लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

पिता जब नाराज होता है तो आसमान के एक छोर से दूसरे छोर तक कड़क जाती है बिजली, हिलने... लगती है जिंदगी की बुनियाद। पिता जब टूटता है तो टूट जाती हैं जाने कितनी उम्मीदें, पिता जब हारता है तो पराजित होने लगती हैं खुशियां। 

रविवार, 18 दिसंबर 2016

विपदायें आते ही,
खुलकर तन जाता है ;
हटते ही
चुपचाप सिमट ढीला होता है ;
वर्षा से बचकर
कोने में कहीं टिका दो,
प्यार एक छाता है
आश्रय देता है, गीला होता है.

-----सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

गांवों के शहरीकरण की बजाय  गांवों का शहरों में सिर्फ स्थानान्तरण होना ,  गांव और ग्रामीण से शहर और नगर की ओर संक्रमण की  यंत्रणा बनकर रह गई है |
मेरी प्रिय कविताओं में से एक महाकवि नरेश मेहता जी की -

हम अनिकेतन
हम निकेतन, हम अनिकेतन
हम तो रमते राम हमारा क्या घर, क्या दर, कैसा वेतन?

अब तक इतनी योंही काटी, अब क्या सीखें नव परिपाटी
कौन बनाए आज घरौंदा हाथों चुन-चुन कंकड़ माटी
ठाट फकीराना है अपना वाघांबर सोहे अपने तन?
हम निकेतन, हम अनिकेतन

देखे महल, झोंपड़े देखे, देखे हास-विलास मज़े के
संग्रह के सब विग्रह देखे, जँचे नहीं कुछ अपने लेखे
लालच लगा कभी पर हिय में मच न सका शोणित-उद्वेलन!
हम निकेतन, हम अनिकेतन

हम जो भटके अब तक दर-दर, अब क्या खाक बनाएँगे घर
हमने देखा सदन बने हैं लोगों का अपनापन लेकर
हम क्यों सने ईंट-गारे में हम क्यों बने व्यर्थ में बेमन?
हम निकेतन, हम अनिकेतन

ठहरे अगर किसीके दर पर कुछ शरमाकर कुछ सकुचाकर
तो दरबान कह उठा, बाबा, आगे जो देखा कोई घर
हम रमता बनकर बिचरे पर हमें भिक्षु समझे जग के जन!
हम निकेतन, हम अनिकेतन

१ अगस्त २००५
वह हमेशा जागती रहती है
नदी की तरह
वह हमेशा खड़ी रहती है
पहाड़ की तरह
वह हमेशा चलती रहती है
हवा की तरह
वह अपने भीतर कभी
अपनी ऋतुऍं
नहीं देख पाती है
वह अपनी ही नदी में
कभी नही नहा पाती है
'ओरत' अपने ही स्‍वाद को
कभी नहीं चख पाती है।
---संकलित 

चंद्रकांत देवताले की कविता 

औरत


वह औरत 
आकाश पृथ्‍वी के बीच
कबसे कपड़े पछीट रही है?
पछीट रही है शताब्‍दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्‍प की गुहा में
कितना आटा गूँथ रही है?
गूँथ रही है टनों आटा
असंख्‍य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है
एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को 
फटक रही है
एक औरत
वक़्‍त की नदी में
दोपहर के पत्‍थर से
शताब्‍दियाँ हो गयीं 
एड़ी घिस रही है
एक औरत अनंत पृथ्‍वी को 
अपने स्‍तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत अपने सिर पर
घास का गठ्‌ठर रखे
कबसे धरती को नापती ही जा रही है
एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास 
निर्वसन जागती
शताब्‍दियों से सोयी है।
एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव 
जाने कब से सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

★ श्री सम्मेत शिखर – एक महान तीर्थ ★


सम्मेत शिखर और शत्रुंजय तीर्थ भारतवर्ष के सम्पूर्ण जैन तीर्थों में प्रमुख हैं । पश्चिमी भारत के शिखर पर शत्रुंजय तीर्थ है और पूर्वी भारत में सम्मेत शिखर । किसी तीर्थकर के किसी एक कल्याणक से जब कोई भूमि तीर्थ बन जाया करती हैं, तब उस तीर्थ की पावनता और शक्ति का आकलन करना तो मानव बुद्धि के लिए असम्भव होगा, जहाँ बीस – बीस तीर्थंकरों ने निर्वाण की अखण्ड ज्योति जलाई हो । निर्वाण की पहली ज्योति अष्टापद में जली थी, जहाँ प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव भगवान निर्वाण को प्राप्त हुए थे, लेकिन आज हमारे लिए वह तीर्थ अदृश्य हैं । ऎसी स्थिति में सम्मेत शिखर वह तीर्थ हैं, जिसे ह्म निर्वाण की आदि ज्योति का शिखर कह सकते हैं । निर्वाण की सर्वोच्च ज्योति ही सम्मेत शिखर है । तीर्थकर ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीर को छोडकर जैन धर्म के बीस तीर्थकरों ने यहाँ निर्वाण पद को प्राप्त किया ।
