केवल स्टडी सर्किल में रहना और अपने किये गए अध्ययन को लागू करने में बहुत फर्क होता है |(भले ही सार्वजानिक रूप में नहीं )जो हम पढ़ते है और समझते है बल्कि हम जो पढ़ाते भी है उसे भी लागू करने में संकोच ही बना रहता है |उसे बिना इस भय के की हमारी मौलिकता और अनन्यता का क्या होगा उसका विस्तार करने मे स्वतंत्र बुद्धि का आग्रह नहीं होता | कभी -कभी वह विषय केवल पाठ्यक्रम तक ही सिमित रहता है उसके सूक्ष्म बिन्दुओं को प्रायोगिक रूप से लागू करना त्वरित रूप से तो संभव नहीं हो पाता| कोई भी पुस्तक क्या केवल पढ़ने अथवा पढ़ाने तक ही सिमित रखी जाय ?या फिर स्टडी सर्किल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने तक ?क्या उसे लागू करने और उस पर विमर्श करने पर विचार नहीं हो ?जिससे विचारों का आदान प्रदान भी होगा है और पुस्तक के कई ऐसे पहलू बन जाय जो विमर्श करते -करते स्वयं आत्मसात भी हो होने लगे |अक्सर हम 'विचारधारा' और 'पथ' में अपनी सीमाओं को बाँध देते है |जिसके चलते कभी -कभी कुछ अच्छे विषय और किताबें छूट जाती है |सुविख्यात भाषाविद साहित्यकार जय कुमार 'जलज' का शोध ग्रन्थ 'भाषा विज्ञान' पढ़ा तो यह विचार अधिक पुख्ता हुआ इसलिए आपके साथ साँझा किया |
लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन