लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

हमारा गणतंत्र-- एक विमर्श
लेखिका -शोभा जैन    
 

             मित्रों आज हम सब गणतंत्र की 67 वीं वर्षगांठ सहर्ष, स्वतंत्रतः मना रहे हैं ये हम सबका सौभाग्य हैं की हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा हैं आज देश को संविधान से बहुत कुछ मिला एक तरह से संविधान ने गणतंत्र शब्द के अर्थ को सजीवता दी- गणतंत्र मतलब  'लोगों का कल्याण करने वाली शासन पद्धति'  जिसके तहत आज भारत में भुखमरी, ग़रीबी,निरक्षरता, जैसे गंभीर मसलों को काफ़ी हद तक अपने नियंत्रण में कर उसे सुलझाने के सफल प्रयास किये हैं और हो रहे हैं। बस आवश्यकता हैं सामाजिक और संवैधानिक अपेक्षाओं को अपने-अपने स्तर पर देखने की क्योकि अक्सर सामाजिक विकृतियाँ को संविधान की कमी बताकर नजर अंदाज कर दिया जाता हैं सरकारी विभागों में शीर्ष पदों पर विराजमान कानून के निबाह की देख रेख करने वाले उन तमाम महानुभवों के अतिरिक्त हम व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से बातों में सुधार कर आत्मसात कर ले तो शायद सभी संविधान के प्रति कृतज्ञता महसूस करेंगे कहने का तात्पर्य संवैधानिक अधिकार और क़ानून, और सामाजिक उत्तरदायित्व को पृथक -पृथक देखे भारत जैसे बेहद विविधता भरे देश में संविधान अक्षुण्ण रहा समय के साथ अपना महत्व बरक़रार रखते हुए इसमें संशोधन हुए ये भी एक उपलब्धि हैं..अपने आसपास देख लीजिये कई पडोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल आदि देशों में संविधान कई बार बने और उन्हें रद्दी की टोकरी में डाला जाता रहा। भारत में तमाम राजनैतिक मुद्दों पर तीखे मतभेद होने के बावजूद संविधान के प्रति अनादर का भाव किसी में नहीं और इस विषय में कोई मतभेद नहीं। बात आधी दुनिया की करें यानी महिलाओं की हो, तो संविधान ने उन्हें भरपूर अधिकार दिए खुद मुख़्तार होने के लिए उन्हें मर्दों के साथ ही मताधिकार दिया जबकि अमेरिका और ब्रिटेन में औरतों को मर्दों के बाद यह अधिकार मिला..पंचायतों में तीस प्रतिशत आरक्षण महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। यह नारी सशक्तिकरण के रस्ते में मील का पत्थर साबित हो रहा हैं इसके बावजूद भी अगर महिलाओं की दशा में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ ,तो कमी संविधान की नहीं सामाजिक हैं समाज की मानसिकता की हैं।

    इसके साथ ही ये भी आवश्यक हैं की हम सब असहमति को असहिष्णुता का पर्याय न बनने दें,क्योकि असहमति दूर करने का सभ्य तरीका संवाद हैं न की विरोध और नाराजगी....अतः अपने परिवार के साथ समाज के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को भी अपने देनिक जीवन का अहम हिस्सा बनाये सिर्फ संविधान से अपेक्षाये रखना अपनी जिम्मेदारी से हाथ झटकने जेसा हैं याद रहे नियमों की आवश्यकता तब पड़ती हैं जब उल्लघन में सीमाये न रहे .कानून हमारी सुरक्षा और सुविधा के लिये बनाये गए हैं, नियमों का निर्वहन करने की शर्त के रूप में नहीं, न ही कानून नियम तोड़ने के बदले सजा पाने का एक विकल्प के रूप में, कानून सिर्फ उन लोगो के लिये हैं जो सामाजिक मूल्यों, अनुशासन और नियमों को ताक पर रखकर जीवन जीते हैं बेहद आवश्यक हैं अपने अतीत के प्रति सम्मान वर्तमान के प्रति संवेदनशील और भविष्य के प्रति दूरदर्शिता के साथ जागरूक होकर जीवन जिए....हमारे संविधान ने हमें अधिकार दिए हैं उनका उपयोग करने की स्वतंत्रता दी हैं अधिकारों की जानकरी होने के साथ -साथ उनका सही इस्तेमाल करना सामाजिक दायित्व और संविधान के प्रति आदर भावना व्यक्त करता हैं

जय हिन्द जय भारत। 

रविवार, 24 जनवरी 2016

लघु कहानी
लेखिका--- शोभा
'किशोर मन का प्रेम'