सम्मेत शिखर वह सशक्त स्थान है, जहाँ बीस बीस तीर्थकरों ने देहोत्सर्ग किया है । पर्वत शिखरों पर देहोत्सर्ग करने की जैनों में अपनी सिद्धान्त – सिद्ध परम्परा रही है । समाधि का यह रुप वास्तव में निरवद्द संल्लेखना है । प्रश्न स्वाभाविक है कि बीस बीस तीर्थकरों ने अपने देहोत्सर्ग एवं अन्तिम समाधि के लिए सम्मेत शिखर को ही क्यों चुना ? हर तीर्थकर ने अपनी चैतन्य विद्युत धारा से उस शिखर को चार्ज किया है । एक तीर्थकर ने वहाँ अपनी समाधि लगाई उनके हजारों वर्षों बाद हुए दूसरे तीर्थंकर और दूसरे के बाद तीसरे, यों पूरे बीस तीर्थकरों ने वहाँ निर्वाण प्राप्त किया । एक तीर्थकर की विद्युत धारा क्षीण होती, तब दूसरे तीर्थकर ने पुन: उसे अभिसंचित कर दिया । लाखों वर्षों से वह स्थान स्पन्दित, जागॄत और अभिसंचित होता रहा । चेतना कॊ ज्योति वहाँ सदा अखण्ड बनी रही । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सम्मेत शिखर कितना अद्‍भूत, अनूठा, जागृत पुण्य क्षेत्र है ।
अरिहंतों का निर्वाण स्थल - निश्चित रुप से यह मानवजाति के लिए सौभाग्य की बात है कि उसे अपने आराध्य के निर्वाण स्थल, दर्शन – पूजन के लिए उपलब्ध है । सम्मेत शिखर कि महिमा का मूल कारण यहाँ के चन्दन के बगीचे, चमत्कारी भोमियाजी या पर्वत की ऊँचाई या तीर्थकर पुरुषों का विचरण ही नहीं हैं, क्योंकि यह सब कुछ तो अन्यत्र भी उपलब्ध हो सकता है । सम्मेत शिखर इसलिए महिमावंत है क्योंकि यहाँ एक नहीं बीस बीस तीर्थंकरों ने जीवन का चरम लक्ष्य – मोक्ष प्राप्त किया है । यह शिखर मात्र पत्थरों का समूह नहीं हैं अपितु आत्म – विजेता अरिहंतों के ज्योतिर्मय मदिंरों का समूह है । अष्टापद, चम्पापुरी, गिरनार या पावापुरी इस चार तीर्थों को छोडकर सम्पूर्ण विश्व में सम्मेत शिखर ही तो एक पावन धाम है जहाँ तीर्थकर आत्माओं ने निर्वाण प्राप्त किया है । सम्पूर्ण विश्व में किसी भी धर्म का कोई भी ऎसा तीर्थ नहीं जहाँ उस धर्म के बीस बीस आराध्य पुरुषॊं ने निएवाण प्राप्त किया हो । तीर्थकर आदिनाथ, वासुपूज्य स्वामी, नेमिनाथ भगवान और महावीर स्वामी को छॊडकर शेष बीस तीर्थकर – अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनंदन स्वामी, सुमतिनाथ, पद्‍मप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभु, सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसिव्रत स्वामी, नमिनाथ एवं पार्श्वनाथ भगवान ने यहाँ आकर जीवन की संध्या वेला पूर्ण की एवं परमपद मोक्ष प्राप्त किया ।
सम्मेत शिखर का शाब्दिक अर्थ - सम्मेत शिखर जा सीधा सा अर्थ है – ’समता का शिखर’, लेकिन इससे भी अधिक प्रभावशाली इसका अर्थ यह है कि समता के शिखर पुरुषों ने अपने श्रीचरणों का संस्पर्श कर जिसे पवित्र और पावन किया हो, समता के शिखर पुरुष जहाँ समवेत रुप में रहे हों, व्वह सम्मेत शिखर है । सम्मेत शिखर का प्राचीन नाम भी समवेत ही था । सम्मेत शब्द दो पदों से बना है – सम्म+एत । अर्थ हुआ, सम्यक् भाव को प्राप्त सुन्दर और प्रशक्त पर्वत । सम्मेत शिखर का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख ज्ञाताधर्म कथा नामक आगम के मल्लिजिन अध्ययन में हुआ है । वहाँ तीर्थकर मल्लिनाथ के निर्वाण का वर्णन करते हुए इस पर्वत के लिए दो शब्दों का प्रयोग किया गया है – ’सम्मेय पव्वए’ और ’सम्मेय सेल सिहरे’ । कल्पसूत्र के पार्श्वनाथ भगवान के चरित्र में तीर्थकर पार्श्व के निर्वाण का वर्णन करते हुए सम्मेत – शिखर के लिए ’सम्मेय सेल सिहरंमि’ शब्द अभिहित है । मध्यकालिन साहित्य में सम्मेत शिखर के लिए समिदिगिरि या समाधिगिरि नाम भी प्राप्त होता है । स्थानीय जनता इस पर्वत को पारसनाथ हिल नाम से सम्बोधित करती है । यह उल्लेखनीय है कि इस तीर्थ को श्वेताम्बर परम्परा में सम्मेत शिखर कहा जाता है और दिगम्बर परम्परा में सम्मेद शिखर कहा जाता है । इसका मुख्य कारण परम्परा भेद नहीं, अपितु प्राचीन भाषा के भेद का है । श्वेताम्बर परम्परा में अर्धमागधी प्राकृत प्रचलित है पुर दिगम्बर परम्परा में सौरसेनी । जैसा कि भाषाविद जानते हैं कि सौरसेनी प्राकृत में त का द प्रयोग हो जाता है । इसलिए दिगम्बर परम्परा में सम्मेत को सम्मेद कहा जाता है ।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

