लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

मंगलवार, 14 नवंबर 2017


प्यारे बच्चो,हमारे देश का सशक्त भविष्य और बासंती आज आप सभी को बाल दिवस की स्नेहिल शुभकामनाएँ आशीर्वाद एवं ढेर सारा प्यार  आप सभी अपने जीवन में एक सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़े और अपने सपनों को पूरा करें |-शोभा जैन 

सोमवार, 11 सितंबर 2017

कितने जतन से रखे मैंने
उस चौखट पर पाँव
मेरे जतन में थी 
वर्षों की तैयारी.. 

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

जाने क्या हैं पर्युषण पर्व -

जैन धर्म में सबसे उत्तम पर्व है पर्युषण। यह सभी पर्वों का राजा है। इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है, जिसमें तप कर कर्मों की निर्जरा कर अपनी काया को निर्मल बनाया जा सकता है।

पर्युषण पर्व को आध्यात्मिक दीवाली की भी संज्ञा दी गई है। जिस तरह दीवाली पर व्यापारी अपने संपूर्ण वर्ष का आय-व्यय का पूरा हिसाब करते हैं, गृहस्थ अपने घरों की साफ- सफाई करते हैं, ठीक उसी तरह पर्युषण पर्व के आने पर जैन धर्म को मानने वाले लोग अपने वर्ष भर के पुण्य पाप का पूरा हिसाब करते हैं। वे अपनी आत्मा पर लगे कर्म रूपी मैल की साफ-सफाई करते हैं।

पर्युषण आत्म जागरण का संदेश देता है और हमारी सोई हुई आत्मा को जगाता है। यह आत्मा द्वारा आत्मा को पहचानने की शक्ति देता है। पर्युषण का अर्थ है – ‘ परि ‘ यानी चारों ओर से , ‘ उषण ‘ यानी धर्म की आराधना। पर्युषण अर्थात आत्मा के पास बैठो और उसकी सार – संभाल करो। वर्ष भर के सांसारिक क्रिया – कलापों के कारण उसमें जो दोष चिपक गया है , उसे दूर करने का प्रयास करो। शरीर के पोषण में तो हम पूरा वर्ष व्यतीत कर देते हैं। पर्युषण के आठ दिनों में हम शरीर के राजा अर्थात आत्मा की ओर ध्यान दें।