                  बात उन दिनों की हैं जब शुभांगी कक्षा ग्यारहवीं मैं पढ़ती थी । आयु ‘किशोरावस्था’ जिसे मनुष्य के जीवन का बसन्तकाल माना जाता हैं किशोरावस्था याने तीव्र शारीरिक भावनात्मक और व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तनों का काल ।
शुभांगी भी अपने जीवन के उसी समय में जी रही थी जिसमे मानसिक शक्तियों का न सिर्फ़ विकास होता हैं बल्कि मन के भावों के विकास के साथ -साथ कल्पना का खूबसूरती के साथ जन्म होता हैं । शुभांगी भी अपने जीवन की उसी उम्र में जी रही थी जिसमे उसके मनोवेग में ऊँचे- ऊँचे आदर्श को अपनाने की सोच जन्म ले रही थी और भविष्य की रुपरेखा का एक सांचा भीतर ही भीतर तैयार हो रहा था। शुभांगी बचपन से ही प्रतिभाशाली लड़की थी उसका लिखने का शोक कब लेखन और साहित्य का रूप लेने लगा उसे स्वयं पता नहीं चला छोटी -छोटी कवितायेँ और निबंध लिखकर उन्ही में महानता हासिल करने की चेष्टा उसे इस और निरंतर प्रेरित करने लगी शुभांगी की किशोरावस्था उसे अब असाधारण काम करने के लिये प्रेरित करती उसकी कोशिश रहती की वो दूसरों का ध्यान विशेषकर विद्यालय में सबका ध्यान अपनी और आकर्षित कर सके चूकी ये उम्र मानसिक के साथ- साथ शारीरिक परिपक्वता की भी अवस्था होती हैं किशोर मन के भावोद्वेग बहुत तीव्र होते हैं। वह अपने प्रेम अथवा श्रद्धा की वस्तु के लिए सभी कुछ त्याग करने को तैयार हो जाता है। शुभांगी भी इस परिपक्वता के सहज परिणाम स्वरुप अपनी इस उम्र में उसी जीवन को जीने लगती हैं जेसा वो सोचती हैं । शुभांगी के जीवन का परिवर्तनकाल शुरू होता हैं जब उसी की कक्षा में एक नए शिक्षक ‘सर हुसैन’ का प्रवेश होता हैं जिनके प्रति जन्मे भावोद्वेग को शुभांगी रोक नहीं पाती ये महज़ एक इत्तफ़ाक ही था की वो शिक्षक भी साहित्य से बहुत गहराई से जुड़े थे एक शिक्षक होने के साथ- साथ वह एक प्रतिष्ठित लेखक भी थे और विद्यार्थियों के लिये पूर्णतः समर्पित एक समाजसेवी भी शायद इसलिए हजारों विद्यार्थी उन्हें अपना आदर्श भी मानते थे और गुरु भी । और उनकी इन्ही सब खूबियों ने शुभांगी का ध्यान पवन वेग की तरह निरंतर उनकी और उसे आकर्षित किया उसे अपनी तरह की रुचियाँ और पसंद उस शिक्षक में प्रतीत होने लगी बल्कि इस आवेग में उस शिक्षक की शारीरिक अक्षमता और अक्सर अस्वस्थ रहने की कमी भी शुभांगी के असहज प्रेम या किशोर मन के उस आकर्षण में आड़े नहीं आई । एक व्हील चेयर से चलने वाला ऊँचा पूरा गौरे रंग का 48 वर्षीय शिक्षक जो विकलांगता के साथ अनेक प्रकार की दूसरी शारीरिक समस्याओं से जूझ रहा था फिर भी उनके लेखन और साहित्य में जीवन के प्रति सकारात्मकता का सन्देश, गलत का प्रत्यक्ष विरोध और अपने अध्यापन कार्य में पूर्ण समर्पण शुभांगी को उनकी तरफ खिचता चला गया उनके विचारों और समझ की गहराई से शुभांगी को यह महसूस होने लगा जेसे वो शिक्षक सिर्फ उसी के लिये बने हैं वो जाने अनजाने उन पर अपना अधिकार जताने लगी ये भी इत्तफ़ाक ही था की शालेय साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रभारी भी उन्हें ही बनाया गया चूकि शुभांगी इनमे सक्रीय होकर हिस्सा लेती थी हर प्रतियोगिता में उसकी सहभागिता सर्वोपरि थी जैसे वादविवाद प्रतियोगिता, निबंध लेखन,कविता भाषण इन सभी में वो हिस्सा लेती और विद्यालय का नाम रोशन करती लेकिन अब हिस्सा लेने के कुछ और कारण भी बन गए थे । शुभांगी का उनसे संपर्क न सिर्फ कक्षा में अध्ययन के दौरान होता बल्कि उसके बाद साहित्यिक गतिविधियों के सिलसिले में भी अब वो अक्सर उनके घर आया जाया करती उनका व्यक्तित्व भी निः संदेह बेहद प्रभावशाली था उनके पढ़ाने का तरीका समझाने का तरीका और कालखण्ड के दौरान विधार्थियों से उनके द्वारा की जाने वाली बातें,सवाल और उनके जवाब शुभांगी को बेहद आकर्षित करने लगे । उसे महसूस होता वो दुनियाँ के सबसे बुद्धिमान और कर्मशील,कर्मठ शिक्षक हैं उनकी हर बात उन्हें खास महसूस होती चूकि वो शिक्षक साहित्य से भी जुड़े हुए थे उनके आलेख आये दिन अखबारों में छपते थे शुभांगी भी साहित्य के प्रति रुझान रखती थी अब वो उन शिक्षक से बात करने के बहाने ढूंढने लगी विद्यालय में जिस भी कार्य का प्रभारी उन्हें बनाया जाता वो उसमे जरूर हिस्सा लेती इतना ही नहीं बल्कि अब वो उन पर कवितायेँ भी लिखने लगी थी । शिक्षक के व्यक्तित्व से उनके सहकर्मी भी प्रेरित और प्रभावित थे ।अपनी अस्वस्थता के दिनों में भी कभी न अवकाश लेने वाले वो विलक्षण शिक्षक बेहद कम समय में अधिकतर विधार्थियों के पसंदीदा शिक्षक बन गए थे इधर शुभांगी उनसे न सिर्फ प्रभावित थी बल्कि उनके प्रति आकर्षित होती चली गयी उसे स्वयं बोध नहीं था उसकी कल्पना किस दिशा में जा रही हैं बस वो इतना जानती थी उसे वो शिक्षक अत्यंत प्रिय हैं अब वो सिर्फ उन्ही के साथ समय व्यतीत करना चाहती थी इस कारण पढ़ाई से कही अधिक वो साहित्य की और अपना रुझान बढ़ाने लगी और इसी सिलसिले में उसे सर हुसैन के घर आने जाने का अक्सर अवसर मिल जाता । वो अपनी हर कविता या कहानी को सबस पहले उन्हें ही पढ़ाती चुकी वो विधालय की बहुत होनहार विद्यार्थी थी कई बार साहित्यिक क्षेत्र में अपने विधयालय का नाम राज्य स्तर तक रोशन कर चुकी थी पढ़ने में भी बहुत बुद्धिमान थी और उसकी इसी प्रतिभा को निखारने के लिए सर हुसैन ने भी शुभांगी का मार्गदर्शन किया ।