                                        अपनी बात 

हमारी सभ्यता ने, हमारे आधुनिक संसाधनों ने,हमारी आक्षाओं और स्वप्नों ने हमें एक निरीह भीड़ बना दिया|मनुष्य की विडम्बना ही यही है की भीड़ हो जाने  के बाद वह व्यवस्था की उपेक्षा का शिकार होता चला जाता है|
कोई भी भाषा, जब वह लोकप्रिय हो जाती है, तब वह सभी के लिए आदरणीय एवं ग्राह्य हो जाती है।

रविवार, 27 नवंबर 2016

अपनी बात

परित्यक्ता /तलाकशुदा, स्त्री का जीवन एक पुनरावलोकन

--शोभा जैन
जिस विषय में आज हम  बात करने का रहे है  उस विषय पर बात करना भारतीय परंपरा में कोई उचित नहीं समझता बल्कि इस विषय के पक्ष में बात रखने वाले को अक्सर गलत ही करार दिया जाता है विषय विवाह विच्छेद या तलाक । क्योंकि मनु के अनुसार कन्या एक बार ही दान दी जाती है।  किन्तु जैसे -जैसे समय बदल रहा है ज्ञान के विकास के साथ अपेक्षायें भी उतनी ही तीव्रता से अपना स्थान मजबूत कर रहीं हैं  वैसे ही  ये स्थितियां भी परिवर्तित हो गयी|  विवाह विच्छेद की इस प्रथा के चलते कई घर बर्बाद होने से बच भी गए है| इसलिए इसे कुप्रथा की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता  ।प्राचीन काल में आधुनिक युग की विवाह विच्छेद की धारणा के समान  कोई व्यवस्था नहीं थी क्योंकि हिन्दू धर्म में विवाह एक ऐसा संस्कार था जिसमें आत्मा का आत्मा से ऐसा संबंध हो जाता था कि इस भौतिक हाड़-मांस के शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी संभवतः यह संबंध अटूट रहता था । यदि किन्हीं कारणों से पति अपनी पत्नी का त्याग कर देता था तो उसको उसके भरण-पोषण की व्यवस्था करनी पड़ती थी ।किन्तु आज शिक्षित समाज और बदलते परिवेश ने स्त्री और पुरुष दोनों का द्रष्टिकोण बदल दिया है विवाह के अर्थ में दोनों एक दूसरे की अपेक्षाओं पर परस्पर खरे उतरें यही इसका आधार है । हालाँकि कोई भी विवाह विच्छेद छोटे मोटे या पचा सकने वाले कारणों पर संभव नहीं।  निः संदेह इसके पीछे कोई एक नहीं बहुत से गंभीर कारण होते है जिसे समाज के हर एक व्यक्ति को समझाया नहीं जा सकता ।.. दुर्भाग्य की बात तो ये है की ये स्थिति कभी- कभी परिवार के सदस्य और रिश्ते नाते वाले भी नहीं समझते फिर समाज तो बहुत दूर है ।अक्सर तलाकशुदा महिला को ससुराल से बेदखल होने के बाद अपने मायके को भी छोड़ना होता है और किसी नयी जगह पर अपना गुजर बसर करना पड़ता है जहाँ उसके अतीत के बारे में कोई गलत टिप्पड़ी न कर सके जहाँ उसके अतीत से कोई परिचित ही न हो । क्योकि परित्यक्ता या तलाकशुदा महिलाओं को शिक्षित समाज में भी ज्यादातर लोगो के तिरस्कार, हीन भावना, असहयोग या दुरूपयोग होने का सामना करना पड़ता है कभी -कभी एसी महिलाओं को  चरित्रहीन बोलने से भी नहीं चूंकते  है ये शिक्षित समाज  के लोग । कभी कभी तो स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है की विवाह विच्छेद के बाद स्त्री का अकेले रहना अभिशाप बन जाता है |उसे यह कहकर मानसिक प्रताड़ना दी जाती है –जिसका एक पति नहीं उसे कई पति पैदा हो जाते है |या फिर उसे कुछ ऐसे समझोतों को स्वीकार करने पर विवश होना पड़ता है जिसके एवज में उसे अपने जीवन की सुरक्षा मिल सके| इसे मुझे स्पष्ट तौर पर लिखने की आवश्यकता नहीं | तलाकशुदा स्त्री के लिए सम्मान पाने की  ख्वाहिश रखना तो जैसे धरती पर स्वर्ग की अपेक्षा रखने के बराबर है | मैंने ये महसूस किया है की तलाकशुदा महिलाओं को अपने ही परिवार के मांगलिक कार्यों में दूर रखने के बहाने ढूंढे जाते है जैसे –अगर तलाक बड़ी बहन का हुआ है और छोटी बहन का वैवाहिक कार्यक्रम हो तो अक्सर उसे बाहर रहने की ही सलाह दी जाती है| इतना ही नहीं उसे साज श्रृंगार करने का भी हक नहीं उसे यह कहकर मानसिक प्रताड़ना दी जाती है की ये किसको दिखाने के लिए सज संवर रही है |
सोचने वाली बात ये है की क्या तलाकशुदा पुरुष का जीवन भी ऐसा ही होता है  विशेषतः उन परिस्थितियों में जब वैवाहिक जीवन में कोई संतान न हो |जिस प्रकार स्त्री भावनात्मक स्तर पर तहस महस हो जाती है तलाकशुदा होने की वजह से अपनी आत्मा को मार लेती है एक पुरुष के जीवन में क्या बदलाव आता है इस पर काम करना होगा क्या वो भी स्त्री की तरह प्रताड़ित जीवन जीता है? क्या उसे भी अपने जीवन में अनचाहे समझोतो के दौर से गुजरना पड़ता है? क्या उसकी मान प्रतिष्ठता को भी उसी तरह क्षति पहुँचती है जैसी स्त्री को ?क्या समाज उसे भी स्त्री की तरह एक आसामान्य पुरुष की नजरों से देखता है ?मेरे विचार में इस पर काम करने की जरूरत है|
 |ये जानना बेहद जरुरी है की परित्यक्ता /तलाकशुदा स्त्रियों का शेष जीवन केवल  प्रताड़ित होने के लिए ही बना है या पुरुष भी इस सामाजिक ओछेपन का शिकार होते है |
  साथ ही इस संवेदनहीनता का परिचय देने वाली प्रताड़ना  का स्थाई समाधान क्या है ? क़ानूनी रूप से स्त्री और पुरुष के जीवन की इस अवस्था के लिए उनकी विशेष सुरक्षा सम्मान के लिए कोई नियम या अधिकार बनाने की आवश्यकता है क्या?
   अलग से इसलिए क्योकि हमारा  समाज और समाज के बुद्धिजीवी  लोग  ही इन्हें सामान्य इंसान की तरह देखते ही नहीं | बेचारेपन की की आड़ में समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले ही उनके साथ एक ऐसे  व्यवहार का परिचय देते है जिससे उनकी मानवता पर भी संदेह होता है | ये केवल एक परित्यक्ता ही अपनी जुबान से बयां कर  सकती है |अंत में बस यही अपेक्षा समाज से  की स्त्री  को स्त्री  समझो |एक ओरत को  केवल दो ही चीजें चाहिए सुरक्षा और सम्मान | फिर चाहे वो कुंवारी हो, विवाहित हो या फिर तलाकशुदा |और एक स्त्री को स्त्री समझ लेना ही एक सभ्य और  शिक्षित समाज  होने का परिचायक है |
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सोमवार, 14 नवंबर 2016

