लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

बुधवार, 30 मार्च 2016

                                       आलेख

अकेलापन वर्जित हैं 'साहित्य में' ....
    फिर भी आदमी अकेला है....
              --- शोभा जैन

साहित्य कभी अकेला नहीं होता न साहित्य को समझने वाले कभी अकेलेपन का शिकार होते हैं साहित्य तो झुरमुठ हैं ईश्वर प्रदत्त उन समस्त उपहारों का जिसे सहेजना बमुश्किल हो रहा हैं फिर वो प्रकृति हो या मनुष्य जब हम चिड़िया हिरण और शेर  की बातें करते हैं तो शिकारी स्वतः ही हमारी चर्चाओं में स्थान पा लेता हैं जब हम कटी हुई लकड़ी और उसके दुःख की बातें करते हैं तो 'पेड़' ऊँचे ऊँचे फलदार वृक्ष अपने आप अपना स्थान निर्धारित कर लेते हैं साहित्य में किसी का भी जिक्र अकेला नहीं जब गिलहरी की बातें होती हैं तो टहनियाँ डोलने लगती हैं साहित्य में रंग -बिरंगे फूलों की महक तितलियों को जोड़ देती हैं भवरों का गुंजन देने लगती हैं,  कितना सौन्दर्यवान हैं साहित्य का जीवन जिसमे अकेला कोई भी नहीं कुछ भी नहीं जबकि साहित्य जन्मता जीवन के अत्यंत निजता में जिये क्षणों में जिसे एकांत कहते हैं मानव लोक की एकांतमयी कोख से जन्मता हैं साहित्य अकेलेपन में जन्म लेता हैं साहित्य पर साहित्य में अकेलापन वर्जित हैं .....उस किशोर के मन की कल्पनाये उड़ान भारती हैं जब वो किसी क्षण बेहद अकेले में रचता हैं अपने जीवन की पहली कविता माँ पर या प्रियसी पर| जन्मते वक़्त कितना अकेलापन होता हैं उस कविता में  किन्तु जब वो साहित्य बन जाता हैं तो समाहित हो जाती हैं उसमें कई और अनुभूतियाँ किसी के लिये प्रेरणा किसी के लिये बेहद सुंदर मार्मिक कविता .....एक बूढ़े आदमी के अकेलेपन में जन्मते हैं उसके अनुभवों के आलेख अत्यंत निजता में जिए जीवन के अनुभव अकेलापन जन्म देता हैं साहित्य को पर साहित्य में अकेलापन नहीं अक्षर जब शब्द बनते हैं शब्द जब संदर्भगृहीत वाक्य बनते हैं तो उनमे साहित्य की छवी दिखाई देने लगती हैं अक्षर अकेला चला लेकिन अर्थपूर्ण वाक्य अकेला नहीं उससे मिलती हैं कई प्रेरणाए और सीख... साहित्य अपने साथ बहुत कुछ लेकर चलता हैं....एक चिड़ियाँ भी जब शब्दों के साहित्य का हिस्सा बन जाती हैं तो पुरे आकाश की अनुभूति दे जाटी हैं  उसके पंखो की उडान हवाओं की दिशा और जाने क्या क्या किन्तु ये अनुभूतियों झुरमुठ सिर्फ साहित्य में .... साहित्य में जब इंसान का जिक्र होता हैं तो उसके दुःख,उसकी संवेदनायें और अनुभूतियाँ  उसके जीवन के बेहतरीन रूप स्वतः विचार विमर्श का हिस्सा बन जाते  हैं इसका अर्थ हम साहित्य में केवल इंसानो  पर बात नहीं कर सकते। जबकि इंसान केवल अपन  दुःख के बारे में सोचता हैं अपने सुख के बारे में बाते करता हैं. नहीं जुड़े  होते उसके शब्द कोष में अन्य नाम । अत्यंत निजता में जिये जीवन में अकेला पाता हैं अपने दुःख में स्वयं को अपने सुख में स्वयं को साहित्य' दुःख के आंसुओं में आनंद की अंतरधारा बनता हैं और सुख के क्षणों में उत्सव । साहित्य जीता हैं जीवन को कभी गद्य के रूप में कभी जीवन के काव्य कभी  महाकाव्य के रूप में किन्तु इंसान उलझे ही रहते हैं जीवन के छंद में रहस्य के आवरण में अपराध बोध छिपता छिपाता हर दिन | जबकि जीवन न तो एक दिन की घटना हैं न एक वर्ष का कोई पड़ाव यहाँ तो हर दिन चुनौती हैं साहित्य हर चुनोती को नए अनुभवों की द्रष्टि से देखता हैं उसके हर दिन के कर्म में जोड़ना चाहता हैं अनुभूतियों को उत्साह को अकेलेपन से दुकेलेपन तिकेलेपन और चोकेलेपन में बदलकर साहित्य सामाजिक मनुष्य का मंगलविधान हैं । साहित्य का  मनुष्य कुलीनों के मानव और मानवतावाद से भिन्न है। शायद साहित्य को रसास्वादन  कहा गया हैं जीवन को नहीं क्योकि स्वाद को स्वाद से निकलकर उसके मर्म तक पहुँचना होता है अर्थात साहित्य के स्वाद से निकाल कर साहित्य के मर्म’ तक लेकिन मनुष्य स्वाद से ही नहीं उभर पाता उसी से संतुष्टि नहीं ले पाता तो मर्म तक पहुचे कैसे । साहित्य हृदय को परदुःखकातर और संवेदनशील बनाता हैं शायद इसीलिए वो कभी अकेला नहीं होता...मनुष्य की अपनी शर्तों पर जीवन जीने की शैली ने उसे अमानवीय, असंवेदनशील, और अप्राकृतिक प्रव्रत्ति का बना दिया हैं जो कभी -कभी उसके मनुष्य होने पर भी संदेह पैदा कर देता हैं | साहित्य संदेह, भ्रम और इसके उसके से बहुत दूर सबको लेकर चलने में विश्वास रखता हैं साहित्य में शक्ति होती हैं दूसरे के जूते में पैर डालने की तभी तो महसूस करता हैं परा दुःख इसलिए साहित्य कभी अकेला होता |.दरअसल साहित्य मनुष्य के व्यक्तित्व और कृतित्व को मांजने का एक सशक्त माध्यम हैं .....जो उसके जीवन के इस अकेलेपन से कोसो दूर ले जाने की क्षमता रखता हैं ‘’इन्सान बौद्धिकता के ज्वार में भावपरायणता विमुख होता चला जा रहा हैं’’उसकी सोच में प्रगाढ़ पार्थिवता का अभाव विकसित हो रहा हैं विकास चरम की और अग्रसर हैं वह ‘भाषा’ पर तो काम कर रहा हैं किन्तु उसमें निहित ‘भाव’ पर नहीं....और यही उसे अकेला करता जा रहा हैं |आधुनिक होने के भ्रम में हमारी आधुनिकता  रूढ़ियों, वर्जनाओं और जर्जर परंपराओं के विरोध में खड़ी तो है पर अपना निष्कर्ष नहीं देती अन्तस् में डूबी हुई अनुभूति दबी छुपी हैं समाधान रहित बहस में । साहित्य कहता हैं जीवन में जटिलता भी है, दु:ख भी, अकेलापन भी, अथाह शून्यता भी, पर इन विपदाओं का सर्व्र रागालाप नहीं है। वह कर्मयोगी है जो  दुख के सामने तनकर खड़ा होता है अदम्य तत्परता के साथ और अपने काम में व्यस्त हो जाता है चाहे दुख हो या सुख क्योंकि उसकी जिजीविषा दृढ़ है।
    जीवन के प्रति कवि त्रिलोचन के गहरे अंतर्निष्ठा का प्रमाण ये कुछ पंक्तियाँ हैं जिसे वे जीवन के व्यापक प्रसार में देखते हैं---
संकोचों से सागर तरना
शक्य नहीं है
अगर चाहते हो तुम जीना
धक्के मारो इसी भीड़ परइससे डरना
जीवन को विनष्ट करना है
उर्वर होता है जीवन भी आघातों से
विकसित होता हैबढ़ता है उत्पातों से।
या फिर,
लडो़ बंधु हेजैसे रघु ने इंद्र से लडा़ था/
क्रूर देव सम्मुख मानव दृप्त खडा़ था।