अपने चारों ओर फैले बाहर के विषय – विकारों से मन को हटा कर अपने घर में आध्यात्मिक भावों में लीन हो जाना। यदि हम हर घड़ी हर समय अपनी आत्मा का शोधन नहीं कर सकते तो कम से कम पर्युषण के इन आठ दिनों में तो अवश्य ही करें। आठ कर्मों के निवारण के लिए साधना के ये आठ दिन जैन परंपरा में सबसे महत्वपूर्ण बन गए।
सारांश में हम यह कह सकते हैं कि इन आठ दिनों में धर्म ही जीवन का रूप ले लेता है। धर्म से समाज में सहयोग और सामाजिकता का समावेश होता है। बगैर इसके समाज का अस्तित्व संभव नहीं है। इसी से समाज , जाति और राष्ट्र में समरसता आती है और उसकी उन्नति होती है। इसी से मनुष्य का जीवन मूल्यवान बनता है।
इन दिनों साधु वर्ग के लिए पांच विशेष कर्तव्य बताए गए हैं -संवत्सरी, प्रतिक्रमण, केशलोचन, यथाशक्ति तपश्चर्या, आलोचना और क्षमायाचना। इसी तरह गृहस्थों (श्रावकों) के लिए भी कुछ विशेष कर्तव्य बताए गए हैं। इनमें मुख्य हैं -शास्त्रों का श्रवण, यथाशक्ति तप, अभयदान, सुपात्र दान, ब्रह्मचर्य का पालन, आरंभ स्मारक का त्याग, संघ की सेवा और क्षमा याचना।इसके अलावा आलस्य तथा प्रमाद का परित्याग करके धर्म आराधना और उपासना के लिए तत्पर बने रहना ही पर्युषण पर्व का मुख्य संदेश है।
                 पर्युषण एक क्षमा पर्व भी है। यह हमें क्षमा मांगने और क्षमा करने की सीख देता है। क्षमा मांगना साहस भरा काम है, न कि दुर्बलता का। क्षमा करना वीरता का काम है। पर्युषण का यह पक्ष हमारे सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को नया जीवन देता है।
संपूर्ण दुनिया में पर्युषण ही ऐसा पर्व है जो हाथ मिलाने और गले लगने का नहीं, पैरों में झुककर माफी माँगने की प्रेरणा देता है। हम सभी मिलकर इस पर्व के दस दिनों में क्षमा, मार्दव (अहंकार), आर्जव (सरल बनना), शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्रह्मचर्य ( ये ही दसलक्षण धर्म के सर्वोच्च गुण हैं। ) जो पर्युषण पर्व के रूप में आकर हमें पूरे देशव‍ासियों, प‍ारिवारिकजनों और जैन धर्मावलंबियों और प्राणी मात्र के प्रति सुख-शांति का संदेश देते हुए सभी को क्षमा करने और क्षमा माँगने की प्रेरणा देते हैं। जो व्यक्ति गलती या वैर-विरोध हो जाने पर तुरंत क्षमा माँग लेता है उसे पूरे वर्ष में एक बार नहीं, 365 बार क्षमा करने और माँगने का सौभाग्य मिल जाता है। वर्ष भर छोटे बड़ों को प्रणाम करते हैं पर एकमात्र पर्युषण पर्व ऐसा है जिसमें क्षमा पर्व के दिन सास बहू को, पिता-पुत्र को बड़े-छोटों को प्रणाम करने के लिए अंत:प्रेरित हो उठते हैं। आइए,इस क्षमा पर्व का लाभ उठाएँ। सबसे हाथ जोड़कर क्षमा माँगे

सभी को जैन पयुर्षण के क्षमावाणी पर्व पर दिल से मिच्छामी दुक्कड़म ‘उत्तम क्षमा’।
अंत में सभी को जय जिनेंद्र!

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर,
मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!
बैठ जा तू क्यों खड़ी है
क्यों नज़र तेरी गड़ी है
आह सुखिया, आज की रोटी
बनी मीठी बड़ी है

क्या मिलाया सत्य कह री?
बोल क्या हो गई बहरी?
देखना, भगवान चाहेगा
उगेगी खूब जुन्हरी

फिर मिला हम नोन-मिरची
भर सकेंगे पेट खाली
चल रही उसकी कुदाली


आँख उसने भी उठाई 
कुछ तनी, कुछ मुसकराई
रो रहा होगा लखनवा
भूख से, कह बड़बड़ाई
डॉ.शिवमंगल सिंह 'सुमन'
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।

जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं

दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।

साँसों पर अवलम्बित काया
जब चलते-चलते चूर हुई
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई

पथ के पहचाने छूट गए
पर साथ-साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर

इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।

कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल-अन्तर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर

आभारी हूँ मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।
डॉ.शिवमंगल सिंह 'सुमन'