                                                                       अपनी बात
                           ....................वृद्धाश्रम और युवा पीढ़ी एक पुनरावलोकन..........
                                                 ....................शोभा जैन...............................



कभी कभी कुछ उम्मीदों को छोड़ देना ही अंतिम विकल्प होता है विशेषतः तब जब उम्मीद अपने से उम्र और अनुभवों में किसी बड़े से हो,और तब भी जब उम्मीद अपने जीवन के लिए नहीं अपितु उनके जीवन को आसान बनाने के लिए कोई बेहतर सहयोग भरे परामर्श से जुडी हो |ऐसी उम्मीद को कभी -कभी अपने ह्रदय  को कठोर कर छोड़ देना ही अंतिम विकल्प होता है इसलिए नहीं की आप अब परवाह नहीं करते बल्कि इसलिए की वे बड़े खुद को लेकर चिंतनशील नहीं, बेपरवाह है वो शायद आपसे सहयोग तो लेना चाहते है किन्तु उनके परामर्शानुसार।  जो कहीं न कहीं पीढियों के मध्य नकारात्मकता के साथ गहरे  फांसले पैदा करने लगता है जिससे  समाज को ये सन्देश जाता है की बच्चे  सुनते नहीं या साथ नहीं देते| किन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है |दरअसल बच्चे माता -पिता की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर रहते है किन्तु बड़ों को भी समयानुसार खुद को अपडेट कर बच्चों के साथ सामंजस्य स्थापित कर उन्हें उनके [माता -पिता ]जीवन के  निर्णय लेने की न सिर्फ स्वतंत्रता देनी चाहिए बल्कि उनके निर्णयों का सम्मान भी करना चाहिए |कहने का अर्थ बच्चों को सिर्फ अपनी जिम्मेदारी नहीं थोपे  बल्कि सहर्ष उन्हें निर्णय लेने के अधिकारों का भी हस्तांतरण करें तब शायद हमारे देश में वृद्धाश्रम की जरुरत ही महसूस न हो |दरअसल ऐसे मे दो ही स्थितियाँ हो सकती है या तो बच्चे भी अपने जीवन के संघर्ष के दौर से गुजर रहे होते है छोटी मोटी नोकरी से अपना घर खर्च चला रहे होते है और उन्हें इस संघर्ष  के साथ माता -पिता की जिम्मेदारी भी उठाना  है।
  या फिर  कभी -कभी बच्चे उस उम्र में अपने पिता से भी आगे निकल जाते है जिस उम्र में पिता शायद उतने सक्षम नहीं थे जितनी उनकी संतान।  निः संदेह इसका श्रेय उस  सन्तान के परिश्रम शिद्दत और जस्बे के साथ  माता -पिता को भी उतना ही जाता है। अब इन दोनों ही स्थितियों में माता -पिता को बच्चो की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन न हो इस बात को  ध्यान रखते हुए उनके साथ रहने की इच्छा रखनी चाहिए न की अपने हिसाब से उनके साथ  रहने की ख्वाहिश।  समय के साथ घर का मुखिया बदलता है किन्तु व्यक्ति के दर्जे  के साथ समय भी बदलता हैं माता -पिता इस भावनात्मक विचार को थोड़ा गहराई से लें और समझे तो  कोई भी पुत्र अपने माता -पिता को भला क्यों अपने साथ नहीं रखना चाहेगा। अपवादों की बात छोड़ दें,  फिर भी मेरा अनुभव यही कहता है वृद्धाश्रम में बुजुर्ग माता -पिता बच्चों के दुर्व्यवहार के चलते कम किन्तु अपनी खुद की कुछ आदतों और परिवर्तन को सहर्ष न स्वीकारने के चलते आते है। दुनियाँ का शायद ही ऐसा कोई युवा दंपत्ति होगा जो ये नहीं चाहता की वो अपने माता -पिता को अपनी उपलब्धियों का स्वाद चखाए और अपने बच्चों को दादा दादी की छत्र छाया में रखे जिससे वो हमारी परम्पराओं और संस्कारों को उसी रूप में समझ सके जिस रूप में वो है..  और ये कार्य घर के बड़े बुजुर्ग से बेहतर कोई नहीं कर सकता। भले ही  आर्थिक रूप से सक्षम हो या मध्यम वर्गीय संघर्षरत दंपत्ति, दोनों की ही सोच में ये बात किस स्ट्रीम लेवल  में जाकर  उपजती होगी की माता -पिता को साथ रखने से घर के खर्च बड़ जायेंगे अव्यवस्था बन जाएगी  दरअसल ये  सोच कमजोर आर्थिक स्थिति से कहीं अधिक माता -पिता के जिद्दी स्वभाव के चलते अधिक उपजती है किसी भी  संतान के मन में...  किन्तु दोष अक्सर युवा पीढ़ी को ही दिया जाता है की आज की युवा पीढ़ी माता -पिता को घर से वृद्धाश्रम भेज रही है किन्तु इसके मूल बिंदु और जड़ों पर कार्य करें तो कारण कुछ और भी हो सकते है अपवादों को छोड़ दें तो ।ये आलेख मैंने कुछ प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर लिखा है दुःख होता है जब माता -पिता बच्चों के साथ रहने की इच्छा से ज्यादा अपने मुताबित अपना जीवन बसर करने का दबाव उन पर बनाते है उनके निर्णयों में बार -बार हस्तक्षेप कर उनके मनोबल पर अंकुश लगाते है।या तो एक समझदार माता -पिता अपने बुढ़ापे की व्यवस्था इतनी मजबूत कर ले की उन्हें कभी भी अपनी संतान पर विशेषतः आर्थिक रूप से आश्रित  रहना ही ना पड़े फिर संतान से रिश्ते ता उम्र मधुर बने रहेंगे क्योकि अक्सर पैसा ही रिश्तों में फासले पैदा करता है।  या फिर अगर संतान के साथ रहने का सुख भोगना है तो समय के बदलाव के साथ अपनी आदतों में भी थोडा सा बदलाव बनता है और युवा पीढ़ी भी अपने माता -पिता के समर्पण का सम्मान करें क्योकि हो सकता है आपका पेट भरने के लिए माँ कई रातें  भूखी रही हो ये भी हो सकता है माता -पिता घर में मिठाई केवल इसलिए लाते थे की उनका बच्चा मिठाई क्या होती है ये समझ सके जबकि उन्होंने तो कभी उसका स्वाद चखा ही नहीं मैं ऐसे कई बुजुर्ग माता -पिता से परिचित हूँ जिन्होंने खुद कभी काजू बादाम नहीं चखा लेकिन अपने बच्चों को हर रोज बादाम भिंगोकर दी ताकि उनके बच्चे की आँखे लम्बे समय तक तंदरुस्त रह सके भले ही  उनकी आंखे जवाब दे चुकी हो... ये भी हो सकता है असंख्य पिता ने कभी दफ्तर से छुट्टी ही न ली हो केवल इसलिए की उनकी एक दिन की तनख्वा नहीं कट जाये... माँ ने कई रातें पिता की नाईट ड्यूटी और दिन सिलाई मशीन पर गुजारा हो पिता ने अपना सारा जीवन साईकल पर निकाला केवल इसलिए की उनका बेटा अच्छे कालेज में दाखिला ले सके उसकी ट्यूशन की फीस जुटाई जा सके वो एम.बी.ए.या इंजीनियरिंग कर सके ये सब शायद सिर्फ इसलिए की उनकी संतान वो सब कर पाये जो वो नहीं कर सके कम से कम एक मजदूर या श्रमिक बनने से उपर के सपने वो अपने बेटे के लिए देखता है और उन सपनों में माता -पिता स्वयं को जीते है ।कभी -कभी उनके हालात बयां करने लायक स्थिति में भी नहीं होते कभी माँ की हथेलियों की किसी ने देखा है चर्म से अधिक धारियां दिखाई देंगी जो शायद ये महसूस करवा दे की माँ ने तो कभी साबुन सोडा तेल इस्तेमाल ही नहीं किया..लेकिन मुझे दिया एक लम्बा चौड़ा बाथरूम नहाने के लिए जिसमें वो सारी  सुविधाएँ जिसका उन्हें शायाद ठीक तरह से इस्तेमाल करना ही नहीं आता जिसके बिना मेरा आज काम ही नहीं चलता ...
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मंगलवार, 8 नवंबर 2016

                                                                 अपनी बात 
                                                                 शोभा जैन 
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भारत सरकार ने  अपनी दूरदर्शिता का एक और अविस्मर्णीय परिचय दिया है 500 और 1000 के नोटों पर पाबन्दी लगाने का एतिहासिक फैसला करके काले धन पर लगाम लगाने और जाली नोटों के प्रसार पर पाबंदी लगाने का एक शानदार कदम उठाया है। पड़ोसी मुल्क 500 और 1000 के जाली नोट का इस्तेमाल कर  देश की अर्थव्यवस्था पर प्रहार कर रहे थे इन बड़े नोटों को बंद करने से टैक्स से बचने वालों, वित्तीय अपराधियों, आतंकियों के आर्थिक नेटवर्क और भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सकेगी। दरअसल ग्राहक भी खरीद का बिल न लेकर परोक्ष रूप से  काले धन को बढ़ावा दे रहे थे। इन पर रोक लगने से देश की अर्थव्यवस्था पारदर्शी होगी, सरकार के राजस्व में वृद्धि होगी और बाजार में तरलता आएगी चूँकि आम आदमी और हमारा श्रमिक वर्ग कालेधन जैसी समस्या से सीधे तौर पर इत्तेफाक नहीं रखता विशेषकर वो अशिक्षित वर्ग जो रोज रोटी के लिए अथक परिश्रम कर  अपनी छोटी सी जीविका साधन पर निर्भर रहते है उन्हें शायद आज ये बात थोड़ी असुविधाजनक प्रतीत हो किन्तु सरकार के इस कदम से भावी रणनीति के तहत सबसे ज्यादा लाभ जब उन्हें मिलेगा तब इस फैसले को ऐसा वर्ग सहजता से स्वीकार पायेगा ये एक ऐसा निर्णय है जिससे आम आदमी की कई आधारभूत समस्याओं का आने वाले समय में बड़ा समाधान निकल कर सामने आयेगा उनमें से एक मंहगाई है जिसकी मार से कोई भी अछूता नहीं । इस बात को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता की सरकार के इस फैसले से कई छोटी -छोटी प्यारी गुल्लकें प्रभावित होंगी किन्तु अक्सर वर्तमान में थोड़ी असुविधा बेहतर भविष्य के रास्ते भी खोलती है अतः समग्र रूप में सरकार के इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए।।।।

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शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

                                                                        अपनी बात
                                                                         शोभा जैन

