लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

हम प्रति क्षण दो समानान्तर जीवन जी रहे होते हैं – एक, जो हमारे बाहर दुनियावी कोलाहल बनकर तैर रहा है, दूसरा – जो हमारे भीतर कुलबुला रहा होता है। जब इन दोनों जीवनों के मध्य असमंजस की लहरें उफान लेने लगती हैं, तो सहन करने की एक निश्चित सीमा के उपरान्त विद्रोह का अंकुर फूटता है। इस अंकुर से फूटता है जीवन का वास्तविक अर्थ और स्वयं के अस्तित्व का कारण। 

बुधवार, 6 जुलाई 2016

वही सबसे तेज चलता है, जो अकेला चलता है।
द्रोपदी शस्त्र उठा लो, अब गोविंद ना आयंगे
छोडो मेहँदी खडक संभालो, खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि, मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो,अब गोविंद ना आयेंगे |
कब तक आस लगाओगी तुम, बिक़े हुए अखबारों से,
कैसी रक्षा मांग रही हो दुशासन दरबारों से
स्वयं जो लज्जा हीन पड़े हैं वे क्या लाज बचायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आयेंगे |
कल तक केवल अँधा राजा,अब गूंगा बहरा भी है
होठ सील दिए हैं जनता के, कानों पर पहरा भी है
तुम ही कहो ये अश्रु तुम्हारे, किसको क्या समझायेंगे?
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो,अब गोविंद ना आयेंगे |


     -अनाम 
'मैं' का आतंक 

एक छोटी सी बात समुंदर को खल गई,
एक कागज की नाव मुझ पर कैसे चल गई.