साहित्य का यही रूप इन्सान को जीवन के प्रति आस्थावान बना देता हैं कभी कवि की कविताओं से कभी लेखक के गद्य से कभी रंगमंच के नाटक से तो कभी जीवन के उपन्यास और कहानी से संस्मरण बनते- बनते जीवन एक पूरे साहित्य का रूप ले लेता हैं जिसमे परोक्ष रूप से सभी विधाएँ निहित हैं इसलिए अपने जीवन को साहित्य बनाना ही जीवन का सुखमय एक मात्र आयाम हैं साहित्य में जीवन की हर विधा हर अनुभूति अपनी शब्द शक्तियों के साथ समाहित हैं जो जीवन को कभी अकेला नहीं करती प्रेरणा देती हैं परादुःख में स्वदुख की अनुभूति की जीवन की कविताओं में इन्सान के मर्म को खोजती
मानवता के गहरे विश्वासी-कवि त्रिलोचन मानते हैं कि -
"उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,
नंगा हैअनजान हैकला--नहीं जानता
कैसी होती है क्या हैवह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है
उसके जीवन का सोताइतिहास ही बता
सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से,
अपने समाज से हैदुनिया को सपने से
अलग नहीं मानताउसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँचीअब समाज में
वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता
चला जा रहा है वहअपने आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़ करजपता है नारायण नारायण।"

ये पंक्तियाँ व्यर्थता में अर्थ खोजती भी नजर आती हैं और दुख-दर्दों की हाला पीकर और भी उर्जावान होकर जीवन जीने की कहती हैं .. इसमें दुःख भी मानवता के लिये और पुनः आरम्भ भी ...दरअसल आधुनिकता का बोध भी  मानवता के ह्रास का एक  बड़ा कारण है जो सीधे तौर पर इंगित करता हैं मानव के चरित्र के  दोहरापन को  और शायद इसलिए कई बार तो चरित्र के विचलन को ही आधुनिकता का पर्याय मान लिया जाता हैं यही मानव को पंगु बना देती हैं मानवता से जुड़ने के लिये आर्थिकता को इन्सान सर्वोपरि मनाता हैं सरप्लस पूँजी ने मानव के सबंधों को सिर्फ़ धन-संबंधों में ही बदलने का कार्य किया है और सुख की झूठी परिभाषा की है। साहित्य हर क्षण जाग्रत रखता हैं जमीन से जुड़े रहने के लिये\
  साहित्य जीवन में आत्मीयता और सरलता सहजता का बोध कराता हैं| बाजार और विज्ञापन की भाषा सिर्फ व्यवसाय में इजाफ़ा दे रही हैं जीवन में नहीं । यह जीवन में सृजन, विचार और आत्मिक भाव की भाषा को हाशिए पर रख वैश्वीकरण मनुष्य के लोकोन्मुखी प्रकृति पर ही वार कर मनुष्य के सोचने के तरीके  को ही बदल रही हैं
सत्य तो यही हैं की साहित्य जन्मा मनुष्य के भीतर से हैं लोक की कोख से जन्मा साहित्य मनुष्य को उसकी अपनी अस्मिता और ज़मीन से जोड़ता है। किन्तु बाजार से बेजा़र होते इस लोक समय में लूट-खसोट, छल-छद्म, हिंसा, दंभ, अहंकार, प्रदर्शन,अन्याय और उत्पीड़न से अलग मनुष्य एक प्रेममय, विलक्षण संसार की रचना करे जिसमें मानव मूल की संवेदना जगाने का समर्थ हो ,दुनियाँ भर में सम्प्रति चल रहे आदमी के झूठे अलगाने वाले शब्द निहत्थे और अर्थ हीन हो जाय| जिसमे आदमी को आदमी से जोड़ने का आदमी साहस हो  उसके अकेलेपन को मांजती साहित्य की हर एक रचना उसके जीवन में निहित हो आदमी उसी साहित्य को अपने जीवन से जोड़े जो उसी के लोक की कोख से जन्मा हैं क्योकि साहित्य न तो अकेला जन्मा  न अकेला जिया हैं वो सदैव जीता हैं समय के साथ आपने आस- पास के परिद्रश्य में इंसान की परिस्थितियों में,परिवर्तन में, किन्तु संस्कारों में पलकर परम्पराओं का सम्मान करते हुए सिर्फ भाषा में नहीं जीता साहित्य इसलिए साहित्य की दुनियाँ में अकेलापन वर्जित हैं उसमे निहित हैं जीवन की बहुत सी विधाएँ जिसे ‘जीते हैं’ हम ‘इंसान’ फिर भी अकेलेपन में आज|

