ‘समावर्तन’ अपने किस्म की एक मात्र धरोहरधर्मी पत्रिका हमेशा बनी रहेगी ।समावर्तन में चार चौमासे छपतें है  अर्थात् हर अंक में एक चौमासा होता है ---
व्यंग्य केन्द्रित चौमासा  - वक्रोक्ति
चिन्तन केन्द्रित चौमासा –मनोराग
कविता केन्द्रित चौमासा –कव्यराग
कथा केन्द्रित चौमासा –कथाराग एवं लोकसाहित्य –
संस्कृति पर केन्द्रित एक मासिक स्तम्भ ‘लोकरंग’ । ए4 आकार का लगभग 100 प्रष्ठों का प्रत्येक  अंक ‘समावर्तन’ मासिक अबाध गति से निरंतर प्रकाशित होता रहा पूरे नौ वर्षों से अप्रेल २००८ से जुलाई २०१६ तक ।जिस तरह पत्रिकाओं को प्रतियोगिता की मार सहनी पड़ती है ‘समावर्तन’ भी  परोक्ष रूप से न चाहते हुए भी इसका हिस्सा रही । विज्ञापनों के अभाव ने ‘समावर्तन’ को विचलित अवश्य किया किन्तु समावर्तन ने कभी अवकाश नहीं लिया । ..बल्कि वो अपने स्वरुप में सदैव और निखरकर सामने आयी । ‘समावर्तन’ का काया कल्प इतना खूबसूरत की पन्नों को पलटने में पाठक को स्वयं संवेदन और शालीन होना पड़े । प्रत्येक प्रष्ठ सृजन का पर्याय पूरी पत्रिका बहुरंगी और चिकने मोटे कागज पर उकेरी गई जिसके फलस्वरूप पाठक हर अंक को सहेजने पर विवश रहे ।  हिंदी साहित्य की शायद ही एसी कोई पत्रिका हो जिसकी आंतरिक खूबसूरती प्रष्ठों पर रंग रोगन का चयन,शब्दों की बनावट और कसावट इतनी आकर्षक की बतौर पाठक पत्रिका का कोई भी  प्रष्ठ उसके पाठन से अनछुआ नहीं रह सकता । ज्ञान का ऐसा खजाना जिसमें साहित्य, रंगकर्म, सामाजिक क्षेत्र के दिग्गजों की जीवन यात्रा,उनके  अनुभवों को ‘साक्षात्कार’ के माध्यम से अथवा उन पर केन्द्रित अंकों को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने की शैली, पाठकों की समझ को विकसित करने की इतनी सृजनात्मक पहल अन्यत्र किसी पत्रिका  में नहीं दिखाई पड़ती ।  निः संदेह ‘समावर्तन’ हिंदी साहित्य जगत की एकमात्र एसी पत्रिका है जो साहित्यिक होने के साथ, लोक साहित्य, लोक संस्कृति एवं सामाजिक सरोकारों को भी उतनी ही उत्कृष्टता से अपने भीतर पिरोये है ।और  किसी भी पत्रिका का सबसे महत्वपूर्ण अलंकार उसकी उत्कृष्ट भाषा शैली भी होती है ‘समावर्तन’ में कार्यरत समस्त ‘साहित्य धन्य’ विशेषतः वर्षों से कार्यरत सम्पादक मंडल इसे इस अलंकार से विभूषित कर परिपूर्ण बनाते है  एक विशिष्ठ धरोहरधर्मी मासिक पत्रिका के लिए सामग्री संचयन इसकी विशिष्टता को बनाए रखने के लिए एक कष्टसाध्य कार्य है जिसे साधने में सम्पादक मंडल की निष्ठा और समर्पण समावर्तन के काया कल्प में स्पष्ट परिलक्षित होता है ।   
           यह भी अत्यंत गौरव का विषय है की ‘समावर्तन’ श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन की श्रेणी में ‘राष्ट्रीय ख्याति के बहुचर्चित अठारहवे अम्बिकाप्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार से  पुरस्कृत हो अपना विशिष्ट स्थान बना चुकी है  इस हेतु समावर्तन पत्रिका के प्रधान सम्पादक मुकेश वर्मा जी, भोपाल को ‘समावर्तन’ पत्रिका के लिए दिव्य प्रशस्ति पत्र से नवाज़ा भी गया । समावर्तन का लक्ष्य  साहित्य-संस्कृति को महानगरों में सिमटने के बजाय छोटे शहरों तक विकेन्द्रित किया जाना है ताकि देश के दूर-दराज में फैली प्रतिभाओं को उचित मंच मिल सके। उज्जैन से प्रकाशित इस मासिक पत्रिका ने इस अपेक्षा को पूरा किया है और अब यह हिन्दी की राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। बगैर किसी विज्ञापन के एक मासिक पत्रिका को अनवरत जारी रखना एक चुनौति है। गत नौ वर्षों  की यात्रा में समावर्तन’ ने जहाँ देश के शीर्षस्थ साहित्यकारों-रंगकर्मियों पर एकाग्र अंक प्रकाशित किये हैं वहीं नई एवं युवतम प्रतिभाओं को भी मंच प्रदान किया है। अब तक इस पत्रिका में अशोक वाजपेयी, पणिक्कर, त्रिलोचन, शरद जोशी, गिरिराज किशोर, राजेन्द्र यादव, बादल सरकार, अमरकान्त, रज़ा, सुनीता जैन, रमेशचन्द्र शाह, कुमार गंधर्व, मन्नू भण्डारी, कृष्ण बलदेव वैद, ब.व. कारंत, हकु शाह, राजी सेठ, धनंजय वर्मा, सिद्धेश्वर सेन, अमृतलाल वेगड़, गोविन्द मिश्र, दिनेश ठाकुर, विजय तेन्दुलकर, चित्रा मुद्गल एवं हबीब तनवीर एवं कृष्णा अग्निहोत्री, पर एकाग्र अंक प्रकाशित किये हैं। इसी के साथ कैलाश सत्यार्थी पर सरोकार एवं अंजन श्रीवास्तव जैसे व्यक्तित्व पर रंगशीर्ष अंक प्रकाशित किये है । समावर्तन को देश के शीर्षस्थ साहित्यकारों एवं पाठकों का निरंतर रचनात्मक सहयोग मिल रहा है। पत्रिका में साहित्य-संस्कृति पर महत्वपूर्ण सामग्री के अतिरिक्त सामाजिक सरोकारों को भी संजोया गया है। बच्चों और किशोरों के लिए ‘समावर्तन’ का नया स्तम्भ ‘बाल सखा’ कहीं न कहीं बाल साहित्य प्रेरक है । पर्यावरण, जल संग्रहण, सिनेमा, मीडिया, आतंकवाद, सूचना तकनीक जैसे विषयों पर भी स्तरीय सामग्री ने पत्रिका को संग्रहणीय बनाया है। निष्कर्षतः भारतीय संस्कृति सामाजिक सरोकार एवं साहित्यिक क्षेत्र को गौरवान्वित करने तथा भाषा के परिनिष्ठित रूप निर्धारण में ‘समावर्तन’ मासिक पत्रिका  का योगदान वन्दनीय है । ‘समावर्तन’ इसी तरह अपने आगामी अंकों की सफल यात्रा के साथ चिरायु हो ।
सन्दर्भ  – १ -मेरे बाबा –डॉ.निवेदिता वर्मा    २ –समावर्तन अंक २००९

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