समय -असमय उससे साहित्यिक विषयों पर चर्चा कर उसका ज्ञान बढ़ाते साथ ही उसकी कविताओं को स्थानीय अखबार में प्रकाशित भी करना शुरू कर दिया शुभांगी अपनी कविताओं को अख़बारों के पन्ने पर देख बेहद खुश हो गयी जेसे उसकी महान कल्पना साकार हो रही हो शिक्षक के इस प्रयास और मार्गदर्शन को वो बेहद व्यक्तिगत तौर पर महसूस करने लगी शुभांगी अब उनके घर के सदस्य जैसा हो गयी थी उस शिक्षक का घर उसका अपना घर हो गया था । उनकी पत्नी और बच्चो के साथ भी वो पूरी तरह से घुल मिल गयी थी अब उसे पूछकर उनके घर आने की आवश्यकता नहीं होती थी चुकी सर हुसैन के लिये कुछ भी नया नहीं था उनके घर अक्सर विधार्थियों का इसी तरह आना -जाना रहता था उनका घर भी एक विधायलय ही था और जिस तरह से वो शुभांगी का मार्गदर्शन कर रहे थे वेसे कई सेकड़ों विद्यार्थी उनके सानिध्य में आगे बढ़ अपना मार्ग प्रशस्त कर रहे थे ।लेकिन शुभांगी की मनोदशा किसी और दिशा में ही जा रही थी शुभांगी जो लेख लिखती उन्हें पढ़ाती जो परोक्ष रूप से उन्ही केंद्रित होते ।अब वो जीवन से जुड़े सवाल और जिंदगी जैसे विषयों पर वो कवितायेँ लिखकर उनके प्रतिउत्तर का इन्तजार करती इसी तरह वो ग्यारहवीं से बारहवीं में आ गयी इन दो वर्षो में उन शिक्षक का प्रभाव शुभांगी के मन में इस तरह जगह बना चूका था की वो प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी उस शिक्षक के प्रति जो आकर्षण था वो प्रेम में परिवर्तित हो चूका था लेकिन उम्र और ओहदे के डर से शुभांगी ने कभी अपने शिक्षक को ये बात जाहिर नहीं होने दी क्योकि उसे डर था की वो कहीं उससे नाराज न हो जाय या फिर उसे गलत लड़की न समझने लगे या फिर परिवार वालों को पता न चल जाय इसलिए उसने अपने इस एहसास को अपने तक ही रखा लेकिन उसकी कक्षा के कुछ मित्रों को उसके इस किशोरी मन में जन्मे प्रेम की महक का अंदाजा था उसके हावभाव और उस शिक्षक के विषय में कुछ भी गलत न सुन पाना पुरे दिन सिर्फ उन्ही के बारे में सोचना ही अब उसका काम रह गया था जिसे उसके सहपाठी मित्र समझने लगे थे । सर हुसैन थोड़े अस्वस्थ तो रहते ही थे एक बार कई दिनों तक उनका विद्यालय आना नहीं हुआ शुभांगी उदास रहने लगी उसकी सेहत और पढ़ाई दोनों पर उस शिक्षक की कमी झलकने लगी दो वर्षों में उसका किशोर मन पूरी तरह से उस शिक्षक के प्रति अपने प्रेम में परिपक्व हो चूका था जिसकी वजह से इतने लम्बे समय का उनका अवकाश उसके लिये असहनीय बन गया था वो न सिर्फ चिढ- चिढ़ी हो गयी बल्कि अब अपनी पढाई पर भी ध्यान नहीं देती चुपचाप एक कोने में बैठी रहती उसकी समस्या एक एसी समस्या थी जिसे वो किसी के साथ बाट भी नहीं सकती थी तबी एक दिन वो उस शिक्षक के घर जाती हैं तब उसे पता चलता हैं की उस शिक्षक की दोनों किडनियां ख़राब हो चुकी हैं वो कोमा में मुंबई में भर्ती हैं शुभांगी जेसे ही ये सुनती हैं उसे गहरा आघात पहुचता हैं एक तरह से वो सदमे में आ जाती हैं मन ही मन वो ये निश्चय भी कर लेती हैं की अगर सर को कुछ हो गया तो मैं भी जीवित नहीं रहूंगी । उसके परिवार के सदस्य उसकी इस मनोदशा से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे उन्हें लगता की १२ की पढाई हैं शायद बोर्ड परीक्षा हैं इस वजह से परेशान होगी वो उसे एक आम बात समझकर छोड़ देते हैं लेकिन एक माह बाद अचानक शुभांगी के घर वही अखबार आता हैं जिसमे उसकी कवितायेँ छपती थी जिसकी शुरुआत उसी शिक्षक ने की थी उसी अखबार के प्रथम प्रष्ठ पर लिखा होता हैं हुसैन नहीं रहे .......’लम्बी बीमारी से जूझ रहे सर हुसैन का निधन’ । शुभांगी जेसे ही ये खबर पढ़ती हैं स्तब्ध रह जाती हैं उसके जीवन का ये वो गहरा दुःख जिसे वो किसी के सामने व्यक्त नहीं कर सकती थी न वो स्वयं को संभाल सकती न उसे कोई संभाल सकता इसलिए वो अपने आप को एक कमरे में बंद कर लेती हैं और आंसुओं से भरी लबालब आँखों से अपने हाथ की नस काट आत्म हत्या कर अपने किशोर मन के अपरिपक्व प्रेम के साथ हमेशा- हमेशा के लिये अपने जीवन के किशोर को विराम देना चाहती थी की तभी दरवाजे पर खट-खट होती हैं और उसकी क्लास के एक सहपाठी की आवाज आती हैं .शुभांगी ....चार दिन पहले यह चिठ्ठी मुझे सर हुसैन ने तुम्हे देने को कहा था ..शुभांगी ने चिठ्ठी पढ़ी जिसमें उन्होंने लिखा था --- ‘’शुभांगी तुम मुझे शुरू से प्रिय हो,मेरी कोई छोटी बहन नहीं थी,मैं तुम्हे ही अपनी बहन के रूप में देखता था ...मेरी हालत अब एसी नहीं हैं की मैं ज्यादा दिन जी सकूं मेरी प्रार्थना हैं की मेरे बाद भी मेरे घर आती रहना और अपने इस भैया को याद करना .....शुभांगी का मारे दुःख के बुरा हाल था आँखों से पछतावे और प्रेम की धाराए बह रही थी ।