सोमवार, 31 जुलाई 2017

आत्महत्या के विरुद्ध --

भारतीय किसान के परिप्रेक्ष्य में .....
आत्महत्या के विरुद्ध ---वे तुम्हारी आत्महत्या पर अफ़सोस नहीं करेंगे
आत्महत्या उनके लिए दार्शनिक चिंता का विषय है
वे इसकी व्याख्या में सवाल को वहीँ टांग देंगे
जिस पेड़ पर तुमने अपना फंदा डाला था
यह उनके लिए चिंता का विषय नहीं होगा
वे जानते हैं गेंहूँ की कीमत लोहे से कम है
और इस वक्त वे लोहे की खेती में व्यस्त हैं
लोहे की खेती के लिए ही उन्होंने
आदिवासी गाँवों में
सैन्य छावनी के साथ डेरा डाला है
लोहे की खेती के विरूद्ध ही
आदिवासी प्रतिघाती हुए हैं
उसी खेती के बिचड़े के लिए
उन्हें तुम्हारी जमीन भी चाहिए
तुम आत्महत्या करोगे
और उन्हें लगेगा
इस तरह तो वे गोली चलाने से बच जायेंगे
और यह उनकी रणनीतिक समझदारी होगी
वे तुम्हारी आत्महत्या पर अफ़सोस नहीं करेंगे
उन्हें सिर्फ़ प्रतिघाती हत्याओं से डर लगता है
और जब तुम प्रतिघात करोगे
तुम्हारी आत्महत्या को वे हत्याओं में बदल देंगे.

                               संग्रहित कविताओं से......

शुक्रवार, 9 जून 2017

गांधीजी का मानना था अब तक महिलाओं को पुरूष अपना खिलौना समझते रहें हैं और महिला भी इस भूमिका में संतुष्ट रही है। उन्होने जेवरात कि हथकड़ियों और बेड़ियों कि संज्ञा दी तथा कन्या-विवाह के प्रतिरोध के लिए महिलाओं को आगे आने के लिए कहा। महिलाओं कि भूमिका में गांधी जी कहते हैं- महिलाएं पुरूषों के भोग की वस्तु नहीं हैं, जीवन पाठ पर वे कर्तव्य निर्वाह के लिए संगिनी हैं, मेरा मानना है कि स्त्री आत्मत्याग की मूर्ति है, लेकिन दुर्भाग्य से आज वह यह नहीं समझ पा रही कि वह पुरुष से कितनी श्रेष्ठ है। जैसा कि टाल्सटॉय ने कहा है, वे पुरुष के सम्मोहक प्रभाव से आक्रांत है। यदि वे अहिंसा की शक्ति पहचान लें तो वे अपने को अबला कहे जाने के लिए हरगिज राजी नहीं होंगी। ( यंग इंडिया, 14-1-1932, पृ.19)
स्त्रियों के अधिकारों के बारे में गांधी जी के विचार इस प्रकार थे – “स्त्रियों के अधिकारों के सवाल पर मैं किसी तरह का समझौता स्‍वीकार नहीं कर सकता। मेरी राय में उन पर ऐसा कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए जो पुरुषों पर न लगाया गया हो। पुत्रों और कन्‍याओं में किसी तरह का कोई भेद नहीं होना चाहिए। उनके साथ पूरी समानता का व्‍यवहार होना चाहिए।”
''गांधी जी ने महिलाओं के अधिकारों की वकालत करते हुए लिखा है कि अहिंसा की नींव पर रचे गये जीवन की रचना में जितना और जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्‍य की रचना का है, उतना और वैसा ही अधिकार स्‍त्री को भी अपने भविष्‍य तय करने का है।”

गुरुवार, 8 जून 2017

“देश के बारे में लिखे गये हजारों निबन्धों में लिखा गया
पहला अमर वाक्य एक बार फिर लिखता हूँ
भारत एक कृषि प्रधान देश है
दुबारा उसे पढ़ने को जैसे ही आँखें झुकाता हूँ
तो लिखा हुआ पाता हूँ कि पिछले कुछ वर्षों में डेढ़ लाख से अधिक किसानों
ने आत्महत्या की है इस देश में।”
   ‘(इस आत्महत्या को कहाँ जोड़ूँ’ कविता से)...
                                       ---कवि राजेश जोशी

सोमवार, 5 जून 2017


हमारे दादाजी ने नदी में पानी देखा/
पिताजी ने कुए में/
हमने नल में देखा / 
बच्चों ने बोतल में /
अब उनके बच्चे कहाँ देखेंगे....????
सवाल चिंतन का है।
व्यर्थ बर्बाद न करें पानी !
 जल ही जीवन
इसे स्वच्छ एवं संचित करे

