आलेख
अकेलापन
वर्जित हैं 'साहित्य में' ....
फिर भी आदमी अकेला है....
--- शोभा जैन
साहित्य
कभी अकेला नहीं होता न साहित्य को समझने वाले कभी अकेलेपन का शिकार होते हैं
साहित्य तो झुरमुठ हैं ईश्वर प्रदत्त उन समस्त उपहारों का जिसे सहेजना बमुश्किल हो
रहा हैं फिर वो प्रकृति हो या मनुष्य जब हम चिड़िया हिरण और शेर की बातें करते हैं तो शिकारी स्वतः ही हमारी
चर्चाओं में स्थान पा लेता हैं जब हम कटी हुई लकड़ी और उसके दुःख की बातें करते हैं
तो 'पेड़' ऊँचे ऊँचे फलदार वृक्ष अपने आप अपना स्थान
निर्धारित कर लेते हैं साहित्य में किसी का भी जिक्र अकेला नहीं जब गिलहरी की
बातें होती हैं तो टहनियाँ डोलने लगती हैं साहित्य में रंग -बिरंगे फूलों की महक
तितलियों को जोड़ देती हैं भवरों का गुंजन देने लगती हैं, कितना सौन्दर्यवान हैं साहित्य का जीवन जिसमे
अकेला कोई भी नहीं कुछ भी नहीं जबकि साहित्य जन्मता जीवन के अत्यंत निजता में जिये
क्षणों में जिसे एकांत कहते हैं मानव लोक की एकांतमयी कोख से जन्मता हैं साहित्य
अकेलेपन में जन्म लेता हैं साहित्य पर साहित्य में अकेलापन वर्जित हैं .....उस
किशोर के मन की कल्पनाये उड़ान भारती हैं जब वो किसी क्षण बेहद अकेले में रचता हैं
अपने जीवन की पहली कविता माँ पर या प्रियसी पर| जन्मते वक़्त कितना अकेलापन होता
हैं उस कविता में किन्तु जब वो साहित्य बन
जाता हैं तो समाहित हो जाती हैं उसमें कई और अनुभूतियाँ किसी के लिये प्रेरणा किसी
के लिये बेहद सुंदर मार्मिक कविता .....एक बूढ़े आदमी के अकेलेपन में जन्मते हैं
उसके अनुभवों के आलेख अत्यंत निजता में जिए जीवन के अनुभव अकेलापन जन्म देता हैं
साहित्य को पर साहित्य में अकेलापन नहीं अक्षर जब शब्द बनते हैं शब्द जब
संदर्भगृहीत वाक्य बनते हैं तो उनमे साहित्य की छवी दिखाई देने लगती हैं अक्षर
अकेला चला लेकिन अर्थपूर्ण वाक्य अकेला नहीं उससे मिलती हैं कई प्रेरणाए और सीख...
साहित्य अपने साथ बहुत कुछ लेकर चलता हैं....एक चिड़ियाँ भी जब शब्दों के साहित्य
का हिस्सा बन जाती हैं तो पुरे आकाश की अनुभूति दे जाटी हैं उसके पंखो की उडान हवाओं की दिशा और जाने क्या
क्या किन्तु ये अनुभूतियों झुरमुठ सिर्फ साहित्य में .... साहित्य में जब इंसान का
जिक्र होता हैं तो उसके दुःख,उसकी संवेदनायें और
अनुभूतियाँ उसके जीवन के बेहतरीन रूप
स्वतः विचार विमर्श का हिस्सा बन जाते हैं
इसका अर्थ हम साहित्य में केवल इंसानो पर
बात नहीं कर सकते। जबकि इंसान केवल अपन
दुःख के बारे में सोचता हैं अपने सुख के बारे में बाते करता हैं. नहीं जुड़े
होते उसके शब्द कोष में अन्य नाम । अत्यंत
निजता में जिये जीवन में अकेला पाता हैं अपने दुःख में स्वयं को अपने सुख में
स्वयं को साहित्य' दुःख के आंसुओं में आनंद की अंतरधारा बनता
हैं और सुख के क्षणों में उत्सव । साहित्य जीता हैं जीवन को कभी गद्य के रूप में
कभी जीवन के काव्य कभी महाकाव्य के रूप
में किन्तु इंसान उलझे ही रहते हैं जीवन के छंद में रहस्य के आवरण में अपराध बोध
छिपता छिपाता हर दिन | जबकि जीवन न तो एक दिन की घटना हैं न एक वर्ष का कोई पड़ाव
यहाँ तो हर दिन चुनौती हैं साहित्य हर चुनोती को नए अनुभवों की द्रष्टि से देखता