अक्सर स्त्री को अपनी बौद्धिकता स्थापित करने में बहुत लम्बा संघर्ष करना पड़ता है |ये आधुनिक युग में नहीं अपितु वैदिक काल से ही होता चला आया है |इसके पीछे कारण इतना गहरा है की शायद इसे कोई भी स्त्री सहजता से स्वीकार ही न कर पाये खासतौर पर आज की शिक्षित नारी जिसके ज्ञान का विस्तार अपरिहार्य हो रहा है |एक स्त्री होते हुए भी मैं यही कहूँगी की कहीं  स्त्री  अपने भीतर अपने ही विकल्प तो नहीं खोज रही |गनीमत है की  खोज अभी स्त्री की  अपनी सीमाओं में है अभी तक एक  पुरुष के पास स्त्री का कोई विकल्प मौजूद  नहीं है | किन्तु जिस तरह, जिस गति से,जिस रूप में  स्त्री स्वयं को अब स्थापित कर रही है निः संदेह पुरुष को स्वयं को  स्त्री विहीन जीवन के लिए तैयार करना होगा दरअसल स्त्री की पुरुषों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर चलने की दौड़ इतने तीव्र हो चुकी है की वो अब रुकना ही नहीं चाहती अपनी संवेदनाओं को दबा छुपा बहला फुसलाकर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहित है उसे घर गृहस्थी परिवार रिश्ते समर्पण से अब मोह नहीं वो आज की नारी है उसके लिए शायद शिक्षित होने की परिभाषा देहरी के बाहर होने के अर्थ में निहित है |शिक्षित नारी शायद घर की शोभा नहीं बन सकती वो किसी कंपनी में डायरेक्टर या फिर सी. ई. ओ. के पद पर ही अच्छी  लगती है इन्ही अर्थों में अग्रसर  रहा है नारी समाज |क्या अब वो स्त्री कभी नहीं मिल पायेगी जिसके प्रभाव के चलते पुरुष घर जल्दी आने को प्रयासरत रहता था |या फिर अपने मन की बात बताने को आतुर व्याकुल | क्या शिक्षित नारी संवेदनहीन हो गई है या फिर आज की नारी का  'अस्तित्व' ही उसके जीवन का केंद्र बन गया है जिसकी परिधि में पुरुष अकेला चक्कर काट रहा है |
                                                           अपनी बात
                                                             शोभा जैन
मनः स्थिति का हमारे जीवन में बहुत अहम स्थान होता है |कभी कभी हमारी मनः स्थिती हमें बेहद गंभीर होने जैसा आभास देती है जिसके तहत हम कभी कभी दूसरों की समस्याओं को समझने की कोशिश करते है या फिर संभव प्रयास करने का विचार करते है |कभी कभी हम पारिवारिक मतभेदों को भूलकर सबके प्रति प्रेम भाव महसूस करते है |या फिर कभी कभी सबसे दूर रहना या सबकुछ व्यर्थ सा प्रतीत होता है |दोनों ही स्थितियाँ मनः स्थिति पर निर्भर करती है |किन्तु ऐसे समय में कुछ बातों का लाभ अवश्य लेना चाहिए शायद उससे आपके भीतर की नकारात्मकता निराशा में कमी आ जाय |दरअसल ये मनः स्थिति कभी कभी किसी अच्छे माहोल की वजह से या फिर किसी की अच्छी बात से प्रेरित होकर या फिर किसी दूसरे को अच्छा करते देखकर हमारे भीतर जन्मती है ठीक इसके विपरीत मनः स्थिति का नकारात्मक होना भी माहोल,संगत और द्र्श्यगत अवस्था पर निर्भर करता है |किन्तु जब भी किसी के लिए कुछ अच्छा करने की मनः स्थिति बने या फिर कुछ भी रचनात्मक करने का मन करें तो फिर चाहे वो किसी ऐसे व्यक्ति से बात करने का हो जिससे कभी आपके व्यवहार खाराब हो गए हो या फिर खटास उत्पन्न हो गई है तो आपका वो अच्छा मुड आपके भीतर की सकारात्मकता में इजाफा कर आपको एक कदम और आगे बढ़ाएगा किसी अच्छे काम के लिए  |और सामने वाले के प्रति उदार व्यक्तित्व का भी उदाहरण प्रस्तुत करेगा |या फिर ऐसे समय में किसी ऐसे व्यक्ति की मदद करें जिसे आप अक्सर परेशानियों से घिरा देखते है किन्तु हर रोज उसे नजरअंदाज कर देते है अपनी स्वयं की समस्याओं के चलते |कभी -कभी आपका मुड आपेसे  वो करवा देता है जो आसामान्य आसाधारण होता है किन्तु लाभदायक |किन्तु जब आपकी मनः स्थित सबसे दूर रहने की महसूस हो रही हो या फिर सब कुछ व्यर्थ प्रतीत हो रहा है तो उस समय केवल एक ही कार्य करना उचित होगा की स्वयं पर संयम रख इस बात को बार -बार अपने भीतर धारण करें की आज आपकी मनः स्थिति ख़राब है नकारात्मक है आपसे कुछ भी गलत करवा सकती है इसलिए मुझे शांत रहना है कहने का तात्पर्य आपको कारण पता है की आपकी मनः स्थिति अभी सही नहीं है ऐसे में किसी भी प्रकार का संवाद या व्यवहार न करते हुए इसके बदलने के लिए प्रयास करने शुरू कर दें कुछ अच्छा पढ़े या फिर किसी ऐसे इंसान के साथ समय बिताएं जो आपकी मनः स्थिति की नकारात्मकता का प्रकोप भी शालीनता और शांति से वहन कर सके माता और पत्नी इसका अच्छा विकल्प हो सकते है इसके अतिरिक्त कोई करीबी मित्र जो आपकी कमियों से भी पूरी तरह वाकिफ हो जो आपको  चुपचाप सुन सके  |कभी कभी गुबार निकाल देने से भी इंसान हल्कापन महसूस करता है लेकिन निकले किस पर यही दुविधा है सबकी क्योकि अक्सर  ये विवाद या झगड़े का रूप ग्रहण कर लेता है इसलिए ऐसे इंसान का चुनाव बहुत सोच समझ कर करें |बहुत कम लोगो को ऐसे साथी नसीब होते है जो उनके प्रकोप का शिकार होने के लिए भी स्वयं को झोंक दे अब तो पत्नियाँ भी स्थिति का सामना करने में असफल साबित होने लगी है क्योकि वे खुद अपनी ही परेशानियों से बाहर नहीं आ पाती |पति महाशय को क्या सुनेगी और समझेगी |ज्ञान का विस्तार और स्वतंत्र  नारी की  आत्म निर्भरता के चलते अब पुरुष यह अपेक्षा शायद एक स्त्री से नहीं रख पा रहा है क्योकि स्त्री ने तो अब अपनी अलग सलग दुनियाँ बसानी शुरू कर दी है 'आज की शिक्षित नारी के नाम पर' | अब घर में ओरत मिलती ही नहीं है आज की नारी पुरुष से कंधे से कन्धा मिलाने वाली है |गलती से जो दिन भर घर में रहती है उनकी अपनी परेशानियों और शिकायतों की लिस्ट कभी कम ही नहीं होती शाम को घर आते आते वो खुद ही इतनी थक जाती है की पुरुष अपनी थकान में उसकी थकान महसूस करने लगता है उसकी मनः स्थिति को देखकर मुड को भापकर और फिर यही मनः स्थिति जब लम्बे समय तक चलती है तो आदमी बाहर तलाशता है अपने गुबार को बहार लाने के तरीके |स्त्री और पुरुष दोनों की ही अपनी अपनी मनः स्थिति समय समय पर बदलती है किन्तु इसका प्रबंधन दोनों ही अलग -अलग तरीके से करते है एक दूसरे के साथ नहीं कुछ बाहर जाकर |कुछ गलत तरीकों से गलत सोच को क्रियान्वित कर देते है |जबकि मनः स्थिति क्षणिक है स्थाई नहीं अच्छी और बुरी दोनों ही, किन्तु उसके प्रतिफल लम्बे समय तक चलने वाले होते है ये कभी न भूलें |