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शुक्रवार, 25 मार्च 2016

                                                  आलेख –
                                        स्त्री विमर्श –द्रष्टि और दिशा  

                                                                                               -शोभा जैन 


पुरुष प्रधान देश में स्त्री विमर्श महज एक रोचक विषय है उसके दैहिक विषयों पर चर्चा करने का समय अन्तराल के साथ परिवर्तित होती सभ्यता की नग्नता अब स्त्री के खुलेपन पर भी हावी हो रही है । हम उस समाज का हिस्सा है जहाँ  आदमी अगर नंग-धड़ंग हो जाए तो उसे संन्यासी मान लिया जाता है और औरत नग्न हो तो स्त्री को अब इस क़ैद से निकलना होगा। स्त्री को शुरू से आज तक शरीर में ही क़ैद रखा गया है। चाहे वह साहित्य में बिहारी  का नख-शिख वर्णन हो, चाहे वात्सायन का नायिका भेद। पूरा का पूरा रीतिकाल भरा पड़ा है नायिकाओं के दैहिक वर्णन में । बहुत खोजा पुरुषों का नख-शिख वर्णन कहीं नहीं मिला। नारी के नख-शिख वर्णन की परंपरा में निष्णात कवि पुरुष के प्रति  इतने उदासीन क्यों रहे ?  स्त्री को देह के आस-पास ही परिभाषित किया गया। बिहारी ने अपने एक दोहे में बताया है -वधू अधर की मधुरता कहियत मधु न तुलाय,लिखत लिखक के हाथ की किलक ऊख ऊँ जाय।धन्य है ऐसी वधू और धन्य है ऐसा कवि! जिससे कलम बनती है वे सारे किलक अगर ऊख हो जायँ तो देश की चीनी की आवश्यकता तो पूरी हो ही, इतनी बची रहेगी कि उसके निर्यात से विदेशी मुद्रा के भंडार भर जायेंगे। नीति-बोध कहाँ गया ? हमारे समय में भी स्त्री की मुस्कुराहट ही बहुत बड़े -बड़े तूफान ला देती है आज के समाज  में कपड़ों को लेकर मोर्डेनिटी  आ गयी है पर पुरुषों को सोच में नहीं।  दरअसल हम उस पीढ़ी की सोच में है जो उदारीकरण में जवान हो रही है । जहाँ तक स्त्री विमर्श के वर्तमान स्वरूप का सवाल है तो कोई भी विमर्श ऐसा नहीं होता जिसे सभी स्वीकार कर लें। लेकिन ये निरंतर बढ़ने वाला और साहित्य की मुख्यधारा बनने वाला विमर्श है। इस पर हमें सोचना और चिन्तन करना होगा स्त्री को विवेकशीलता के साथ शायद कभी आँका ही नहीं गया यौवन  और सौन्दर्य के अतिरिक्त उसकी अपनी समझ और बुद्धि का मूल्यांकन उस स्तर तक नहीं हुआ जितना वर्णन उसकी दैहिक विषयों पर हुआ| सम्पन्न और विकसित आधुनिक भारत का सपना देखने वाला भारत और पूंजी मुक्त बाजार को अपना आदर्श मानने वाली पीढ़ी इस मुगालते में पल रही है की स्त्री आज आजाद है शायद स्त्री की स्वतंत्रता की परिभाषा महज उसके पाश्चात्य तरीकों से कपडे पहनने, बाहर जाकर नोकरी करने,पढने -लिखने और सजने संवरने के अर्थ में ही ली जाती है किन्तु उसके प्रति सोच आज भी उसी पराधीनता में कैद है । शायद  एक पुरुष स्त्री के व्यक्तित्व में  सौन्दर्य दैहिक जिज्ञासा से ऊपर देखना ही नहीं चाहता अक्सर इसलिए नोकरी में भी वरीयता का आंकलन उनके प्रतिभा कौशल के रूप में द्वितीयक होता है 'स्त्री है' इसलिए उसका चुनाव आसानी से होता है कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो स्त्रियाँ अक्सर शोपीस के रूप में ही देखी जाती है उनकी प्रतिभा 'उनका स्त्री होना ही है।' फिर चाहे वो  बात किसी भी कार्य क्षेत्र की हो निचले और कमजोर तबगों से लेकर उच्च श्रेणी तक में यही आलम है शायद इसी लिए योग्य होते हुए भी एक स्त्री को पुरुष की तुलना में अक्सर कम  वेतन दिया जाता है क्योकि उसका कार्य सिर्फ कार्यालय की शोभा बढ़ाना है पदस्त तो वो सिर्फ नाम के लिए है ।  इस बात को स्पष्ट करने के और भी सैकड़ों उदाहरण है क्यों हर रिझाने वाले विज्ञापन में अक्सर स्त्री को ही पात्र बनाया जाता है जबकि एक पुरुष को दिशा विमुख होते दिखाया जाता है इतना ही नहीं जहाँ स्त्री की आवश्यकता नहीं वहां भी स्त्री को डाल दिया जाता है । निः संदेह स्त्री सौन्दर्य का पर्याय है किन्तु  उसे फूहड़ता और नग्नता में परिवर्तित कर  स्त्री को महज शोभा की सुपारी की धारणा में  लिया जा रहा है जहाँ उसके ज्ञान,प्रतिभा,योग्यता, गुणों का मोल नहीं चूँकि वो एक स्त्री है यही पर्याप्तता उसे अपने इस ठप्पे का दुरूपयोग करने के लिए अब बाध्य कर रही है जब बार -बार उसके स्त्री होने के सॉफ्ट कार्नर का एहसास करवाया जाता है तब शने -शने उसकी मानसिकता उसी काम के लिए बन जाती है  फलस्वरूप वर्तमान में महिलायें सबसे आसान रास्तों का चुनाव जीवन के सबसे कठिन दौर में कर रही हैं और यही विषय  कई घरों ,परिवार और हमारे समाज के लिए दुर्भाग्य का विषय बन गया है की उसने अपनी खूबसूरती को अपने व्यवसाय में तब्दील कर दिया दरअसल पुरुष उसे जिस रूप में देखता है उसे ही अपनी नियति बनाने में स्त्री  को अब कोई शर्म नहीं शायद इसलिए अब स्त्री अपने जीवन के वास्तविक  कार्यक्षेत्र में स्रजन तो कर  रही है लेकिन पुराने शब्दों पर  नए अर्थ के साथ। समाज वैसा  ही बनता है जैसा आप बनाना चाहते हो और वैसा ही दिखाई देता है जैसा आप देखना चाहते हो द्रष्टिकोण आपका अपना है जैसी द्रष्टि होगी वैसी दिशा होगी 'सोच' हर समस्या का समाधान देती है उसे बदलना या बनाना, निर्माण और परिवर्तन दोनों ही  विकल्प समाज में स्त्री की दशा और दिशा के लिए एक  सम्मानजनक स्थिति का परिचायक बन सकते है ।   ----  