बुधवार, 20 जनवरी 2016

समावर्तन मासिक पत्रिका के जनवरी 2016 के अंक में प्रकाशित  मेरी लघु कहानी-- 'किशोर मन का प्रेम'








राष्ट्रीय पत्रिका 'समावर्तन' जनवरी 2016 के अंक में प्रकाशित मेरी लघु कहानी 'किशोर मन का प्रेम' 'http://www.samavartan.com/pdf.php?pdf=jan2016 (page 35-36) -पढने के लिये क्लिक करें पत्रिका के प्रष्ठ ३५, ३६ पर उपलब्ध हैं 

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

                                       परिणाम और परीक्षण

जिंदगी में कई बार कुछ फैसले परिस्थितियोवश कठोर और अपनों का दिल दुखाने वाले लेने पड़ते हैं लेकिन वे अक्सर जिंदगी भर का सुकून दे जाते हैं शायद उन्हें लेते वक़्त कई बार सिर्फ असहमति, अस्वीकृति और आक्रोश ही प्राप्त होता हैं जो होना जायस भी हैं लेकिन उन निर्णयों के परिणाम इतने शानदार हो की वो सारी कसक दूर कर दे परन्तु परिणाम तक इंतजार करना ही रिश्तों के धैर्य और विश्वास का वास्तविक परिक्षण होता हैं।
शोभा 


-                                                                    आत्मस्वीकृति


                    