                                                  अपनी बात
                                                   शोभा जैन

कभी कभी हम अपनी मानसिकता के इस कदर शिकार हो जाते है की हम किसी दूसरे की बात को समझने की क्षमता ही खो देते है हम केवल वही सुनते है जो हम सुनना चाहते है भले ही वो अनुचित या अनुपयोगी हो |किन्तु किसी बात का वैचारिक सैलाब  कभी -कभी इस कदर मानसिकता पर हावी हो जाता है की सही को गलत और गलत को सही दिखाई देने लगता है |हम वही देखते है जो हम देखना चाहते है |अपनी शैल से बाहर आकर दूसरे पहलु से अवगत होना ही नहीं चाहते |अक्सर ऐसे लोगो को जिद्दी माना जाता है किन्तु जिद में अगर समझदारी या बुद्धिमानी हो तो काम की |जो आप सोचते हो या जो आपके विचारों में चलता है वही सही हो ये जरुरी नहीं |हमारे भीतर विचारों का सैलाब होता है हमकों उसमें से एक -एक लहर की परत खोलनी होती है फिर चिन्तन के योग्य विषयों का चुनाव करना पड़ता है सारे ही विचार चिन्तन का विषय नहीं होते |अक्सर विचारों में अधिक उलझने वाले सही और गलत का फर्क नहीं समझ पाते और हर उस सोच को जो उनके मन में चल रही होती है उसे ही पुख्ता सच समझकर निर्णय ले लेते है |कहने का तात्पर्य विचार तो अथाह हमारे दिमाग में आते है किन्तु चिन्तन का विषय हमें चुनना पड़ता है उस चिन्तन से फिर निष्कर्ष निकलकर सामने आना चाहिए विचारों से कभी भी निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता |
                                                                अपनी बात
                                                                शोभा जैन
जीवन में बहुत बार कुछ ऐसा घटित होता है जिसका आभास आपको पहले से ही  होता है की इसका परिणाम यही होगा |किन्तु उसे रोक पाना या विराम दे पाना आपके वश में नहीं होता फलस्वरूप आप कभी- कभी अपने आँखों के सामने वो होता देखते हो जो आप नहीं देखना चाहते थे |अक्सर कुछ पारिवारिक निर्णयों में प्रतिफल स्वरुप यही मिलता है तब जब कोई सही सलाह देने के साथ सहयोग भी देने को तत्पर है किन्तु सहयोग लेने वाला अपने उम्र, अनुभवों और स्वाभिमान के चलते सही होने के बावजूद भी उस निर्णय को बिना किसी संकोच स्वीकारने को तैयार नहीं| या फिर निर्णय को ओपचारिक तौर पर मानने को तो तैयार है[आदरस्वरुप सामने वाले की बात रखने के लिए ] किन्तु उसके क्रियान्वयन के [एग्ज्क्युशन ]समय उसमें अपना हस्तक्षेप निरंतर बनाये रखना या स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने पर विवश करने जैसी स्थिति पैदा कर दी जाती है जिससे निर्णय और सहयोग देने वाला स्वतः ही पीछे हट जाता है या फिर स्वयं ही अपने  निर्णय को गलत करार दे देता है |कहने का तात्पर्य केवल इतना सा है की अगर आप किसी को कोई जिम्मेदारी सौंपते है तो फिर उसे स्वतंत्रता पूर्ण समय -समय पर निर्णय लेने के अधिकार भी देवे |केवल जिम्म्मेदारियाँ सौपने से 'कर्ता' को सिर्फ निराशा ही हाथ लगती है क्योकि उस जिम्मेदारी से जुड़े प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष छोटे छोटे और बड़े -बड़े अहम फैसलों के लिए वो किसी दूसरे निर्णायक पर निर्भर रहता है जो उसके मनोबल को कम करता है |साथ 'कर्ता' के मन में इस भाव को भी जन्म देता है की इतना ही दिमाग था पहले ही खुद कर लेते अब मैं कर रहा हूँ /रही हूँ / तो ऊँगली कर रहें है |अतः जिम्मेदारियों के साथ अधिकारों का भी हस्तांतरण  होंवे फिर उसमें हस्तक्षेप न करें अगर अपनी बात रखें भी तो केवल एक परामर्श के तौर पर उसे माना ही जायेगा इस अपेक्षा को अपने मस्तिष्क से निकाल फेंके अन्यथा कभी -कभी आप एक अच्छा  'सहयोगी' भी खो देते है  |

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

                                                             अपनी बात 
                                                            शोभा जैन
किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिए साधन कौन से अपनाये जा रहे है ये उस परिवर्तन का भविष्य और छवी दोनों का निर्धारण कर देता है |इंसान दो तरह का जीवन जीता है एक सामाजिक  दूसरा व्यक्तिगत | इसलिए परिवर्तन के लिए जो साधन वो व्यक्तिगत जीवन के लिए अपनाता है अक्सर सामाजिक जीवन में नहीं |चाहे फिर वो बात हिंसा और अहिंसा से भी क्यों न जुड़ी हो |

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

 इंसान जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार उसके साथ व्यवहार  करते हैं।अपने व्यवहार के प्रति सजग और शब्दों के प्रति संयमित रहें। 
जीवन की सच्चाईयों को भगवद गीता खुद में संजोए है. अगर  गीता के इन श्लोकों को अपने जीवन में उतार लें तो शायद  कभी असफ़लता का मुँह  न  देखना पड़े......
हर आदमी का जीवन बसर होता है
शोर से अधिक एकांत में असर होता है
भागता है हर पल वो सुकून की तलाश में
बस अपने से ही बेखबर होता है
कर बैठता है नादानियाँ किसी मौड़ पर
जिक्र उसका घर -घर होता है
उपलब्धियाँ वो नहीं दे पाती जो,
आलोचना में जो असर होता है
       -------शोभा जैन 

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

जहाँ वृक्ष पर खिलते हैं नारी आकृति वाले 'नारीलता' फूल....

      इसकी सत्यता पर एक बार विचार अवश्य करें ..



प्रकृति के कई रंग हैं। कई बार प्रकृति कुछ ऐसे अजूबे भी उत्पन्न करती है कि उन पर विश्वास करना मुश्किल होता है, ठीक वैसे ही जैसे परियों की कहानियाँ। इसी प्रकार बचपन में हम अक्सर सुना करते थे कि गूलर का फूल होता है, पर वह रात्रि को खिलता है और उसे कोई देख नहीं सकता। इसी तर्ज पर ’गूलर का फूल’ होना जैसी एक कहावत भी है। जिसका इस्तेमाल तब किया जाता है जब हमारा कोई परिचित एक लंबे समय बाद आँखों से ओझल रहने पर अचानक प्रकट होता है। ऐसी न जाने कितनी किंवदंतियाँ और बातें हैं, जिनके बारे में शत-प्रतिशत दावा करना मुश्किल होता है, पर यही तो हमारी उत्सुकता व रोचकता को बढ़ाते हैं। अक्सर अपने आस-पास हम पेड़-पौधों को तमाम देवी-देवताओं या जीवों की आकृति रूप में देखते हैं। हममें से कितनों ने कस्तूरी मृग देखे हैं, पर कस्तूरी खुशबू के बारे में अक्सर सुनते रहते हैं।

प्रकृति का एक ऐसा ही अजूबा है- ’नारीलता फूल’। नारी की सुदरता का बखान करने के लिए कई बार उसकी तुलना फूलों से की जाती है, पर यहाँ तो बकायदा नारी-आकृति फूल के रूप में पल्लवित-पुष्पित होती है। कहा जाता है कि यह एक दुर्लभ फूल है जो 20 साल के अंतराल पर खिलता है। यह भारत के हिमालय और श्रीलंका तथा थाईलैंड में पाए जाने वाले एक पेड़ में खिलता है। हिमालय में इसे इसके आकार के कारण नारीलता फूल कहा जाता है। जब यह फूल खिलता है तो पूरे पेड़ पर चारों तरफ नारी-आकृति वाले यह फूल लटके रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी ने उन पेड़ों पर ढेर सारी गुडि़या लटका दी हों। वाकई नारी-आकृति वाला यह फूल दुर्लभ एवं प्रकृति की अनमोल कलाकारी है।