गुरुवार, 24 मार्च 2016

'साहित्यकुञ्ज'  में प्रकाशित आलेख --'सोशल साईट्स और लोकव्यवहार' http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/ShobhaJain/ShobhaJain_main.htm

रंगों में जीवन का अर्थ खोजता आदमी  बेरंग हो गया। भूख का कोई रंग नहीं प्यास का कोई रंग नहीं। आदमी की जरूरत का भी कोई रंग नहीं फिर भी आदमी रंग दिखाता है, बल्कि कपड़ों की तरह रंग बदलता है । सच तो ये है की आदमी के दुःख का कोई रंग नहीं हर वक़्त तलाश में भटकते हुए आदमी का कोई रंग नहीं ।  न इनकी परिभाषा है जो इन्हें जैसा नाम दे इनकी जरूरतें  वैसा ही  आकार  ले लेती है....   ये भी जरुरी  नहीं जिसने रंगीन कपड़े आज पहने हो, उसके जीवन में भी रंग हो। ये भी जरुरी नहीं जो आज रंगीन नहीं उसका जीवन बेरंग हो। ये रंगो की रंगीनियों पर विमर्श महज एक दिवस का नहीं।  जो दिखाई दे  केवल वे ही तो रंग नहीं, तलाश उन रंगों की करना है जो जीवन से कोसों दूर प्रतीक्षा में बैठे है कोई इन्हे भी चुने और बनायें कोई कविता इनके रंगों पर  , इनके अपने रंगों पर जो उपजे है इनके पसीने से। शोभा जैन 

मंगलवार, 15 मार्च 2016

मै जो हूँ .....

  --शोभा जैन

मैं कोई कविता नहीं
  न ही तुम्हारे जीवन का छंद ।
जिसे पढ़कर तुम मुदित हो जाते हो,
   मुदित करते हो ओरो को ।
मैं वो प्रसंग भी नहीं,
   जो चर्चा का विषय बन जाय।
न ही किसी के जीवन  का रंगमंच
   जिसे देखने भीड़ जमा हो जाय
मैं  महाकाव्य हूँ।
  जिसे पढ़ पाना ,
पढ़ कर समझ पाना,
किसी के महाकवि होने का प्रमाण है।

पेड़ की गाथा

    --शोभा जैन

मैं  पेड़ हूँ।
मेरी जड़ों में समाया  कई पढियों का रहस्य
मैने देखा है द्वन्द
परम्पराऔर पीढ़ियों के मध्य ।
मैने देखे है पत्तों की तरह,
इंसान के जीवन में,
सम्बन्धों के  रूखेपन ।
जाने कितने
पतझड़ और बसंत।
मेरी टहनियाँ गवाह है
हर पीढ़ी कि झूलन की ।
मेरे फल पक कर गिर गये
समय के साथ ।
मैने देखा  हर पीढ़ी को
अपने भीतर, अपनी काया में ।
अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ
फिर से हरा होने के लिए
फिर से जीने के लिए वही अनुभव
ये  मेरे जीवन की पुनरावृत्ति है
पुनरावलोकन के साथ ।
पुराने शब्द पर नए अर्थ की कलम लिए।

विजय  विकल्प चुनो....