जब किसी सही बात को स्वीकारना मुश्किल लगे या आत्मा उसे सही स्वीकारे लेकिन मन उस पर हावी हो या ये जानते हुए भी की ये सही हैं फिर भी उसका समर्थन न दे पाने के स्थिति हो कारण कोई भावनात्मक क्षति या आपके सिधान्तों के विपरीत उस बात का होना भी हो सकता हैं जो आपको उसे निष्पक्ष होकर समझने में विफल कर रहा होता हैं तो फिर उसमे सिर्फ अपना या अपने किसी सबसे प्रिय अजीज का फायदा देखकर उसको उसका समर्थन देने का प्रयास ही उस कार्य का अंतिम विकल्प होगा क्योकि कुछ चीजो को अपनाया नहीं जा सकता लेकिन परिस्थितयो वश उन्हें छोड़ना भी कभी -कभी असम्भव होता हैं                                                                                                                                    
शोभा जैन  




1-      जीवन प्रबंधन- समस्याऍ,समझोते और समाधान - पुरुष विमर्श के सन्दर्भ में     
                                                 
                                                         उदासीनता में पलता प्रेम
               
     वर्तमान समय में प्रेम और उदासीनता का घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो रहा हैं दिन प्रतिदिन रिश्तों को गिरता स्तर और उन्हें निभाने से पहले समझने की द्रष्टि निरंतर फीकी पड़ती जा रही हैं आखिर अचानक  से रिश्तों के प्रति हमारा उत्साह इतना कम क्यों होता जा रहा हैं क्या बाजारीकरण के दौर में रिश्तों से भी महत्वपूर्ण किसी चीज की रचना हो गयी हैं क्या जो इनके भाव और भावनाओं में निरंतर गिरावट दर्ज हो रही हैं चूकी बाजारीकरण का दौर चल रहा हैं इसलिए शेयर मार्केट की तरह शब्दों के उछाल अभिव्यक्त किये हैं गिरावट और निरंतर गिरावट वास्तव में क्या रिश्तों से भी अनमोल कोई चीज़ दुनियाँ में बन गयी हैं जो लोग इसे या तो अब नजरअंदाज करने लगे हैं या यू समझने लगे हैं की इन्हे निभाने और समझने का ठेका क्या सिर्फ मैने ले रखा हैं इसी जद्दोजहद में वो जहाँ हैं वही हैं जैसे हैं वैसे हैं न कोई पहल न कोई सुधार न निभाने की आतंरिक इच्छा न उन पर समय और भावनाये खर्च करने का समय। शायद इसलिए चाहे कोई भी रिश्ता हो माता -पिता के साथ अपने बच्चों का या पति पत्नी का आपसी सम्बन्ध दोनों ही तरह के सम्बन्धों में विच्छेद की गति और सम्भावनाये निरंतर तीव्र होती जा रही हैं पिछले वर्षो में तलाक या सेपरेशन के केस ऐसे दर्ज हो रहे हो जैसे चोरी या डकैती के केस हो या तो हमने विवाह नाम की संस्था को महज़ सामाजिक औपचारिकता का नाम दे दिया हैं जिसके तहत समाज को दिखाने के लिए हम सात फेरे ले लेते हैं मेहमानों और रिश्तेदारों की भीड़ इकट्ठी कर लेते हैं पर ये विवाह करने वाले सिर्फ़ वो स्वयं जानते हैं की ये कितने दिनों का अनुबंध हैं और कितने दिन जीवित रहने वाला हैं इसलिए अब इसे संस्कार नहीं अनुबंध शब्द से सम्बोधित करना उचित रहेगा। आखिर ऐसा क्या हो जाता हैं की विवाह के कुछ वर्षो बाद चीजे इस कदर बिगड़ जाती हैं की तलाक ही अंतिम विकल्प रह जाता हैं इसका अर्थ वे दो लोग जिसने कई वर्ष पति पत्नी के सबसे मजबूत कहे जाने वाले रिश्ते में बंध कर गुजारे  अब एक दूसरे के साथ रहना बल्कि उन्हें देखना भी मंजूर नहीं होता मतलब मनुष्यता पर प्रश्न चिन्ह। क्या इतना वृहद विकराल और दानवी रूप ले लेता हैं ये रिश्ता। यहाँ हम उन गिरे हुए नशेड़ी लोगों के सम्बन्ध विच्छेद की बात नहीं कर रहे जहाँ या तो जान से मारना या दारू के नशे में  मार खाना ही अंतिम विकल्प होता हैं यहाँ बात हो रही हैं एक स्तरीय जोड़े की जो न सिर्फ पढ़ा लिखा होता हैं बल्कि सुसम्पन्न और जीवन में सुव्यवस्थित मतलब स्टैब्लिश  भी होता हैं वहाँ भी आज सम्बन्धो के टूटने या उनको निभाना महज एक औपचारिकता ही रह गयी हैं वे शायद सिर्फ इसलिए साथ रह रहे हैं  क्योकि बच्चों केभविष्य  का सवाल होता हैं या समाज में इज्जत गिर जाने या कम हो जाने का खतरा उन्हें साथ रहने पर विवश कर देता हैं और इस रिश्ते की ये उदासीनता न सिर्फ उसके महत्व को कम करती हैं बल्कि भविष्य में इसके प्रति अविश्वास की भावना भी पैदा करती हैं क्योकि दुनिया का सबसे गहरा करीबी खूबसूरत और हर दिन एक नया अहसास और अनुभव देने वाला विश्वास आस्था और दुनियाँ के समस्त अधिकारों  की डोर से बंधा अपने आप में स्वतंत्र रिश्ता सिर्फ पति पत्नी का ही हो सकता हैं क्योकि यहाँ उम्र के लिहाज़ से और समझ के द्रष्टिकोण  से भी बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता शायद इसलिए सबसे ज्यादा उम्मीदे भी इसी रिश्ते के साथ बंधी होती हैं अगर इसके परिणाम भी निरंतर नकारात्मक आयेगे तो मुझे नहीं लगता दुनियाँ किसी भी रिश्ते से इतनी उम्मीदें या अपेक्षाएँ बांधी जा सकती हैं। अक्सर ऎसे हालातों के चलते पुरुष अपने  कदम बाहर निकाल लेता हैं उस सुख की आशा में जो उसे घर पर पत्नी से नहीं मिला बाहर किसी दूसरी औरत से उसे मिल जायेगा। चूकि बाहर बनाये रिश्ते में अपेक्षाएँ सिमित और सोच नितांत पारदर्शी होती हैं की उसे घर पर पत्नी से वो सब नहीं मिल पा रहा मानसिक सुख और शारीरिक सुख दोनों [चूकि मानसिकता या सोच नहीं मिलने की स्थिति में शारीरिक इच्छाए अपने आप कम और फिर ख़त्म होने लगती] इसलिए एक नयी स्त्री जीवन में कई बार दोस्त के रूप में भावनात्मक रूप से जुड़ जाती हैं परिस्थितियोवेश अब पति को मानसिक और शारीरिक दोनों सुख उससे प्राप्त होने लगते हैं यही से उस [पति -पत्नी] रिश्ते की  पतन की शुरुआत होने लगती हैं और बाहर से प्राप्त सुख चरम को जाने लगता हैं। बाहर से आयी स्त्री के साथ सम्बन्ध हमेशा सिर्फ पैसों के लिए बने ये जरुरी नहीं हैं पैसा होना या उस व्यक्ति का सफल होना एक महत्पूर्ण कारण हो सकता हैं लेकिन सिर्फ यही कारण हमेशा नहीं होता कभी- कभी बाहर की स्त्री जब एक  सफल  सशक्त इंसान को भावनात्मक रूप से खाली या कमजोर महसूस करती हैं जिसकी पूर्ति उसके पास होती हैं या कही न कही उसके जीवन में भी कोई ऐसी कमी हैं जिसकी पूर्ति होने के साथ- साथ उसे प्रेम और भावना भी मिल रही हैं तो कई बार बाहर की स्त्री से बनाये सम्बन्ध भी खूबसूरत होने के साथ- साथ लम्बे समय तक चल जाते हैं हमेशा चलेंगे ऐसा भी नहीं होता पर चूकि यहाँ दोनों का मन निश्छल और साफ हैं और एक दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति भी कर रहा हैं   उसे जीवन में एक सशक्त सफल इंसान के साथ के  उसकी भावनाओं का भी अहम हिस्सा बनने का अवसर मिलता हैं और उस पुरुष को जिसके पास सबकुछ हैं सिवाय मानसिक शांति के  उसे बांटने के साथ- साथ उसे भावनात्मकता के साथ शारीरिक सुख भी मिलता हैं जो की वैवाहिक जीवन का अहम हिस्सा हैं मतलब बहुत कुछ वही जो सिर्फ पत्नी का अधिकार हैं पर स्त्री परायी। इसके चलते पत्नी के साथ जो छोटी- मोटी औपचारिक जिंदगी थी शायद वो भी ख़त्म होने की कगार पर आ जाती हैं शायद अब पुरुष घर जाता ही सिर्फ अपने बच्चों के लिये।