शनिवार, 2 जुलाई 2016

विवाहेत्तर प्रेम और परिणाम
शादीशुदा पुरुष ,बाल बच्चों के साथ अपना पारिवारिक जीवन जीने वाले पुरुष  से प्रेम भारतीय परंपरा में नयी बात नहीं है,इसके पीछे के कारण या तो बहुत गहरे होते है या फिर उपरी तौर पर व्यावसायिक। हम यहाँ जेन्युन प्रेम की बात कर रहें है जो विवाहेत्तर प्रेम के अंतर्गत आतां है  या तो दोनों ही शादी शुदा होते है अपने जीवन के साथ या फिर कोई एक तलाक शुदा अथवा अकेला। इस प्रेम की मांगे भी नई नहीं हैं,ये भी पुरानी हैं, इस तरह के आख्यान भरे पड़े हैं।सवाल यह है कि प्रेमीयुगल प्रेम के अलावा क्या करते हैं ? क्या प्रेम उन्हें घर में अपनी पत्नी से नसीब नहीं होता या फिर पत्नी के साथ अधिकारों का वजन आपसी समझ को निरंतर हल्का करता जाता है जिसके तहत पुरुष समय के साथ -साथ वैवाहिक होकर भी एकाकी ही रहता  है ऐसा एकाकीपन जो दिखाई नहीं देता।  प्रेम का जितना महत्व है उससे ज्यादा प्रेमेतर कार्य-व्यापार का महत्व है। किन्तु ऐसे प्रेम अक्सर बीच राह  में ही दम तौड देते है। क्योकि प्रेम की शुरुआत व्यक्तिगत हो सकती है किन्तु उसको स्थायित्व पाने के लिए सामाजिक सशक्तिकरण की आवश्यकता होती है उस प्रेम को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर उसकी सामाजिक क्षमता में संवर्द्धन ही उसकी सफलता का परिचायक बनता है अन्यथा प्रेम का बीज पनपना आसान है पोषण के साथ विकसित होना दुर्लभ।   प्रेम में निवेश वही कर सकता है जो सामाजिक उत्पादन भी करता हो, प्रेम सामाजिक होता है, व्यक्तिगत नहीं। प्रेम के सामाजिक भाव में निवेश के लिए सामाजिक उत्पादन अथवा सामाजिक क्षमता बढ़ाने की जरूरत होती है। इससे प्रेम परंपरागत दायरों को तोड़कर आगे चला जाता है। पुरानी नायिकाएं प्रेम करती थीं, और उसके अलावा उनकी कोई भूमिका नहीं होती थी। प्रेम तब ही पुख्ता बनता है, अतिक्रमण करता है जब उसमें सामाजिक निवेश बढ़ाते हैं। व्यक्ति को सामाजिक उत्पादक बनाते हैं। प्रेम में सामाजिक निवेश बढ़ाने का अर्थ है प्रेम करने वाले की सामाजिक भूमिकाओं का विस्तार और विकास। समाज से दूर रहकर नहीं उनके बीच रहकर उसे स्थायित्व प्रदान करना प्रेम पैदा करता है, पैदा करने के लिए निवेश जरूरी है, आप निवेश तब ही कर पाएंगे जब पैदा करेंगे। प्रेम में उत्पादन तब ही होता है जब व्यक्ति सामाजिक तौर पर उत्पादन करे। सामाजिक उत्पादन के अभाव में प्रेम बचता नहीं है, प्रेम सूख जाता है। प्रेम के जिस रूप से हम परिचित हैं उसमें समर्पण को हमने महान बनाया है। यह प्रेम की पुंसवादी धारणा है। प्रेम को समर्पण नहीं शिरकत की जरूरत होती है। प्रेम पाने का नहीं देने का नाम है।अगर पुरुष सामाजिक रूप से प्रेम को सशक्त बनाता है तो स्त्री को भी पूर्ण समर्पण भाव से उस सशक्तिकरण को सहेज कर रखना जरुरी है विवाहेत्तर प्रेम की भी  मर्यादायें होती है उसे ओपन इंडेड समझ कर न तो उसे निभाया जा सकता है न आगे बढाया जा सकता है।  केवल समर्पण और लेने के भाव पर टिका प्रेम इकतरफा होता है। इसमें शोषण का भाव है। यह  प्रेम की मालिक और गुलाम वाली अवस्था है। इसमें शोषक-शोषित का संबंध निहित है। दरअसल प्रेम कोई उधाधि या पदवी नहीं केवल एक अनुभूति के बलबूते जीता है और जीवित रहता है उसे अधिकारों की आवश्यकता नहीं न ही किसी पद की वो केवल एक दुसरे के खूबसूरत साथ से भी जीवित रह सकता है बशर्ते आधारभूत आवश्यकतायें पूरी हो, अँधा प्रेम चार दिन का ही होता है, पुरुष सम्मान और सुरक्षा के लिए आधिकारिक रूप से उत्तरदायी न होकर भी  दायित्व को समझे और ह्रदय से  निभाये।और स्त्री उसके जीवन का स्रजन कर उसे सुकून दे। एक पुरुष को एक स्त्री से केवल सुकून की ही अपेक्षा हो सकती है..... इस प्रेम को समाज में अक्सर स्वीकार नहीं जाता किन्तु कुछ चीजें नियति पर निर्भर करती है जो मनुष्य के समझ से परे सही गलत से उपर होती है शायद इसीलिए आज विवाहेतर प्रेम संबंधो के आंकड़ों में तीव्र गति से इजाफा हुआ किन्तु ये इजाफा केवल प्रेम सम्बन्ध बनने के आंकड़े है चल कितना पाए और खड़े कितने रहे उनकी संख्या इक्की दुक्की ही है। किन्तु कुछ मिसाल भी बनते है जिन पर 'बाजी राव मस्तानी' जैसी फ़िल्में बनती है वो ऐसे ही एक प्रेम का प्रचलित प्रासंगिक उदाहरण है  ..मिसाल बनने के लिए तपना होता है ...