     शोभा जैन


यह जीवन हार के लिए नहीं
  बल्कि उन संकल्पों पूर्णन्ति है,
जो वर्षों पूर्व क्रूर शताब्दियों के परिणाम से जन्मे थे,
जो आज जीवन के हर मार्ग पर युद्धरत है।
हमारा जीवन उस विजय  के लिए है ,
   जिसकी आशा  हम हर दिन करते है
उगते सूरज के साथ, डूबते दिवस के मध्य
जीवन के सबसे क्रूरतम क्षण में भी।
अन्तस् में निहित श्वास के अंतिम क्षणों में भी
सूरज की रौशनी,
'रौशनी' केवल एक छत के लिए नहीं
हमने तो स्वप्न देखे हैं
पूरे आकाश में 'रौशनी' फैला देंगे।
हमारे जीवन में हो
सबका दुःख,सबकी व्यथा, सबके लिये समता
खेत की मिट्टी के लियेभी,वृक्ष के फलों के लिये भी,
गरीब की गरीबी के लिये भी
उसकी टूटी खाट,और सुखी रोटी के लिये भी
रेल किनारे उस जीवन के लिये भी
हमारा युद्ध,
अभावों में पलते हर उस क्षण के लिये
जो भले ही हमने नहीं जिया,
पर जीते देखते हैं हर रोज
अपने चारों ओर
ये अवसर हमें मिला हैं इन्सान के रूप में
विजय की  मशाल सभी के हाथों की शोभा नहीं बनती
जीत का विकल्प सदा- सदा हमारे समक्ष सुरक्षित  रहता है।
'प्रतीक्षा' करने के बजाय 'चुनाव' करके
चुनौतियों से युद्ध करने के  साहस का गौरव
एक मात्र मनुष्य को प्राप्त है..
दुर्लभतम जीवन को टिकाऊ मत बनाओ।
इतना भी मत की स्वयं को जवाब भी न दे सको।
चुनौतियाँ अक्सर अवसर लेकर आती हैं
मनुष्य  से इंसान, आदमी से कुछ उपर  उठने का
इसलिए ,
उठो और जीवन के  मोर्चों पर
युद्धरत रहो ,जीत की प्रतीक्षा मत करो
विजय का विकल्प चुनों।