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

नीतिशतक में हमें यह जानने को मिलता है कि ‘इस जगत में निम्न (नीच) प्रकृति के लोग विघ्न-बाधाओं के भय से कोई कार्य आरम्भ ही नहीं करते हैं; मध्यम श्रेणी के लोग किसी कार्य को आरम्भ तो करते हैं, किन्तु विघ्न (या परेशानी) के आ जाने पर, वे उस कार्य को अधूरा ही छोड़ देते हैं; तथा श्रेष्ठ पुरुष बार-बार विघ्न के आने पर भी अपने कार्य को अधूरा छोड़ते नहीं; वे उसे पूर्ण (करके ही विश्राम ग्रहण) करते हैं |’
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै: प्रारभ्य विरमन्ति मध्या: |
विघ्नै: पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना: प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ||
|| भर्तृहरि, नीतिशतक २७||

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

नशा आपरेशन .............

नशा आपरेशन।।।।।।

संस्कृत में एक सूक्ति है ---अति सर्वदा वर्जयेत शराबखोरी जैसी देश की भीषण समस्या पर यह सूक्ति सबसे अधिक सही सिद्ध होती है | पूर्ण नशाबंदी के लिए के लिए युद्ध स्तर पर कार्यरत होने की नितांत आवश्यकता है | शराब ‘ शब्द अरबी भाषा का शब्द है और इस का मतलव होता है बुरा पानी . ‘शर’ अर्थात बुरा और ‘आब ‘ का अर्थ पानी | स्वतंत्रता  के ६९  वर्षों  बाद भी सरकार सफलतापूर्वक शराबबंदी लागू नहीं कर सकी है कुछ राज्यों को छोड़ दें तो । शराबबंदी के खिलाफ राजस्व के घाटे का भय  तो कभी आमदनी बढ़ने से विकास की गति तीब्र होने का लालच दिया जाता है ।मुट्‌ठी भर लोग ही बचे हैं जो नशाबंदी के विरुद्ध जोरदार आवाज या कोई कदम उठाने की क्षमता रखते हों ।क्योकि इसमें पुरुषों की अपक्षा महिलाओं की भागीदारी अधिक रहती हैं | केंद्र सरकार ने जनता से कालाधन मुक्त भारत के वादे के अनुसार नोटबंदी का ऐलान किया तो वहीं बिहार सरकार ने महिलाओं से किए अपने वादे के अनुसार पूरे प्रदेश में शराबबंदी का फैसला किया।शराबबंदी की मूल वजह प्रदेश में घरेलू हिंसा ,असहजता आदि को खत्म कर समाजिकता को बढ़ावा देना है। शराबबंदी के बाद से बिहार सरकार को करीब 4000 करोड़ का वार्षिक रूप से घाटा हो रहा है मगर परोक्ष रूप से देखे तो प्रदेश में शराबबंदी के बाद से सड़क दुर्घटना, मारपीट आदि की घटनाओं में कमी तो आई ही है। साथ ही गरीब वर्ग के लोगों की