                                ऐसे मोड़ पर उस बाहर से बनाये संबध जो महज परिस्थितियोवेश किन्तु  कभी- कभी वैचारिक समानता और mutual understanding और समान अनुभवों के चलते वास्तविक रूप में  बन जाते हैं  हैं उसका क्या हश्र होता हैं वो कभी -कभी इतना लम्बा भी क्यों चल जाते जैसे वे आपस में स्वयं को पति पत्नी की तरह ही व्यवहार में लाने लगते हैं।  कभी -कभी उस रिश्ते में  इतना अधिकार और विश्वास  बन जाता हैं की कुछ लोग बाहर की दुनियाँ में एक दूसरे को पति पत्नी का ही सम्बोधन देते हैं इसे आपसी समझ कहे या एक दूसरे की जरूरतों को बखूबी पूरे करने के बदले में एक दूसरे को दर्जे और अधिकार के रूप में  दिया गया परितोषित  कहे या समाज के सामने खुल कर नहीं आ पाने का भय इस दिखावे की विवशता कहे   अगर ये भावनात्मक रूप से एक दूसरे को दिया गया सम्मान और अधिकार हैं तो ये अधिकार और विश्वास कितने दिनों या वर्षो  तक जीवित रहता हैं इस बात पर हम आगे विस्तार में बात करेंगे।  
                  लेकिन ये भी सच हैं की कोई भी स्त्री एक शादी शुदा मर्द की जिंदगी में भावनात्मक रूप से तभी जुड़ती हैं जब उसे ये महसूस करवाया जाता हैं की उस पुरुष के जीवन में प्रेम और भावना का स्थान खाली हैं उसे उसकी पत्नी के द्वारा ये सभी मानसिक शांति और सुखद अनुभव के रूप में  नहीं प्राप्त हुआ इसीलिए उसकी जिंदगी में इनकी पूर्ति के लिए किसी और की गुंजाइश बनी हो सकता हैं कुछ पुरुष झूठ का सहारा लेकर भी पराई स्त्री का ध्यान अपनी और केंद्रित करने की कोशिश करते हो लेकिन जैसे हमेशा ही सारी पत्नियाँ सही हो आवश्यक नहीं ठीक वैसे ही हमेशा पति को पुरुष होने की वजह से हमेशा संदेह की दृष्टि से देखना अन्याय होगा।  कुछ ऎसे हो भी सकते हैं जो अपनी पारिवारिक परेशानियों का या पत्नी से न बन पाने की सहानुभूति पाने और ग़लत रूप से उनकी भावनाओंके साथ खिलवाड़ करते हैं  जबकि वास्तविक जीवन में समस्याऍ उस स्तर की होती ही नहीं हैं जैसा दर्शाया जाता हैं बाहर की स्त्री को.। लेकिन कभी कभी इनमे सत्यता भी होती हैं पुरुष वास्तव में अपने वैवाहिक  जीवन से सुखी नहीं होता। जब पत्नी  सिर्फ घर की चार दिवारी में रहकर मन में उठने वाले प्रश्नों का उफान ले आती हैं अधिक समय तक उन्हें अपने भीतर नहीं रख पाती  फिर चाहे वो पडोसी से सबंधित प्रश्न हो या रिश्तेदारों से सम्बंधित या फिर बच्चों के स्कूल से सम्बंधित वो अधिक समय तक स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाती या यू कहे सही समय का इंतजार नहीं कर पाने के कारण अक्सर महत्वपूर्ण मुद्दे भी विवाद का विषय बन जाते हैं जब स्त्री के रूप में पत्नी के मन के  ये हालात हैं तो पुरुष को घर के अंदर और बाहर दोनों का प्रबंधन देखना हैं और स्वयं को उनके सवालों के जवाब के लिए भी तैयार रखना हैं हर परिस्थिति में ।क्या पुरुष के जीवन में समस्याऍ ही नहीं हैं सदा से स्त्री विमर्श और उनकी लाचारी उन पर अत्याचार और मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना चर्चा और समाधान का विषय रहा हैं।उसे नौकरी,के साथ- साथ,सामाजिक दायित्वों,बाह्य रिश्ते नातो,का भी न सिर्फ ध्यान रखना पड़ता हैं बल्कि समय असमय उन पर अपने इमोशन्स और जिम्मेदारियाँ भी खर्च करनी होती हैं। बच्चों के लिए एक श्रेष्ठ अभिभावक बनने की चुनौती जितनी बड़ी एक पुरुष की होती हैं उतनी ही कठिन भी क्योकि बच्चो के साथ वक़्त कम बिताने के बावजूद उनकी हर बात को उनके नजरिये से देखना समझना और सुनना पड़ता हैं और कई बार ठोस निर्णय भी लेने पड़ते हैं। घर के इकोनॉमिक ग्राफ के साथ साथ पत्नी के इमोशनली ग्राफ का भी ध्यान रखना पड़ता हैं इसमे थोड़ी सी कमी आने की स्थति में पूरे परिवार का और कभी कभी बाहरी रिश्तों का ग्राफ भी बिगड़ जाता हैं। मतलब पत्नी के मूड ख़राब होने की स्थिति में घर में आये अतिथि भी कई बार बेरुखी के अनुभव से लोट जाते हैं इन सबके चलते उसकी अपनी भी तो कोई परेशानी या इच्छाये हो सकती हैं जिसे वो किसी ऐसे व्यक्ति के समक्ष रखना चाहता हैं जो उसे बखूबी समझ सके। सिर्फ इतनी ही अपेक्षा होती हैं एक पुरुष की उसे सलाह की नहीं मानसिक सहयोग की उम्मीद होती हैं लेकिन पत्नियाँ बाहर घूमने नहीं जाने उन्हें समय न दे पाने की शिकायत और जन्मदिन पर तोहफा न देने और कभी कभी खूबसूरती की तारीफ़ न करने पर या सास या ससुराल पक्ष के किसी सदस्य का का लम्बे समय तक उनके घर ठहर जाने पर हुए एडजस्टमेंट जैसी छोटीछोटी बातों से पहले तो कुंठित होना फिर इसी कुंठा के अवसाद में बदल जाने जैसी स्थिति को जन्म देंने लगती हैं और फिर शुरुआत होती हैं झगड़ो की विवादों की। इन सबमे पुरुष की कितनी मानसिक परेशानियों से गुजरना पड़ता हैं ये वो सिर्फ अकेला जानता हैं।   वो स्त्री जो मानसिक रूप से पुरुषों के कई अधिक सक्षम समर्थ और मजबूत मानी जाती रही हाँ और शायद इसलिए पुरुष के जीवन में वो आती हैं मन की शांति सुख और सुकून देने के लिए क्योकि एक पुरुष शारीरिक रूप से समर्थ होता हैं इसलिए वो स्त्री के जीवन में उसकी रक्षा करने जीवन की आधारभूत आवश्यकताएँ जिनमे रोटी कपड़ा और मकान के साथ सम्मान और सुरक्षा देने के लिए आता हैं क्या दोनों अपने अपने हिस्से का कर्तव्य बखूबी निभा रहे हैं ये प्रश्न चिन्ह हैं       फिलहाल हम ऐसी परिस्थिति में पत्नी की सोच क्या होनी चाहिए इस पर बात करते हैं।