शोभा जैन

सोमवार, 7 मार्च 2016

 अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर

आलेख -स्त्री

लेखिका -शोभा जैन

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" इस उद्घोष को एक बार पुनः  से आत्मसात करते हुए  नारी का हृदय से सम्मान करते है ! स्त्री मानव अस्तित्व का अाधार है मनुष्य के जीवन का सृजन है। वो अब साहित्य की श्रेष्ठ कथाओं काव्य  तक सिमित नहीं। पुरुष के संघर्ष में निहित जीवन के अवरोधों में समायें  हैं उसकी सफलता के बीज ।अनादि काल से सृष्टि के केंद्र में स्त्री रही है। स्त्री मनुष्य के रूप में एवं एक तत्व के रूप में सृजन का पर्याय है। किन्तु फिर भी पुरुषजन्य कि  दहलीज पर उसकी महत्वाकांक्षा नियंत्रित  ही है । अक्सर उसके जीवन के अर्द्ध विराम , पूर्ण विराम बनकर ही रह जाते हैं विशेषकर उसके विवाह विच्छेद या विधवा होने की स्थिति में । उसे तब तक ही सम्पन्न माना जाता हैं जब तक वो पिता या पति की छत्र छाया में रहती है.निः संदेह स्त्री एक पुरुष के बिना अपूर्ण  है और एक पुरुष का जीवन भी एक स्त्री के बिना अस्त व्यस्त है दोनों का अपना- अपना महत्व है कोई एक दूसरे की जगह नहीं ले सकता जहाँ एक और भारतीय संस्कृति में स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानकर पुरुष को अर्धनारीश्वर की संज्ञा दी गयी फिर 'स्त्री को महिला होने के बावजूद वाला भाव' उसकी उपलब्धियों में क्यों मुखर रहता है। जबकि हम देखते है साहित्य और इतर कला माध्यमों में सर्वाधिक चित्रण और वर्णन स्त्री का ही हुआ है।मनुस्मृति में स्त्री के लिए "भोज्येषु माता, रूपेच लक्ष्मी। शयनेषु रंभा, क्षमया धरित्री" कहा गया है । बावजूद इसके आज भी वास्तविक व्यवहार में इसके विपरीत समाज में स्त्री लांछित, अपमानित और पीड़ित है हर दिन अख़बार की निराशाजनक ख़बरों का अहम हिस्सा है हम ऐसा मान ले की स्त्री के प्रति भोगवादी प्रवृत्ति का विकास मध्य युग में हुआ था जो आज भी विद्यमान है। कहा गया है ---"पिता रक्षति कौमार्ये, भर्ता रक्षति यौवने, सुत: रक्षति वार्धक्ये, न स्त्री स्वातंत्र्यम् अर्हसि"।
इसके अनुसार पुरुष को पिता, पति और पुत्र के रूप में स्त्री की रक्षा का दायित्व सौंपा गया है। किन्तु जब ये तीनों ही अपने कर्तव्य से विमुख होते प्रतीत होते है तो स्त्री के लिए उपरोक्त सूक्ति एक  आपत्तिजनक भाव है।इसका अर्थ ये भी नहीं कि  'स्त्री स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है'उसे आश्रिता घोषित कर दिया जाय।स्त्री की दैहिक सुरक्षा अनिवार्य है और यह केवल पुरुष ही प्रदान कर सकता है, क्योंकि उसका अस्तित्व उस पुरुष के लिए बहुमूल्य है जो कि उसका स्वामी है, मालिक है, उपभोक्ता है तथा शरणदाता है।  इस धारणा के अनुसार स्त्री का पुत्री, पत्नी और माता के रूप में पुरुष के अधीन रहना ही उचित और अनिवार्य है।किन्तु उसके सम्मान सुरक्षा  को अधीनस्थता की स्थिति में परिवर्तित कर देना अनुचित है।  यह एक निर्विवाद सत्य है कि मानव समाज आरंभ से ही पुरुषवादी, पितृसत्तात्मक समाज रहा है।तथाकथित मातृसत्तात्मक समाजों में भी निर्णय लेने का अधिकार पुरुष के पास ही आरक्षित रहता है, जिसे स्त्रियाँ बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लेती हैं ऐसी स्थिती में एक पुरुष कि नैतिक जिम्मेदारी और अधिक प्रबल होनी चाहिए की एक स्त्री उसके हर एक निर्णय के प्रति स्वयं को प्रतिबद्ध मानकर उसके साथ चलती है तो  उसके निर्णयों में ईमानदारी,निश्छलता,निः स्वार्थता और परिवार के हित का भाव होना चाहिए ।किन्तु ऐसा नहीं होने पर वह स्त्रीवादी बहस और विवाद का केंद्र बिन्दु  बन जाती है ,उसकी  स्वायत्तता, व्यक्तिगत स्वेच्छा तथा उसकी स्वतन्त्रता का मुद्दा बनकर रह जाती है। कभी -कभी ऐसी महिलाओं को चरित्रहीन भी करार दिया जाता है।.  कोई भी महिला पुरुष के द्वारा निभाई गयी उपरोक्त जिम्मेदारियों  के सशक्त निर्वहन के चलते चरित्रहीनता के रास्ते के चलने के विषय में सोच भी नहीं सकती उसके गलत तरीकों से देहरी लांघने का कारण स्वयं पुरुष ही होते है।.एक जिम्मेदार पुरुष कभी अपने घर की लक्ष्मी और शोभा को किसी के तीक्ष्ण नजरों और शब्दों का हिस्सा नहीं बनने दे सकता । पुरुष जो समर्पण, त्याग और सेवा का भाव स्वयं के प्रति स्त्रियों से अपेक्षा करता है, वही भाव उसे भी स्त्री के प्रति होना चाहिए।हमारे समाज में शील और चरित्र की पवित्रता और शुचिता के मानदंड स्त्री और पुरुष के लिए भिन्न भिन्न होते हैं। पुरुष दुराचारी और व्यभिचारी होकर भी सद्चरित्र बना रहता है किन्तु स्त्री का शील और उसकी चारित्रिक शुचिता हमेशा पुरुष के मापदंड से मापी जाती है जो कि हमेशा पक्षपात पूर्ण होती है।आज की नारी पुरुष से सवाल करती है - "सीता की माँग करने वाले से यह भी तो पूछा जाएगा कि क्या वह राम बन सका?" ''अपनी पराजय को विजय मानने वाले ऐसे पुरुषों से भी समाज शून्य नहीं, जो छोटे बच्चों को छोड़कर दिन-दिन भर परिश्रम करने वाली पत्नियों के उपार्जित पैसों से सिनेमा घरों की शोभा बढ़ा आते हैं।" (अतीत के चलचित्र से। )हमें समझना होगा  कि -नारी पुरुष के जीवन को अपने समर्पण की मधुरिमा से भर देती है। उसमे प्रेम और समर्पण का भाव प्रकृति ने सहज रूप से भर दिया है जिसे वह स्वयं जानती है स्त्री को उसके हिस्से के सामाजिक कर्तव्य को सम्पन्न करने की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए, तभी समाज में संतुलन बना रहेगा और नारी उत्पीड़ित नहीं होगी।
    आज हम स्त्री को एक सशक्त महिला के रूप में देखते है किन्तु  एक स्त्री के सशक्त होने के साथ- साथ उसमें संवेदना और कोमलता का अभाव पाया जा रहा है  शीर्ष पदों पर आसीन महिलायें जिस कार्य क्षेत्र में ख्याति पर ख्याति हासिल कर रही है दरअसल वो उनका कार्य क्षेत्र नहीं है मेरा ऐसा मानना है। घर  परिवार और बच्चों को काम वाली बाई के हवाले करना अगर उनके सशक्त होने का उदाहरण है तो मैं ऐसे सशक्तिकरण को नहीं मानती अगर वो अपने परिवार समाज और रिश्तों के प्रबंधन में सशक्त है उसमें शीर्ष हैं  तो निः संदेह वो मिडिया की शीर्ष महिलाओं के श्रेणी में आती है। उनकी प्राथमिकता  किस कार्य के लिए होनी चाहिए  ये  जानना आवश्यक है स्त्री की रचना पैसा कमाने के लिए हुई है क्या। ईश्वर ने स्त्री और पुरुष की रचना अलग- अलग कुछ  सोच विचार कर ही की होगी किन्तु फिर भी स्त्री पुरुष का स्थान लेने की होड़ में अपने जीवन की प्राथमिकताओं से विमुख हो प्रेम, समर्पण और संवेदना कोमलता से कोसों दूर होती पैसा कमाने में विलिप्त है.  अब एक पुरुष किसके पास जाय अपनी संघर्ष भरी थकान मिटाने, अपने मन की बात कहने,घर पर एक ग्लास पानी प्रेम पूर्वक पाने की अभिलाषा से घर जाने की लालसा क्यों रखे।  जब घर की महिला खुद घर में है ही नहीं।आप घर से बाहर काम करके ही स्मार्ट कहलायें ये जरुरी नहीं आप घर से बाहर अपनी प्रतिभा अवश्य दिखाए किन्तु अपनी प्राथमिकताओं के पश्चात् । पर  वो अपनी दुनियाँ अलग बसा रही है ।जब घर की स्त्री पत्नी ,माँ बहु घर  में है ही नहीं तो फिर बच्चों की परवरिश में कहाँ से आएंगे संस्कार के बीज। उनकी सोच में कैसे शामिल होगी पारिवारिक जीवन शैली प्रेम,सदाचरण, एक दूसरे की फ़िक्र, मानवीय मूल्य, इस  बात का जवाब मैं हर उस महिला से मांगती हूँ जो पुरुषों से आगे निकल जाने की होड़ में शामिल होने के लिए अपनी घर गृहस्थी परिवार और रिश्तों की तिलांजलि देने के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से पूर्णतः तैयार है। दरअसल  वो जिस काम के लिए बनी है उसे दरकिनार कर रही है। जाने कितने पुरुष अपनी पत्नी या माँ के हाथों के बने खाने को भूल चुके है,घर की साज सज्जा सुंदरता और स्त्री की मुस्कुराहट के साथ शाम को घर का दरवाजा खुलना अब बंद हो गया हैं। घर की दिया बत्ती आरती का चलन अब आफिस में गुजर रहा है. मज़बूरी में या फिर प्रतिस्पर्धा में। विवशता में औरत का बाहर काम करना समझ में आता है उस पर भी कभी चर्चा की जाएगी विवशता के भी कई अर्थ- कहीं दिखावा या विलासिता के जीवन की लालसा तो नहीं। यहाँ सिर्फ सवाल इस बात का हैं 'शीर्ष' पर  वर्किंग वुमन ही हो ये सरासर गलत है। जबकि उनका वर्क कुछ और ही है और वो कर कुछ और रही है । मुझे स्त्री के आगे बढ़ने से एतराज नहीं किन्तु अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ कर आगे बढ़ने वाली महिला मेरी नजर में सशक्त नहीं। फिर पुरुष का क्या काम और पुरुष एक महिला पर किस बात के लिए पूरी तरह से आश्रित रहता है जिसका कोई विकल्प नहीं ये सारी बातें कौन सोचेगा, कब सोचेगा मुझे लगता हैं एक दिन महिलायें थक जायेगी  और पुनः अपने घर की राह लेंगी उन्हें भी  सुरक्षा सम्मान और प्रेम के लिए पुरुष चाहिए होगा। परिवार से एक दूसरे के लिए प्रेम ,मिठास,आदर,और करुणा ख़त्म होने का कारण मुख्य रूप से स्त्री  है।स्त्री को ये कभी नहीं भूलना चाहिए की वो समपर्ण के लिए बनी है और पुरुष संघर्ष करने के लिए।

                  उसकी सशक्तता के पीछे उसकी विवशता न होकर एक पुरुष का उत्साह होता तो शायद ये और भी गौरव का विषय होता अक्सर विवशता और परवशता ही हौसलों को उड़ान देती हैं किन्तु जब एक पुरुष अपने साहस से एक स्त्री को स्वयं आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता हैं उसकी प्रतिभा का सम्मान करता है और इस बात का आश्वासन देता हैं की 'तुम बढ़ो आगे मैं तुम्हारे साथ हूँ' तब एक पुरुष का न सिर्फ बड़प्पन  झलकता है बल्कि प्रौढ़ता और परिपक्वता भी उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है । हमें ये कभी नहीं भूलना चाहिए की स्त्री और पुरुष का आपस में कोई प्रतिद्वंद नहीं ठीक वैसे ही जैसे आम और सेब का नहीं गुलाब और गेंदे का नहीं है। आम धारणा  के अनुरूप ये अवश्य  कह सकते हैं की एक स्त्री स्वयं अवश्य अपनी तुलना  एक दूसरी स्त्री से करे किन्तु पुरुष से अपनी तुलना करने का कोई औचित्य नहीं दोनों अपने आप में एक अलग और विशिष्ठ कृति है।निष्कर्षतः यही कहना चाहूंगी की स्त्री के सशक्त होने का कारण उनकी विवशता न होकर एक पुरुष का उत्साह और बड़प्पन होना चाहियें तभी समाज में सकारात्मक सन्देश पहुंचेगा स्त्री और पुरुष दोनों के परिप्रेक्ष्य में। ठीक वैसे ही जैसे एक पिता अपनी पुत्री को इंजीनियर या डॉक्टर खुद बनाना चाहता हैं या उसकी स्वेच्छा से वो बनना चाहती हैं , ठीक वैसे ही जैसे एक पत्नी अपने शौक से या अपने भीतर प्रतिभाओं के चलते अपने पति के सानिध्य में आगे बढ़ती है.तब उसकी सफलता के अर्थ और परिणाम अलग होते हैं जब उसकी सफलता के पीछे एक पुरुष का साथ होता है विवशता में उठाये गए कदम एक स्त्री के लिए 'अर्थ' के रूप में सफलता अवश्य दे सकते हैं किन्तु आत्मसंतुष्टि नहीं । पुरुष स्त्री  को  सम्मान जनक जीवन दें ,एक स्त्री की एक पुरुष से यही सर्वोपरि अपेक्षा रहती है।और पुरुष को एक स्त्री से सन्तुष्टिप्रद सुखद जीवन की कामना रहती है। और दोनों को ही अपने अपने कार्य क्षेत्र में सशक्त होना चाहिए तभी समाज में महिलाओं के प्रति एक पुरुष की सोच बदलेगी और समाज में परिवार रिश्तों और संबंधों  को लेकर एक सकारात्मक सन्देश पहुंचेगा। शायद इस बदलाव से अवसाद,तनाव,अकेलेपन,जैसी समस्या पर नियंत्रण भी पाया जा सकेगा फिर शायद  कोई इसका इलाज घर के बाहर नहीं तलाशेगा जब घर में समाधान उपलब्ध होगा ।
  अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर हर महिला को अनंत शुभकामनायें असंख्य भावी सफलताओं की अग्रिम शुभकामनायें। शोभा जैन 
तुलना
तुलना रुग्णता है, बहुत बड़ी रुग्णता है। प्रारंभ से ही हमें तुलना करना सिखाया जाता है। तुम्हारी मां तुम्हारी तुलना दूसरे बच्चों से करने लगती है। तुम्हारे पिता तुलना करते हैं। शिक्षक कहते हैं, "गोपाल को देखो, वह कितना अच्छा है, और तुम कुछ भी ठीक नहीं रहे हो!'
शुरुआत से ही तुम्हें कहा गया है कि स्वयं की तुलना दूसरों से करो। यह बड़ी से बड़ी रुग्णता है; यह कैंसर की तरह है जो तुम्हारी आत्मा को नष्ट किए चला जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है, और तुलना संभव नहीं है। मैं बस मैं हूं और तुम बस तुम। दुनिया में कोई नहीं है जिसके साथ तुलना की जाए। क्या तुम गेंदे की तुलना गुलाब से करते हो? तुम तुलना नहीं करते। क्या तुम आम की तुलना सेव फल से करते हो? तुम तुलना नहीं करते। तुम जानते हो कि वे असमान हैं--तुलना संभव नहीं है।
मनुष्य कोई वर्ण नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। तुम्हारे जैसा व्यक्ति पहले कभी नहीं हुआ और फिर से कभी नहीं होगा। तुम पूरी तरह से अद्वितीय हो। यह तुम्हारा विशेषाधिकार है, तुम्हारा खास हक है, जीवन का आशीर्वाद है--कि इसने तुम्हें अद्वितीय बनाया।