जिंदगी में राहत भी लाई है जो कि एक फायदे का सौदा है। नितीश कुमार जी  का यह कदम अभिनन्दनीय है  बिहार में शराब का प्रयोग बंद कर दिया गया है  यह कदम किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है . इस कदम से उन शराबी तथा शराब के विपणन से लाभ लेने वाले सारे लोगों का प्रारंभिक विरोध सरकार को झेलना पड़ेगा और कहीं न कहीं यह आज बिहार में परिलक्षित हो रहा है | शराब शारीरिक,मानसिक,नैतिक और आर्थिक दृष्टि से मनुष्य को बर्बाद कर देती है . शराब के नशे में मनुष्य दुराचारी बन जाता है , वहीँ चेहरा जो शराब पिने से पहले प्यारा आकर्षक ,प्रसन्न , विचारशील लगता रहता है वही शराब के आदि होने पर घृणास्पद,निकृष्ट,खूंखार,असंतुलित ,अनियंत्रित और वासनात्मक भूखे भेड़िये के सामान लगता है.
यह सभी जानते हैं की शराब हमारे देश में घरेलु हिंसा,सड़क दुर्घटना और लीवर तथा किडनी सम्बंधित बिमारियों की सबसे बड़ी वजह है. शराब गृहस्थियां बर्बाद कर देती है. शराब युवा को अकाल मृत्यु की ओर अग्रसर करता है. शराब मस्तिष्क के संचार तंत्र को धीमा कर दुर्घटनाओं का कारण बनती है, और धीरे -धीरे मनुष्य कि सोचने कि शक्ति को ख़त्म कर देती है. शराब एक मनोसक्रिय ड्रग है,जिसमें अबसादकीय का प्रभाव होता है. एक उच्च रक्त अल्कोहल सामग्री को सामान्यतः क़ानूनी मादकता माना जाता है,शराब के रोगियों में 27 प्रतिशत मस्तिष्क रोगों से 23 प्रतिशत पाचन-तंत्र के रोगों से ,26 प्रतिशत फेफड़ों के रोगों से ग्रस्त रहते हैं.शराब से जितने राजस्व की प्राप्ति होती है उससे ज्यादा धन खर्च तो शराब के कारण होने वाले दंगे -फसाद ,लड़ाई-झगडे,दुष्कर्म की रोकथाम,दुर्घटनाओं की रोकथाम,कानून व्यवस्था बनाए रखने,कार्य क्षमता की हानि,कार्य दिवसों की कमी के कारण सकल घरेलु उत्पाद में होने वाली कमी ,जेल व्यवस्था और शराब के कारण होने वाली बिमारियों की रोकथाम व उपचार पर खर्च हो जाता है.
               हमारे प्रधान मंत्री जी बिहार के मुख्यमंत्री की तरह या जिस तरह उन्होंने स्वयं गुजरात में बन्द करवायी थी उसी तरह कठोर कदम उठाकर शराब मुक्त देश घोषित करना चाहिए .उनके इस कदम से फिर से हमारा भारत सुसंस्कृत होकर ऋषि मुनि के देश हो जायेग .देश के हर नागरिक सफलता की सोपान पर चढ़ जायेगा ,देश के हर मानव पवित्र आचरण यानी क्लीन हैबिट का बन जायेगा .

                                                 ------                                       -कुछ पत्र पत्रिकाओं का समीक्षात्मक संकलन ..
आज स्त्री-विमर्श की चर्चा हर ओर सुनाई पड़ रही है। महादेवी ने इसके लिए पृष्ठभूमि बहुत पहले तैयार कर दी थी। सन्‌ १९४२ में प्रकाशित उनकी कृति ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ सही अर्थों में स्त्री-विमर्श की प्रस्तावना है जिसमें तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में नारी की दशा, दिशा एवं संघर्षों पर महादेवी ने अपनी लेखनी चलायी है।
महादेवी वर्मा की कवितओं में मन की गहनतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मर्मस्पर्श रूप में हुई है। प्रेम और श्रृंगार के भाव को मर्यादित तरीके से व्यक्त किया गया है।गीतों में तो लगता है महादेवी के मन की पीड़ा स्वतः बह पड़ी है। मानो यह पीड़ा एक ऐसी दीपशिखा है जो उनके मन में निर्धूम जला करती है और जिसकी खुशबू का अहसास हर पाठक करता है, क्योंकि यह पीड़ा केवल महादेवी की न होकर हम आप सबकी हो जाती है।

सोमवार, 13 मार्च 2017


होली के रंगभरे उत्सव पर एक रचना आप सभी के लिए 

                   रंगों वाला गाँव --

होली  के रंगों में छिपे ,जीवन के हर रूप।
जीवन सबका उत्सवमयी हो,खिले फागुनी धूप ।
इंद्र धनुष के रंगों सा, जीवन ले सबका रूप,
होली में सदभाव हो, जग का उज्ज्वल रूप ।
जीवन की यह व्यस्तता, कभी न होगी कम,
बस रंगों को नाम न दें, जीकर देखे हम ।
सुंदर और सार्थक बने रंगों सा जीवन,
 जैसे उत्सवमयी कृष्ण का मधुबन।
पुनः भूला दें ह्रदय मन से गहरा रागों द्वेष,
जैसे निश्छल थे अपने बचपन के अवशेष ।
महानगर सा एकाकी न हो, उत्सव का यह भाव,

इस होली शहर बन जाय रंगों वाला गाँव ।  

                     --शोभा जैन 

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

अक्सर हम वर्तमान के यथार्थ को ही स्वीकार करते हैं , भावी आशंकाओं को नहीं।...शोभा जैन 

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

मैं दीवार से सर टकरा के उसे तोड़ तो नहीं सकता लेकिन सिर्फ़ इसलिए संतोष करके बैठ नहीं सकता कि वह दीवार पत्थर की है और मेरे पास ताक़त नहीं है. 
- दास्तेव्य्सकी (नोट्स फॉर्म द अंडरग्राउंड)
कृतयुग का आगमन, जो बोला गया है उसे पूर्ण कीजिये ।
समस्त कालगणनाओं का अंत, एक नये कल्प का शुभारम्भ ॥

रविवार, 12 फ़रवरी 2017

                                                              अपनी बात -
स्त्री के की उन्नति में सबसे बड़ी बाधाएं समाज की रुढ़िवादी परम्पराएँ है | साहित्य में स्त्री आत्मकथाएँ सिर्फ व्यथा कथाएँ नहीं हैं बल्कि तमाम तरह की पितृसत्तात्मक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए स्त्री के बनने की कथाएँ हैं। इस बनने के क्रम में बहुत कुछ जर्जर मान्यताएँ टूटती हैं लेकिन जो बनती है उसे पहले आलोचना के साथ बाद में  उसके अस्तित्व को पूरी दुनिया स्वीकार करती है बल्कि उसके उदाहरण भी देती है ।
                         
महज़ एक दिन महसूस किये जाने वाले 'प्रेम दिवस ' पर एक कविता

        कुछ प्रीत निभा लें ..

             -शोभा जैन

चलों आओं थोड़ी सी ‘रीत’ निभा लें
कुछ कहने सुनने में ‘प्रीत’ निभा लें
कुछ ऐसा हो जो अपनों को अपनों से मिला लें  
चलों आओं थोड़ी सी रीत निभा लें
कुछ कहने सुनने में प्रीत निभा लें|
बोये बहुत हैं कांटें कुछ गुलाब अब लगा लें
चलों आओं थोड़ी रीत निभा लें
कुछ कहने सुनने में प्रीत निभा लें|
क्षमा दें उन्हें, खुद गलतियों की सजा लें
चलों आओं थोड़ी सी रीत निभा लें
कुछ कहने सुनने में प्रीत निभा लें|  
ये अभिमान,अहंकार, की सीमाएं मिटा लें
चलों आओं थोड़ी सी रीत निभा लें
कुछ कहने सुनने में प्रीत निभा लें|
स्वप्न जो बिखरे हैं उन्हें आँखों में बसा लें
चलों आओं थोड़ी सी रीत निभा लें
कुछ कहने सुनने में प्रीत निभा लें
छोड़ दुनियाँ से छाँव की उम्मीद
बस प्रेम की पनाह लें
चलों आओ थोड़ी सी रीत निभा लें
कुछ कहने सुनने में प्रीत निभा लें |


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017


अर्धनारेश्वर 
अपनी बात -- नर श्रम करके तपता है,नारी रात्रि बनकर उसे शांति प्रदान करती है|नारी विभिन्न रूपों में नर की प्रेरणा रही है |इसीलिए पुरुष को अर्धनारेश्वर की संज्ञा दी जाती है क्योकि वह स्त्री के बिना अपूर्ण है |और यही दोनों की नियति है |--शोभा जैन 