यही कारण है कि नारीलता फूल सदैव चर्चा में रहा है। यू-ट्यूब, फेसबुक और गूगल तक पर लोग इसके बारे में चर्चा कर रहे हैं और इसे खोज रहे हैं। कुछेक लोगों का तो ये भी मानना है कि यह किसी इंसान की हरकत है जिसने तमाम गुडि़यों को वृक्ष पर लटका दिया है, तो कुछेक इसे डिजिटल टेक्नालाजी से जोड़-तोड़ की कला बताते हैं। सच क्या है, यह किसी को नहीं पता। आखिर 20 साल का अंतराल कम नहीं होता है। पर जो भी हो प्रकृति की अद्भुत कलाकारी के हमने कई रंग देखे हैं और यह भी उसी में से एक हो तो आश्चर्य नहीं।

    जानकारी आकांशा यादव --शब्द शिखर 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

जब तक "सत्य " घर से बाहर निकलता है.......!
तब तक " झूठ " आधी दुनिया घूम लेता है...!! 
आलेख -                
                  कितने मासूम ये दीये....

                              शोभा जैन


                                                       
                                                                                   
भारत का सबसे भव्य माने जाना वाला पर्व ‘दीपावली’ जिसकी भव्यता को पूर्णता देते हैं ये मिट्टी के  दिये | भारतीय संस्कृति की परम्पराओं में जिस तरह स्वास्तिक,कलश और शंख को महत्वपूर्ण माना गया है उसी तरह दीये भी इसी परंपरा का एक अहम हिस्सा हैं | ये मिट्टी के दीये भारतीय संस्कृति में हमें अपने जीवन से अज्ञान को दूर कर पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का सन्देश भी देते हैं कितने मासूम होते होंगे वो हाथ, कितनी शिद्द्त होती होगी उनकों आकार देने वाले दोनों हाथों में जो प्रज्वलित होने पर इनकी शोभा चार गुनी बढ़ा देते है | पर जरुरी नहीं हमारे त्योहार को भव्य बनाने वाले इन हाथों के घर की दिवाली भी उतनी ही भव्य होती होगी |अब  इस बदलते परिवेश में इन जलते दीयों का रुदन सुनाई देने लगा है जिन दो हाथों के सामंजस्य से इन दीयों को आकार मिलता है वही दो हाथ इस तपती चिलचिलाती धूप में अपनी और इशारा कर बुलाते है एक सही खरीदार को उसी मासूमियत से जिस मासूमियत से इन्हें आकार में ढाला गया |दिये की  टोकरी में रखा प्रत्येक दिया टोकरी के बाहर झांक रहा है ताक रहा है दिवाली के भीड़ भरे बाजार में कि कोई  साहेबा बिना भाव ताव किये इस मासूम से बच्चे  को उसकी मासूमियत की कीमत दे जाय दीये की मासूमियत भी बिल्कुल वैसी ही जैसी उसे तपती धूप में बेचने वाली किशोरी  की  | लोग आते है भाव पूछकर चले जाते है उन पर तराशी गई मासूमियत से भरी बनावट और सुन्दरता, रंग रोगन का पारिश्रमिक भी उन्हें सही समय नहीं मिल पाता | कभी- कभी दिवाली आकर चली भी जाती है  और हाथ में रह जाती है महज़ कुछ चिल्लरें|  फिर भी दिये करते है इन्तजार अगली दिवाली का की हम इस टोकरी से बाहर आयेगे कोई साहेबा हम मे से किसी एक को अपने हाथ में लेकर उसी मासूमियत से देखेगी जिस मासूमियत से उन्हें बनाने वाले ने उन्हें अपनी  कल्पना में उकेरा था और उस कल्पना को साकार कर लाया इस बाज़ार में बेचने के लिए | दिये करते हैं इन्तजार आएगी कोई साहेबा और उठाकर देखेगी दिये के ढेर में एक साबुत से साफ़ सुधरे दीये को,  आजू बाजू घुमाकर उसे चारों और से देखेगी,  देखेगी उसकी बनावट को , उसकी उस गहराई को जिसमें तेल भरा जायेगा, ‘दिये’ की ‘गहराई’ निर्धारित करेगी वो अँधेरे में कब तक जलेगा , साहेबा देखेगी उसका तल, दिये का विस्तार, उसमें तराशी गई  चारों और सीडीनुमा कंगूरे वाली डिजाइन और वो सिरा जिसमें कपास की बत्ती निरंतर जलने के लिए अपना विराम लेगी केवल एक ही नहीं चार सिरे भी एक दिये में समा गए जिसमें चार बत्तियां एक साथ रोशन करेगी एक दिये को|  उन सिरों की गहराई इतनी सुंदर की बत्ती खुद ठहर कर जलने को आतुर हो जाय| है कोई ऐसा खरीदार इन मासूम दीयों का जो समझ सके इनका आकार ? बनावट? और विस्तार ? है कोई जो समझ सके  इनके सिरों में छिपी गहराई?  इसके तल में छिपी दृढ़ता,  इसके बनने से लेकर बाज़ार में  बिक जाने तक की व्यथा? कितने मासूम ये ‘दीये’ ढूँढ रहें  है किसी ऐसे खरीदार को| जो समझ सके इसके आकार प्रकार को |कितने मासूम ये ‘दिये’ |इन्हें जलाते नहीं है हम, ये तो अपनी ही आग में जलते है ‘कितने मासूम ये दिये’ |
                    अंत में किसी रचनाकार की कुछ पंक्तियाँ ----
अपना साया भी अंधेरों में साथ देता नहीं,
बनके साथ चलते है ये मिट्टी के दीये|
कभी आँगन,कभी मरघट,कभी समाधी पर,
किसी की याद में जलते है ये मिट्टी के दीये |
कितना स्वार्थी है जमाना  जलाता है इन्हें,
सिसकियाँ तक नहीं भरतें हैं ये मिट्टी के दीये |

……………………………………………………………………………………
जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है और जो जल्दी अविचारपूर्वक निर्णय लेने के आदी हो जाते हैं, वे उसे जानने से वंचित ही रह जाते हैं।"—