हैं उसके हर दिन के कर्म में जोड़ना चाहता हैं अनुभूतियों को उत्साह को अकेलेपन से
दुकेलेपन तिकेलेपन और चोकेलेपन में बदलकर साहित्य सामाजिक
मनुष्य का मंगलविधान हैं । साहित्य का ’मनुष्य‘ कुलीनों के मानव और
मानवतावाद से भिन्न है। शायद साहित्य को ’रसास्वादन‘ कहा गया हैं जीवन को नहीं
क्योकि स्वाद को स्वाद से निकलकर उसके मर्म तक पहुँचना होता है अर्थात साहित्य के स्वाद से निकाल कर ’साहित्य के मर्म’ तक लेकिन मनुष्य स्वाद से ही नहीं उभर पाता उसी से संतुष्टि नहीं ले पाता
तो मर्म तक पहुचे कैसे । साहित्य हृदय को परदुःखकातर और संवेदनशील बनाता हैं शायद इसीलिए वो
कभी अकेला नहीं होता...मनुष्य की अपनी शर्तों पर जीवन जीने की शैली ने उसे
अमानवीय, असंवेदनशील, और अप्राकृतिक प्रव्रत्ति का बना दिया हैं जो कभी -कभी उसके
मनुष्य होने पर भी संदेह पैदा कर देता हैं | साहित्य संदेह, भ्रम और इसके उसके से
बहुत दूर सबको लेकर चलने में विश्वास रखता हैं साहित्य में शक्ति होती हैं दूसरे
के जूते में पैर डालने की तभी तो महसूस करता हैं परा दुःख इसलिए साहित्य कभी अकेला
होता |.दरअसल साहित्य मनुष्य के व्यक्तित्व और कृतित्व को मांजने का एक सशक्त
माध्यम हैं .....जो उसके जीवन के इस अकेलेपन से कोसो दूर ले जाने की क्षमता रखता
हैं ‘’इन्सान बौद्धिकता के ज्वार में भावपरायणता विमुख होता चला जा रहा हैं’’उसकी
सोच में प्रगाढ़ पार्थिवता का अभाव विकसित हो रहा हैं विकास चरम की
और अग्रसर हैं वह ‘भाषा’ पर तो काम कर रहा हैं किन्तु उसमें निहित ‘भाव’ पर
नहीं....और यही उसे अकेला करता जा रहा हैं |आधुनिक होने के भ्रम में हमारी आधुनिकता रूढ़ियों, वर्जनाओं और जर्जर
परंपराओं के विरोध में खड़ी तो है पर अपना निष्कर्ष नहीं देती अन्तस् में डूबी हुई
अनुभूति दबी छुपी हैं समाधान रहित बहस में । साहित्य कहता हैं जीवन में जटिलता भी
है, दु:ख भी, अकेलापन भी, अथाह शून्यता भी, पर इन विपदाओं का सर्व्र रागालाप नहीं है। वह कर्मयोगी है जो दुख के सामने तनकर खड़ा होता है अदम्य तत्परता के
साथ और अपने काम में व्यस्त हो जाता है चाहे दुख हो या सुख क्योंकि उसकी जिजीविषा
दृढ़ है।
जीवन के प्रति कवि त्रिलोचन के गहरे अंतर्निष्ठा का प्रमाण ये कुछ
पंक्तियाँ हैं जिसे वे जीवन के व्यापक प्रसार में देखते हैं---
संकोचों से सागर तरना
शक्य नहीं है
अगर चाहते हो तुम जीना
धक्के मारो इसी भीड़ पर, इससे
डरना
जीवन को विनष्ट करना है
उर्वर होता है जीवन भी आघातों से
विकसित होता है, बढ़ता
है उत्पातों से।
या फिर,
लडो़ बंधु हे, जैसे
रघु ने इंद्र से लडा़ था/
क्रूर देव सम्मुख मानव दृप्त खडा़ था।
साहित्य
का यही रूप इन्सान को जीवन के प्रति आस्थावान बना देता हैं कभी कवि की कविताओं से
कभी लेखक के गद्य से कभी रंगमंच के नाटक से तो कभी जीवन के उपन्यास और कहानी से
संस्मरण बनते- बनते जीवन एक पूरे साहित्य का रूप ले लेता हैं जिसमे परोक्ष रूप से
सभी विधाएँ निहित हैं इसलिए अपने जीवन को साहित्य बनाना ही जीवन का सुखमय एक मात्र
आयाम हैं साहित्य में जीवन की हर विधा हर अनुभूति अपनी शब्द शक्तियों के साथ
समाहित हैं जो जीवन को कभी अकेला नहीं करती प्रेरणा देती हैं परादुःख में स्वदुख