रविवार, 5 फ़रवरी 2017

- अपनी बात :- स्त्री की प्रगति में समाज की रूढ़ियाँ सबसे बड़ी बाधक है |--शोभा जैन 

गुरुवार, 26 जनवरी 2017


गणतंत्र दिवस पर आलेख 

                                  गणतंत्र दिवस पर आलेख
                                       ‘अपना गणतंत्र स्वयं रचे’
                                             --शोभा जैन


 गणतंत्र एक शब्द है किन्तु जिम्मेदारियों से भरा |अगर इसका आशय लिया जाये तो मनुष्यों के एक ऐसे समूह का दृश्य सामने आता है जो उनको नियमबद्ध होकर चलने के लिये प्रेरित करता है। कहा जाता है मनुष्य सबसे बुद्धिमान प्राणी है धरती पर शायद सबसे अधिक बुद्धिमान होने के कारण उसके ही अनियंत्रित होने की संभावना भी अधिक रहती है। विश्व के जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा है जिसे राज्य व्यवस्था की आवश्यकता है। क्यो क्योकि राज्य, संकट पड़ने पर प्रजा की मदद करता है।यह गणतंत्र का मूल सिद्धांत है पर यह एक तरह का भ्रम भी है। प्रथम अपराध करने वाले के मन में उसके परिणामों का ‘भय’ जरा भी नहीं |दूसरा याचक को न्याय मिलते -मिलते उसकी आयु ही उसका साथ छोड़ने लगती है |यह एक भ्रम ही प्रतीत होता है की  गणसमूह और उसका तंत्र व्यक्ति के जीवन को सुलभ बनाता है |धन, पद और अर्थ के शिखर पुरुषों का समूह गणतंत्र को अपने अनुसार प्रभावित करते हैं जबकि आम इंसान केवल शासित है। अगर आदमी को अकेले होने के सत्य का अहसास हो तो वह कभी इस भ्रामक गणतंत्र की संगत न करे। न्याय के नाम पर केवल नियमो की पंक्ति है और अंतिम पंक्ति तक पहुँचते -पहुँचते वह स्वयं को ही अपराधी महसूस करने लगता है |कहने का अर्थ वह वह इस गणतंत्र का प्रयोक्ता है न कि स्वामी। स्वामित्व का केवल भ्रम है मनुष्य को अपना जीवन संघर्ष अकेले ही करना है। ऐसे में वह अपने साथ गणसमूह और उसके तंत्र के साथ होने का भ्रम पाल सकता है पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। निरर्थक संवादों से गणतंत्र को स्वयं से संचालित होने का यह भ्रम हम अनेक लोगों में दिन प्रतिदिन बढ़ते क्रम में देख रहे हैं ।नियमों का लचीलापन ही अपराध करने का साहस बढाता है क्योकि अपराध सिद्ध होते- होते इतना लम्बा समय निकल जाता है की याचक का आक्रोश स्वतः ही ठंडा पड़ जाता है किन्तु जो उसने खोया इन वर्षों में उसकी भरपाई उसे कभी कोई न्याय व्यवस्था नहीं कर पाती |बदले में उसे जो मिलता है वो केवल सहनशीलता का पाठ |सहनशीलता, सरलता और कर्तव्यनिष्ठ से ही वह अपना जीवन संवार सकते हैं।जिनके पास ये नहीं हैं वो आक्रामक तरीके से उभरकर सामने आते है अनावश्यक और निरर्थक बहसें और वादविवाद कर स्वयं को सही साबित करने का प्रयास करते हैं |मेरा ऐसा मानना है गणतंत्र से ज्यादा शीघ्र और संतुष्टिप्रद न्याय ‘आध्यात्म’ देता है| इसलिए अपना गणतंत्र स्वयं बनायें |अगर आदमी को अकेले होने के और स्वयं से द्वंद करने के सत्य का अहसास हो तो वह कभी इस भ्रामक गणतंत्र की संगत न करे।मेरी दृष्टि में गणतंत्र केवल एक भ्रम ही तो है |देश को चलाने के लिए क्या सचमुच  एक सविंधान और कानून की आवश्यकता है अगर वास्तव में हाँ तो क्या कानून व्यस्था अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में खरा उतर रही है |सच को सच साबित करने में १० वर्ष लग गए |तलाकशुदा स्त्री को न्याय पाने में कम से कम ६-७  वर्ष लग गए| मदद के रूप में उधार दिये गए पैसों को वापस पाने में ५  वर्ष लग गए|इन वर्षों में जो खोया उसकी कीमत कभी नहीं मिल पायेगी| गणतंत्र झुण्ड हो सकता है आदमी का किन्तु झुण्ड का होना कितना सार्थक होता है ये कहने की आवश्यकता नहीं | शायद गणतंत्र भ्रम ही है |न्याय केवल आप खुद से लड़कर ही पा सकते हो लोगो के झुण्ड द्वारा बनायीं गई नीतियाँ और नियम राज्यव्यवस्था चलाने के लिए उचित हो सकते है जिसके तहत व्यावसायिक अनुबंध राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर के विमर्श हो सकते हैं किन्तु एक आम आदमी का जीवन चलाने में ये खरा नहीं उतर पाया | ये केवल नियमों की पंक्ति बनकर रह गया हैं शायद ये भ्रम ही आदमी को शिक्षित होने का आभास कराता है की उसे ‘गणतंत्र’ का आभास है वो एक लोकतान्त्रिक देश का नागरिक है भले ही वो उसकी जरूरतों की सही समय पर पूर्ति न कर सके | इसीलिए शायद आदमी को अपना गणतंत्र स्वयं रचना चाहिए स्वयं को नियमों में बांधे न की नियमों पर चलने पर विवश होना पड़े |उसका रचा गणतंत्र उसे न सिर्फ स्वयं पर जीत हासिल करवाएगा बल्कि उसके भीतर एक कर्मठ सहनशील व्यक्तित्व  का निर्माण भी करेगा |
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गुरुवार, 5 जनवरी 2017


जो दिया तुमने .......
   -- शोभा जैन 

पाया तुममें, सार्थक जीवन, आत्मचेतना, गहन चिन्तन|
भीड़ से अलग खुद को, बौना पाया हर दुःख को |
व्यथा ‘उसकी’ स्वयं जीकर, दिया उसका स्वयं ‘मूल्य’
तुम्ही शिक्षक, तुम्ही प्रेरणा,साथी तुम अतुल्य|
करुणा तुम, संवेदन तुम, ‘उन्मुक्त’ रहो वो ‘बंधन’ तुम
सोच में इत्मिनान तुम, खुद में एक सायबान तुम,
छोड़ दुनियाँ से छाँव की उम्मीद,खुद अपनी पहचान तुम |
मेरे अन्तस् की ‘धूप’ मेरी पूरी दुनियाँ, मेरा गाँव ‘तुम’|
मेरे सृजन के शिखर ‘तुम’ मौन ‘मैं’ शब्द मुखर ‘तुम’
नेपथ्य में उजास ‘तुम’, मेरी धरती मेरा आकाश ‘तुम’ |
मेरे प्रतिबिम्ब का आकार तुम,एक अनोखा संसार ‘तुम’
तुम ही आलोक, मेरी देह, मेरा प्राण तुम,
मैं ‘जीवंत’ मेरा ‘निर्वाण’ ‘तुम’|
इस बात को कितने संकोच से स्वीकार करते हो,
बेपरवाह बाधाएं पार करते हो |
अब शेष नहीं कुछ भी,
जो टीस बने मन की|
ये शब्द आत्माभिव्यक्ति है ‘मेरे’ ह्रदय और मन की|
न कह सकूँ न रख सकूँ, है यही ‘निष्कर्ष’ अब,

जो दिया ‘तुमने’ बस उसे सार्थक कर सकूं |