                          एक पत्नी को वैवाहिक जीवन के इस कमजोर दौर में सर्वाधिक मजबूत होकर और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण अपने ईगो को जो हमेशा आपको रिश्तों के पतन की और अग्रसर करता हैं उसे अपने जीवन से कोसो दूर रखना होगा और अक्सर घरेलू विवाद तब वृहद रूप ले लेते हैं जब पति पत्नी के आपसी मतभेद चाहे वो किसी भी स्तर के हो घर परिवार के बाहर चले जाते हैं इस रिश्ते से जुड़ा कोई भी मसला या अनुभव आपके स्वयं से बेहतर कोई और नहीं सुलझा सकता क्योकि कहाँ कहाँ किसकी और कब कब गलतियाँ हुई ये आपसे बेहतर कोई और नहीं जानता जितना वक़्त आप दूसरों को अपने विवाद या परेशानियाँ बताने में खर्च करेंगे एक दूसरे को सही या गलत साबित करने में करेंगे उतना वक़्त इस उम्मीद के साथ की जिंदगी जैसी भी हैं उतनी बुरी भी नहीं हैं इसे बेहतर बनाने के लिए और एक मौका दिया जा सकता हैं बजाय बाहर फिर से किसी नए इंसान को समझने और नया रिश्ता बनाने के एक एक दूसरे को समझने और समझाने में ये वक़्त लगाया जाय तो शायद इससे खूबसूरत रिश्ता और अपने परिवार के साथ गुजरने वाले इस समय से बेहतर जीवन में कुछ भी नहीं दुनियाँ में विकल्प हर चीज के मौजूद हैं पर जिस प्रकार हमारे शरीर के कुछ अंगो का विकल्प नहीं हैं उनका महत्व और स्थान कोई और कभी नहीं ले सकता इसलिए हम उसे सहेजते हैं  सवारते हैं थोड़ा सा बीमार होने पर तुरंत डॉ के पास जाते हैं हम भी  ये मान ले की इस रिश्ते का कोई और विकल्प ही नहीं हैं इसे निभाना ही अंतिम और सर्वमान्य हैं पति पत्नी के बीच जब बीमारी शुरू हो अर्थात अगर छोटे मोटे विवादों को या पारिवारिक झगड़ों को समय रहते या बिना समय गवाए निबटा लिया जाय तो ये बीमारी कभी जड़ तक पहुंचेगी कोई भी बात एक दिन में नहीं बिगड़ती  क्योकि संकेत हर चीज के मिलते हैं पर ईगो हर रिश्ते का जहर हैं जितनी बार झगड़ा हो उतनी बार आगे रहकर आगे बड़े साथी को ये महसूस होगा बिना आपके  वो घंटे भर भी खुश नहीं रह सकता अगर 10 बार आप ये प्रयोग करेंगे ग्यारहवीं बार आपका साथ स्वयं पहल करेगा बस आवश्यकता हैं उस दस बार तक  अपने ईगो को अपने मन के आसपास भी भटकने न दे वरना वो हावी होगा और आप दूसरी तीसरी बार में महसूस करेंगे सब करके देख लिया ये आदमी और ये रिश्ता अब नहीं ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा। जरुरी ये हो की हर परिस्थिति में इसे हमे ही सुलझाना हैं  क्योकि पुरुष का मन स्त्री से ज्यादा कोमल और भावुक होता हाँ स्त्री मानसिक रूप से मजबूत होती हैं पुरुषों की तुलना में शायद इसलिए ऐसी परिस्थिति में बाहर सम्बन्ध बनाने की जरुरत स्त्री को कम किंतु पुरुषों जल्दी  और ज्यादा महसूस होती हैं उन्हें तो जीवन के हर मोड़ पर इमोशनली सपोर्ट चाहिए अगर पत्नी नहीं देगी तो वे बाहर तलाशेंगे वास्तविकता में एक पुरुष को जीवन में  एक स्त्री से सिर्फ प्रेम, सहानुभूति और मानसिक शांति की ही अपेक्षा होती हैं ये सभी अलग- अलग शब्दों में हैं पर अर्थ सिर्फ मानसिक संतुष्टि ही हैं फिर अगर वो पत्नी से प्राप्त नहीं होगी तो निश्चिततौर पर वो बाहर इसकी तलाश करेगा इसलिए पत्नि को इस बात का आभास हमेशा होते रहना चाहिए की जो उसके पास हैं कही वो न चला जाय चाहे उसके लिए पचासो बार अपने ईगो को छोड़ना पड़े एक जिम्मेदार पति जो अपनी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी बखूबी निभा रहा हैं उसका स्वाभिमान सर्वेथा मान्य ही होगा ये कटु सत्य हैं पर उसमे स्त्री से भी ज्यादा कोमल भावनायें हैं अगर एक पत्नी ये समझ ले तो शायद दुनियाँ का कोई भी विवाहित पुरुष अपनी पत्नी के रहते हुए किसी पराई स्त्री से किसी भी प्रकार के सम्बन्ध नहीं बनाएगा पर स्त्री अक्सर अपने आवेश में अपना आपा खोकर ऐसी गलतियाँ करती हैं पति काबू करने के चीज नहीं हैं बल्कि कब क्या करना हैं ये शोध करने का पात्र हैं इसलिए जितना विचारा जायेगा गलतिया स्वतः ही कम होती जाएगी कई बार न चाहकर भी मन, वाणी और विचारों पर नियंत्रण रखना पड़ता हैं मैने यहाँ विचार इसलिए लिखा क्योकि वो गलत या नकारात्मक विचार जिसे आप अपने अंदर नियंत्रित रखे हैं वो भले ही बहार न निकले पर आपकी अभिव्यक्ति या एक्स्प्रेशन हावभाव उनका प्रदर्शन बखूबी कर देगा जिससे घर में एक नकारात्मक वातावरण बनता हैं जो धीरे -धीरे झगड़ों और फिर विवादों और अंत में मतभेदों को जन्म देता हैं और जीवन उदासीन बना देता हैं ऎसे माहोल और टकरावभरे वातावरण में अक्सर घर के उत्सव, त्यौहार महज एक औपचारिकता ही बनकर रह जाते हैं घर के शेष सदस्य बच्चे और आने जाने वाले अतिथि भी आपके घर कभी सुखद अनुभूति नहीं करेंगे।
                                     सत्यता तो यही हैं की पुरुष की अपेक्षा एक स्त्री की जिम्मेदारी ज्यादा होती हैं अगर बात खुशियों की हो तो।महादेवी वर्माजी ने  स्त्री को समर्पण के लिए सम्बोधन दिया हैं और पुरुष को संघर्ष के लिए अगर स्त्री अपने जीवन में भौतिक संघर्ष या आधारभूत आवशयकताओं की पूर्ति करने की महत्पूर्ण जिम्मेदारी से मुक्त हैं तो उसे अपने जीवन का एक- एक पल और उस पुरुष के लिए समर्पण करने में गुजर देना चाहिए। फिर इफ एंड बट कुछ नहीं होता उसके आगे सिर्फ पुरुष का स्वाभिमान और उसका कोमल मन होता हैं जो हमेशा से ही संघर्ष के बाद मानसिक शांति की तलाश करता हैं जिसके लिए वो पहला रास्ता घर का ही चुनता हैं। और पति की इस अपेक्षा  के लिए हर पत्नी को इसके लिए को आतुरता से स्वागत करना  चाहिए और और तैयार रहना चाहिए उसे वो माहोल देने की जो उसे बाहर किसी भी कीमत पर नहीं मिल सकता। यही उसका पत्नी धर्म भी बोलता हैं।
                   मुझे नहीं लगता अगर किसी पत्नी ने ये सब किया हैं फिर भी उसका  वैवाहिक जीवन टूटने की कगार पर हो पर अगर ऐसा या इसके कुछ अंश भी जीवन में प्रयोग केर लिए गए तो बिगड़ी बातें बनने के रास्ते अवश्य खुल जायेगे बशर्ते आप रास्ते खोलना चाहते हो, जीवन को फिर से एक मौका उसी रिश्ते के साथ देना चाहते हो तो, क्योकि इस रिश्ते में अलग होना ही अंतिम विकल्प नहीं बल्कि इस रिश्ते की गरिमा बोलती हैं की इसमें अलग होने जैसा कोई विकल्प ही नहीं हैं। 