जीवन भर का साथ सुकून भरा बिना अधिकारों के किसी के साथ जीना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। इसे केवल एक प्रेम करने वाला और अपने प्रेम में अपने आप के साथ  संघर्षरत  जीवन जीने वाला ही महसूस कर सकता है। सामाजिक द्रष्टि से भले ही उसे दूसरी पत्नी का नाम दिया जाय किन्तु सच तो ये है की वो किसी भी पद का मोहताज नहीं कोई अधिकार उसे निभाने के लिए आवश्यक नहीं वो तो मुक्त जीता है। प्रतीक्षा में की कब मिलेंगे अपनी -अपनी जिम्मेदारियों के चलते अपने लिए जीने एक साथ एक ही छत के नीचे एक ऐसे आत्मविश्वास के साथ जो शायद अब पति -पत्नी के रिश्ते में भी दिखाई नहीं देता। दिखाई देती है तो बस जिम्मेदारी जिसे निभाने के लिए दो युगल एक ही छत के नीचे एक ही कमरे में अपने चन्द्रमा को आधा और पूरा होते देखते है।  ठीक इसके विपरीत एक जीवन उस रिश्ते के साथ जो वास्तव में युगल नहीं, ना ही बिताते है रात एक कमरे में, किसी अर्द्ध और पूर्ण चन्द्र के मध्य। वो तो जीते है पूरा जीवन पूर्ण सूरज के उगने और पूर्ण सूरज के ढलने में। आधा कुछ भी नहीं सबकुछ सम्पूर्ण किन्तु समाज की नजर में अपूर्णता का शिकार। वो समाज जिसके पास न तो अपना सूरज है न अपना आधा चंदा सिर्फ वो डूबे है दूसरे की दे ले में। किन्तु ऐसे प्रेम को जीने वाले  खुश है क्योकि उन्हें चाहिए सिर्फ साथ एक दुसरे का।मुट्ठी भर समय भी उन्हें इतना कुछ दे जाता है की बहुत पाने की ख्वाहिश नहीं रहती। बिना अधिकारों के अधिकार निभाना बिना बंधन अपने आप को दायरों में बांधना  ही इस प्रेम की विजय का परिचायक होता है। दरअसल विवाहेत्तर  जीवन में प्रेम होना सामान्य बात हो गई  किन्तु सफल परिणामों तक पहुँच पाना दुष्कर ..दरअसल सत्यता के साथ के आभाव में छद्म प्रेम ज्यादा दिनों नहीं चल नहीं पाता अंततः पुरुष को पत्नी और प्रेमिका में से किसी एक का चुनाव करना ही पड़ता है  ये एक ऐसा प्रेम जिसे उजागर करने पर भी नहीं चल पाता बस इन दोनों ही परिस्थितियों  बीच से सुरक्षित होकर गुजरना ही इसके सफल परिणामों का कारण बन सकता है।और इन परिस्थितियों से सफलतापूर्वक गुजरना  आपकी जरूरत पर निर्भर करता  है की ये  प्रेम  आपकी 'जरूरत' है या फिर कुछ समय का आकर्षण या कुछ ख़राब हालातों की उपज ... आपके जीवन में किसी के आने से आपके जीवन के हालात सुधर जाये ये जरुरी नहीं किन्तु आप संभल जाय ये संभव हो सकता है... जो आपको समझ कर संभाल सके वो सशक्त विवेकी और समझदार इंसान आपकी जरूरत बन सकता है जिसके साथ बात करके आप हल्का महसूस करें वही साथी हर इंसान को अपने जीवन में चाहिए होता है  और जिसकी उपस्थिति प्रेम के रूप में भी किसी के जीवन में हो सकती है..और प्रेम के रूप में ही हो ये भी जरुरी नहीं यह रिश्ता भाई ,बहन, माँ या फिर किसी मित्र के साथ भी बन सकता है ...क्योकि इसकी महती आवश्यकता परिवार की परिधि होती है और केंद्र में आप इस रिश्ते को रखकर परिधि में अपने परिवार को लेकर चलेंगे तभी इस रिश्ते के उद्दात्त स्वरुप को बचाया जा सकता है ....अन्यथा अपनी जरूरतों के लिए परिवार के सुखों की तिलांजलि देना आपके स्वार्थी होने का परिचायक माना जायेगा ....
हिंदी साहित्य में  स्त्री आत्मकथाएँ सिर्फ व्यथा कथाएँ नहीं हैं बल्कि तमाम तरह की पितृसत्तात्मक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए स्त्री के बनने की कथाएँ हैं। इस बनने के क्रम में बहुत कुछ जर्जर मान्यताएँ टूटती हैं लेकिन जो बनती है उसे या उसके अस्तित्व को पूरी दुनिया स्वीकार करती है।

कहा गया है --संसार में औरत के मुकाबले कोई सख्तजान नहीं। बेटों को रोग-धोग व्यापे, इसे कभी छींक तक न आई। अरे... गाय मरे अभागे की, बेटी मरे सुभागे की। 
किसी भी सामाजिक प्राणी के लिए ऐसी स्थिति अभिशाप है,  जिसमें वह स्वावलंबन का भाव भूलने लगे,  क्योंकि इसके अभाव में वह अपने सामाजिक व्यक्तित्व की रक्षा नहीं कर सकता।’’
 --अर्थ जीवन की बुनियादी जरुरत है...‘‘अर्थ सामाजिक प्राणी के जीवन में कितना महत्व रखता है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। इसकी उच्श्रृंखला बहुलता में कितने दोष हैं वे अस्वीकार नहीं किए जा सकते, परंतु इसके नितांत अभाव में जो अभिशाप है वे भी उपेक्षणीय नहीं। विवश आर्थिक पराधीनता अज्ञात रुप से व्यक्ति के मानसिक तथा अन्य विकास पर ऐसा प्रभाव डालती रहती है, जो सूक्ष्म होने पर भी व्यापक तथा परिणामतः आत्मविश्वास के लिए विष के समान है।