विवाह
विवाह को अनैतिक कहा मैंने, विवाह करने को नहीं। जो लोग प्रेम करेंगे, वे भी साथ रहना चाहेंगे। इसलिए प्रेम से जो विवाह निकलेगा, वह अनैतिक नहीं रह जाएगा। लेकिन हम उल्टा काम कर रहे हैं। हम विवाह से प्रेम निकालने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि नहीं हो सकता। विवाह तो एक बंधन है और प्रेम एक मुक्ति है। लेकिन जिनके जीवन में प्रेम आया है, वे भी साथ जीना चाहें, स्वाभाविक है। लेकिन साथ जीना उनके प्रेम की छाया ही हो। जिस दिन विवाह की संस्था नहीं होगी, उस दिन स्त्री और पुरुष साथ नहीं रहेंगे, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। सच तो मैं ऐसा कह रहा हूं कि उस दिन ही वे ठीक से साथ रह सकेंगे। अभी साथ दिखाई पड़ते हैं, साथ रहते नहीं। साथ होना ही संग होना नहीं है। पास-पास होना ही निकट होना नहीं है। जुड़े होना ही एक होना नहीं है। विवाह की संस्था को मैं अनैतिक कह रहा हूं। और विवाह की संस्था चाहेगी कि प्रेम दुनिया में न बचे। कोई भी संस्था सहज उदभावनाओं के विपरीत होती है। क्योंकि तब संस्थाएं नहीं टिक सकतीं। दो व्यक्ति जब प्रेम करते हैं, तब वह प्रेम अनूठा ही होता है। वैसा प्रेम किन्हीं दो व्यक्तियों ने कहीं किया होता है। लेकिन दो व्यक्ति जब विवाह करते हैं तब वह अनूठा नहीं होता। तब वैसा विवाह करोड़ों लोगों ने किया है। विवाह एक पुनरुक्ति है, प्रेम एक मौलिक घटना है।
------कृष्ण-स्मृति प्रवचन 7

प्रौढ़ व्यक्ति में प्रेम  ....
साधारणतया किसी से प्रेम पाने की ज़रूरत महसूस होती है। यह एक बचकानी ज़रूरत है, तुम प्रौढ़ नहीं हुए, यह एक बच्चे का भाव है।
एक बच्चा पैदा होता है। स्वभाविकत: बच्चा मां को प्रेम नहीं कर सकता, उसे नहीं मालूम कि प्रेम क्या होता है, न ही उसे पता है कि कौन मां है कौन पिता। वह पूर्णतया असहाय है। उसका अभी स्वयं के साथ एकीकरण होना है। अभी उसका स्वयं से एकात्म नहीं हुआ, अभी वह स्वयं में स्थित नहीं हुआ। वह बस एक संभावना है। मां को उसे प्रेम करना है, बाप को उसे प्रेम करना है, परिवार को उस पर प्रेम की बौछार करनी है। उसे एक ही बात समझ आती है कि सबको उसे प्रेम करना है। वह यह कभी सीखता ही नहीं कि उसे भी किसी को प्रेम करना है। अब वह बड़ा होगा, और यदि वह इस भाव से ही जुड़ा रहा कि सबने उसे ही प्रेम करना है तो वह पूरा जीवन दु:ख से पीड़ित रहेगा। उसकी देह तो बड़ी हो गई लेकिन उसका मन अप्रौढ़ रह गया है।
एक प्रौढ़ व्यक्ति वह है जिसे अपनी दूसरी ज़रूरत समझ में आ जाती है: कि अब उसे दूसरे को प्रेम करना है।

बुद्धिमानी यथास्थिति को हिलाती है..................
बुद्धिमान व्यक्ति अतीत से चिपक कर उसकी लाश को ढोता नहीं रहता|

रविवार, 6 मार्च 2016

शिवरात्रि पर विशेष –
शोभा जैन

मित्रों इस आलेख का उद्देश्य किसी की भी आस्था को क्षति या ठेस पहुँचाना नहीं  है किन्तु एक नयी  पहल की   उम्मीद अवश्य है महाशिव रात्रि के दिन आप अवश्य शिवजी कि अपनी श्रद्धानुसार पूजन आराधना करें किन्तु उस दिन को इंसान के प्रति भी एक श्रद्धा भाव को विशेष दिवस के रूप में मनायें प्रायोगिक रूप में करें आप शिवलिंग पर दूध चढ़ाने के लिए जब रखे तब साथ ही किसी गरीब भूखे बच्चे के लिए  भी भोजन या दूध अपने साथ रखे आपकी पूजन में आपको एक अलग आत्मविश्वास महसूस होगा एक आत्म संतुष्टि महसूस होगी। सामान्यतः हम सब हमारे दैनिक जीवन में इस तरह का कोई कार्य नहीं कर पाते है किन्तु ये पर्व, त्यौहार हमें परम्पराओं और आस्था को जीवंत रखने के साथ उनमें  समयानुसार नए मूल्यों को जोड़ने का, कुछ नया करने का भी एक अवसर प्रदान करते है इसलिए दिवाली के दिन सिर्फ पटाखें जलाकर लक्ष्मीजी का पूजन करना,होली के दिन एक दूसरे को रंग लगाकर त्यौहार मनाना हमारी परम्परा रही है किन्तु इस दिन हम कुछ बेहतर और अनोखा कर पाये जो दूसरों की खुशियों से जुड़ा हैं तो त्यौहार में पम्परा के साथ- साथ पीढ़ियां भी नयेपन को महसूस कर सकेंगी  हर नयी पीढ़ी हर त्यौहार में कुछ नया करेगी जो पूरी तरह निः स्वार्थ और बिना किसी अपेक्षा के लिए होगा परम्परा और पीढ़ियों में सामजस्य बैठाना ही आधुनिक समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। और इससे निः संदेह मानव के ह्रदय में इंसानियत का विस्तार होगा ।