की अनुभूति की जीवन की कविताओं में इन्सान के मर्म को खोजती
मानवता के गहरे विश्वासी-कवि त्रिलोचन मानते हैं कि -
"उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,
नंगा है, अनजान है, कला--नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह
नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है
उसके जीवन का सोता, इतिहास
ही बता
सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से,
अपने समाज से है; दुनिया
को सपने से
अलग नहीं मानता, उसे
कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में
वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता
चला जा रहा है वह, अपने
आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़ कर, जपता है
नारायण नारायण।"
ये
पंक्तियाँ व्यर्थता में अर्थ खोजती भी नजर आती हैं और दुख-दर्दों
की हाला पीकर और भी उर्जावान होकर जीवन जीने की कहती हैं .. इसमें दुःख भी मानवता के लिये और पुनः आरम्भ भी ...दरअसल
आधुनिकता का बोध भी मानवता
के ह्रास का एक बड़ा कारण है जो सीधे तौर
पर इंगित करता हैं मानव के चरित्र के दोहरापन को और शायद इसलिए कई बार तो चरित्र के विचलन को ही
आधुनिकता का पर्याय मान लिया जाता हैं यही मानव को पंगु बना देती हैं मानवता से
जुड़ने के लिये आर्थिकता को इन्सान सर्वोपरि मनाता हैं सरप्लस पूँजी ने मानव के
सबंधों को सिर्फ़ धन-संबंधों में ही बदलने का कार्य किया है और सुख की झूठी परिभाषा
की है। साहित्य हर क्षण जाग्रत रखता हैं जमीन से जुड़े रहने के लिये\
साहित्य जीवन में आत्मीयता और सरलता सहजता का
बोध कराता हैं| बाजार और विज्ञापन
की भाषा सिर्फ व्यवसाय में इजाफ़ा दे रही हैं जीवन में नहीं । यह जीवन में सृजन, विचार और आत्मिक भाव की भाषा को हाशिए पर रख वैश्वीकरण
मनुष्य के लोकोन्मुखी प्रकृति पर ही वार कर मनुष्य के सोचने के तरीके को ही बदल रही हैं
सत्य तो यही हैं की साहित्य जन्मा मनुष्य के भीतर से हैं लोक की कोख
से जन्मा साहित्य मनुष्य को उसकी अपनी अस्मिता और ज़मीन से जोड़ता है। किन्तु
बाजार से बेजा़र होते
इस लोक समय में लूट-खसोट, छल-छद्म, हिंसा, दंभ, अहंकार, प्रदर्शन,अन्याय और उत्पीड़न से अलग मनुष्य एक प्रेममय, विलक्षण संसार की रचना करे
जिसमें मानव मूल की संवेदना जगाने का समर्थ हो ,दुनियाँ भर में सम्प्रति चल रहे
आदमी के झूठे अलगाने वाले शब्द निहत्थे और अर्थ हीन हो जाय| जिसमे आदमी को आदमी से
जोड़ने का आदमी साहस हो उसके अकेलेपन को
मांजती साहित्य की हर एक रचना उसके जीवन में निहित हो आदमी उसी साहित्य को अपने
जीवन से जोड़े जो उसी के लोक की कोख से जन्मा हैं क्योकि साहित्य न तो अकेला जन्मा न अकेला जिया हैं वो सदैव जीता हैं समय के साथ
आपने आस- पास के परिद्रश्य में इंसान की परिस्थितियों में,परिवर्तन में, किन्तु
संस्कारों में पलकर परम्पराओं का सम्मान करते हुए सिर्फ भाषा में नहीं जीता
साहित्य इसलिए साहित्य की दुनियाँ में अकेलापन वर्जित हैं उसमे निहित हैं जीवन की
बहुत सी विधाएँ जिसे ‘जीते हैं’ हम ‘इंसान’ फिर भी अकेलेपन में आज|
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