 ------शोभा जैन 






रिश्तों कि एक्सपाइरी ………………………

हम सभी  कि जिंदगी मुश्किलों, समझौतों, और समाधान से होकर गुजरती हैं कुछ रिश्तें जीवन के पहले पड़ाव में मुश्किलों से सिमट कर ख़त्म हो जाते। शायद वहाँ आपसी समझ,या किसी एक के बड़प्पन कि कुछ ज्यादा कमी हो जाती हैं या फिर दोनों का ही मैन ईगो अपनी ओर से पहल करने में आड़े जाता हैँ इसलिये ये एक्सपाइरी मुश्किलों से शुरू होकर रिश्तों को अनुपयोगी बना देती हैं और फिर रिश्तें बोझ के सामान लगने लगते हैं उनमें नीरसता जाती हैं। लेकिन ये सब एक दिन में नहीं होता चीज़े और उनको देखने का नजरिया एक दिन में नहीं बदलता धीरे- धीरे बिगड़ती हैं चीजे बिगड़ने के धीमेपन को ही सही समय पर समझना जरुरी हैं कभी -कभी परिस्थितियाँ इतना वृहद विकट रूप ले लेती हैँ कि रिश्ते सिर्फ़ समझोते बनकर रह जाते हैं हालांकि एक तरह से सकारात्मक भी हैं क्योकि पति -पत्नी के रिश्ते में जब ऐसी परिस्थितियॉ बनती हैं और जब दोनों में से कोई एक इस परिस्थिति के साथ समझोता कर लेता हैं और जीवन के इस माहोल को ही अपना भविष्य मान लेता हैं अन्तरमन के इस फैसले से बच्चों के भविष्य के हिसाब  से पूरी चीजे बिगड़ने कि हानि से बचा जा सकता हैं घर परिवार कि इज्जत और समाज, बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखने कि द्रष्टि से समझोते भरी जिंदगी को आजीवन कारावास समझकर स्वीकारा जाता हैं जिसमें बाहर से देखने वालों को सब ठीक नजर आता हैं पर इस रिश्ते कि वास्तविकता कुछ और होती हैं। ऐसे समय में पति -पत्नी का अलग हो जाना इस समस्या का समाधान अवश्य हो सकता हैं,रोज रोज कि किच -किच से अलग रहकर जिंदगी बिताना जो कहने में जितना मुश्किल हैं प्रायोगिक रूप से एक आदमी और एक औरत दोनों के लिये बेहद तकलीफदेह हैं, क्योकि परिवार का टूटना किसी भी परिस्थिति में सुखदायी नहीं होता अलग हो जाने से एक होने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं दो अलग- अलग लक्ष्य दो अलग- अलग जीवन ही जीते हैं. साथ रहकर किसी एक का समझोता करने से भविष्य में रिश्तों में सुधार होने कि आशा और फिर से एक होने का विकल्प सदैव जीवित रहता हैं ये बात अलग हैं कि बेमन से समझोते भरी जिंदगी वास्तव में परिवार रिश्तों समाज और स्वयं के बच्चों के लिये एक स्मोक स्क्रीन के सामान होती हैं जिसमें समाज को पति पत्नी और बच्चों को माता पिता एक नजर आयेगे पर पर वास्तव में दो अलग।बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए लिया गया ये फैसला निश्चित ही उनका भविष्य तो ख़राब नहीं करेगा परन्तु जिस तरह से उनकी परवरिश और ध्यान पूरे मन से दोनों के सामंजस्य से होता उससे तो वे सदैव वंचित रहेंगे। या यू कहें भविष्य बनाने के लिये किया समझोता महज़ भविष्य को बिगड़ने से बचाने के लिये किया गया हैं।
                  वर्तमान समय में रिश्तों के इस रूप को अक्सर देखा जा रहा हैं .   आपसी सामंजस्य और समझ में कमी के चलते या तो पति पत्नी में सम्बन्ध विच्छेद हो रहा हैं या फिर एक ही घर में रहकर अलग अलग मन से सिर्फ़ अपनी अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा हैं जिससे समाज को लगे की ये पूर्ण परिवार हैं परन्तु न तो समाज बेवकूफ न बच्चे जिनको ये स्मोक स्क्रीन दिखाई जा रही ह५न बच्चे हमेशा ही बच्चे नहीं रहने वाले जो बात अभी सँभालने की कोशिश की जा रही हैं वो कभी न कभी किसी न किसी रूप में सामने आ ही जाएगी अपनी भावनायेओर दुःख आप ज्यादा दिनों तक छिपा नहीं सकते
             तीसरा रास्ता समाधान का जो सबसे मुश्किल भरा होता हैं इसमें या तो पुरानी चीजो को ख़त्म करके नई शुरुआत हो या चीजे जिन वजहों से बिगड़ी हैं उसकी जड़ तक जाकर उस पर पूरी आस्था से अगर मनन चिन्तन कर बजाय एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाये दोनों ही अपनी - अपनी गलतियों को स्वीकार कर ये माने की इन वजहों से हमारे जीवन में दरारे आई ओर दूरियाबनी हैं क्या ये वजहें हमारे रिश्ते से भी उपर हो सकती हैं बिना किसी ईगो के अपने रिश्ते को जोड़ने की तत्परता के आगे वो वजहें बहुत बोनी ओर हास्यप्रद प्रतीत होंगी उन्हें जीवन में न दोहराने का संकल्प स्वयं से लेकर उसी जिन्दगी को अपडेट ओर बेहतर किया जा सकता हैं क्योकि पुरानी वस्तुए ओर पुराने रिश्ते समय के साथ -साथ निखरते हैं समय की मार बार -बार उन पर पॉलिशिंग करती हैं ओर शायद इसी का नाम जीवन हैं ये सब रचा ही हमारी सेल्फ टेस्टिंग के लिए जाता हैं हम अपने रिश्ते के प्रति कितने समर्पित ओर उदार हैं इस बात का भी परिक्षण हो जाता हैं नया जीवन नई चीजो ओर नए रिश्तों के साथ जीना सबसे आसान तरीका हैं पर पुराने के साथ निभाना,उसकी कमियों के साथ उसे जीना ओर सही बनाकर न सिर्फ़ उसमे खुशियां खोजना बल्कि जो मिले उसे सहेज कर उसे उसके मुकाम तक ले जाना सबसे कठिन काम काम हैं .. शायद इसीलिए रिश्ते बीच मझधार में ही दम तोड़ देते हैं एक ओरत की इसमें सबसे अहम् भूमिका रहती हैं और उसके इसी प्रबंधन से सबसे ज्यादा उम्मीदे रखी जाती हैं ...गलतियाँ हर इन्सान से होती हैं कुछ परिस्थितियोवश कुछ अन्य कारणों से लेकिन कभी कभी एक पत्नी को पति के जीवन में माँ का किरदार भी अदा करना होता हैं शायद इसलिए माँ का स्थान कोई ओर कभी नहीं ले पाया उसका ह्रदय सबसे विशाल माना गया हैं क्या उसे ठेस नहीं पहुचती फिर भी वो समय देती हैं ओर हमेशा अवसर देती अपनी त्रुटियों न सिर्फ़ सुधारने बल्कि उनको महसूस करने का भी.. माँ भी एक ओरत हैं ओर पत्नी भी एक ओरत फिर माँ हमेशा इसे सहेजने में सफ़ल रहती हैं पत्नी क्यों जल्दी हार मान लेती हैं गलती किसी की भी हो परिस्थिति जो भी हो एक ओरत से बेहतर ओर श्रेष्ठ इसे कोई नहीं संभाल सकता ये गुण,प्रतिभा ओर इस कार्य में दक्षता ईश्वर ने दुनिया की हर ओरत को नेमत के रूप में दिया हैं बस उसे पहचानने ओर जीवन में अपनाने की देर हैं ओर जो समय रहते इसे स्वीकार कर इसमें यथोचित सुधार कर लेता हैं उसकी जिन्दगी अपने आप आम से बेहद खास बन जाती हैं क्योकि हमारे कुछ समय की विपरीत परिस्थति में लिया गया एक गलत निर्णय जाने कितने रिश्तों की जिन्दगी को न सिर्फ़ जीवन के प्रति अपितु उस रिश्ते के प्रति भी उदासीन कर देगा

             इसलिए रिश्तों के एक्सपायर होने का इंतजार न करे जरा भी संशय होने की स्थिति में अपडेट करे पुनःस्थापित करे उसी रिश्ते को नए स्वरुप में... अगर सही वक़्त पर उन्हें रिनोवेट कर लिया तो वही रिश्ते जीवन की ओषधि बन जायेगे जो कभी एक्सपायर नहीं होती रिश्ते जीवन जीने के लिए होते हैं उनसे दूर भागने के लिए नहीं इसलिए समय- -समय पर स्वयं का परीक्षण  कठोर और विपरीत परिस्थितियों  बीच विश्वास,धैर्य,और प्रेम की खाद से सदेव उन्हें पोषित कर पुनः रोपित करने का प्रयास ही सफ़ल जीवन का मूल मंत्र हैं 
....  शोभा जैन अक्टूबर  २०१४