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016


--ठन्डे आदमी की सोच 
         - शोभा जैन 




जब तक आपको यह ज्ञात न हो जाय की आप किस उद्द्देश्य की पूर्ति के  लिए बने  है तब तक सुकून से जीने की चेष्टा करना व्यर्थ है ..संक्षेप में कहें तो प्रतिपल आपको आत्मबोध होते रहना चाहिए ...क्योकि दुनियाँ का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए बना है समय ईश्वर ने सबको एक समान दिया है उसकी उपयोगिता आपके भविष्य का निर्धारण करती है ...हमारा अतीत और वर्तमान दोनों का निचोड़ हमारा मार्गदर्शन करता है आपका कुछ भी किया व्यर्थ नहीं जाता बशर्ते उसका उपयोग खाद के रूप में किया जाय ..दुनियाँ के सारे ही लोग महान 'दार्शनिक' नहीं बन सकते किन्तु 'चिन्तन' की प्रवृत्ति इंसान को आत्मबोध के लिए प्रेरित करती है ...कोशिश इस बात के लिए की जानी चाहिए की हर रोज एक आम इंसान की तरह अन्न को पचाना है या अन्न से उर्जा का निर्माण करना है ....अपने विचार और कर्म के मध्य संतुलन सेतु में चिन्तन की अहम भूमिका होती है ...ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है चिन्तन फिर चाहे किसी छोटे से कार्य को प्रारंभ करने के पूर्व ही क्यों न किया गया हो जैसे -भले ही गृहणी का रोटी बेलना, करछी से सब्जी चालना या फिर लेखक का कलम से पहला शब्द लिखना ये तीनों ही कार्य एक चिंतनशील व्यक्ति बहुत सोच विचार कर करेगा जिसके परिणाम उसके कार्य में स्पष्ट झलकेंगे ये सत्य है विचार मंथन  कभी गलत परिणाम नहीं देगा ....अक्सर ऐसे लोगो को 'ठंडा इंसान' कहकर व्यंगात्मक रूप से संबोधन दिया जाता है क्योकि वो किसी भी कार्य की शुरुआत करने में इतना अधिक सोचते विचारते और निर्णय लेने में असीम धैर्य का परिचय भी देते है इस वजह से कई बार चीजें छूट भी जाती है ..अर्थात किसी चीज की शुरुआत ही नहीं हो पाती क्योकि  आम इंसान की भागने की प्रवृत्ति और शीघ्र हाथ का काम निबटाने की आदत उसे ऐसे चिंतक लोगो से स्वतः ही दूर कर देती है.....किन्तु किसी भी कार्य के समस्त पहलुओं पर विचार मंथन कर उसके परिणाम और दुष्परिणाम दोनों के लिए मानसिक तैयारी ही सफल व्यक्ति  का  परिचय बनती  है दरअसल ऐसे में मानव की स्थिति के हर पहलु को छूना होता है ...और मानसिक तैयारी वक़्त लेती है ...किसी भी कार्य को आज के द्रष्टिकोण से नहीं बल्कि भविष्य के नजरिये से तैयार करना ही दूरदर्शिता का परिचायक होता है अक्सर कुछ निर्णय  वर्तमान में ठेस पहुंचाते है  किन्तु एक सुद्रण भविष्य की नीव रख देते है...अतः इंसान को भविष्य को केंद्र में रखकर अपने वर्तमान की परिधि में  अपने निर्णयों और योजनाओं का क्रियान्वयन कर समाज में एक ठन्डे किन्तु बुद्धिमान शख्सियत की छवी के रूप में स्वयं को स्थापित करना चाहिए  जिससे दूसरे भी आपका अनुसरण कर सके .. हो सकता  है ऐसा करने से आप कई सुनहरे अवसरों से हाथ धो बैठे किन्तु जो हाथ लगेगा वो आजीवन आपके साथ होगा ,एक संतुष्टि और सुकून के साथ बिना किसी जोखिम के ..... [यहाँ युवाओं के लिए एक बात अवश्य लिखी जायेगी की अवसरों के पीछे नहीं भागे बल्कि स्वयं अवसर बनाये स्वनिर्मित अवसर आपके जीवन में  विरासत का काम करेंगे  वो विरासत जो आपने स्वयं बनाई है जो आज आपकी अमूल्य धरोहर होगी जिसे आप भावी पीढ़ी के हाथों सोंप सकेंगे ]
      इस आलेख में मेरे अपने व्यक्तिगत अनुभवों की भरमार है इसे लिखने में मैंने बेहद सुकून का अनुभव किया कारण एक मात्र की इसे लिखने से पहले जिया गया है इस जीने ने मेरा मनोबल बढाया फिर मुझे लगा क्यों न इस अनुभव को अपनों के साथ बांटा जाय शायद किसी के काम आ जाय .......
      साभार -

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

कूड़े जैसे ढेर.....








भोजन की तलाश में गाँव से शहर आने वाले मजबूर लोग भीख में रोटी चावल की उम्मीद नहीं करते थे, वे भीख में बस चावलकी माड़ी मांगते थे। प्रेमेन्द्र लिखते हैं, 
'शहर की सड़कों पर देखें हैं,
 कुछ अजीब जीव/
बिल्कुल इंसानों जैसे/या,
 कि इंसानौं जैसे नहीं/
मानों उनके व्यंग्य चित्र, विद्रूप विकृत!/
फिर भी वे हिलते डुलते हैं बतियाते हैं, और
सड़क किनारे कूड़े जैसे ढेर बनाते हैं/
जूठन के कूड़ेदानों पर, बैठे हांफते/और माड़ी मांगते।'

रविवार, 9 अक्तूबर 2016

अच्छी किताबें,
और
अच्छे लोग
तुरंत समझ में नहीं आते,
उन्हें पढ़ना पड़ता है....

बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

मेहनत से उठा हूँ, मेहनत का दर्द जानता हूँ,
आसमाँ से ज्यादा जमीं की कद्र जानता हूँ।
लचीला पेड़ था जो झेल गया आँधिया,
मैं मगरूर दरख्तों का हश्र जानता हूँ।
छोटे से बडा बनना आसाँ नहीं होता,
जिन्दगी में कितना जरुरी है सब्र जानता हूँ।
मेहनत बढ़ी तो किस्मत भी बढ़ चली,
छालों में छिपी लकीरों का असर जानता हूँ।
कुछ पाया पर अपना कुछ नहीं माना,
क्योंकि आखिरी ठिकाना मेरा मिटटी का घर अपना जानता हूँ 
बेवक़्त, बेवजह, बेहिसाब मुस्कुरा देता हूँ,
आधे दुश्मनो को तो यूँ ही हरा देता हूँ!!

   ---- अज्ञात 
प्राप्त करना सहज है किन्तु उसे सहेजना बेहद कठिन ..

रविवार, 2 अक्तूबर 2016

हिंदी साहित्य में स्त्री आत्मकथाएँ सिर्फ व्यथा कथाएँ नहीं हैं बल्कि तमाम तरह की पितृसत्तात्मक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए स्त्री के बनने की कथाएँ हैं। इस बनने के क्रम में बहुत कुछ जर्जर मान्यताएँ टूटती हैं लेकिन जो बनती है उसे या उसके अस्तित्व को पूरी दुनिया स्वीकार करती है।

रविवार, 25 सितंबर 2016





ज़िन्दगी के इस रण में 
खुद ही कृष्ण और 
खुद ही अर्जुन बनना
पड़ता है
रोज़ अपना ही सारथी 
बनकर जीवन की
महाभारत को लड़ना
पड़ता है ।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016



आलेख --'थर्ड जेंडर' सामाजिक अवधारणा एवं पुनरावलोकन पढ़ने के लिए क्लिक करें --
प्रभाकर श्रोत्रिय

प्रभाकर श्रोत्रिय की छवि
जन्मदिसम्बर 19, 1938 (आयु 78 वर्ष)
जावरामध्य प्रदेशभारत
उपजीविकाहिन्दी साहित्यकार, आलोचक तथा नाटककार
भाषाहिन्दी
राष्ट्रीयताभारतीय






हिंदी के प्रसिद्ध सम्पादक/आलोचक/लेखक प्रभाकर श्रोत्रिय नहीं रहे। .वर्ष २०१५ सितम्बर माह में विश्व हिंदी सम्मेलन में विश्व स्तर पर सम्मानित होने वाले विश्वभर  के  ३४  साहित्यकारों में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले साहित्यकारों में से एक नाम डॉ॰ प्रभाकर श्रोत्रिय का भी था  प्रभाकरजी जी  का जन्म १९ दिसम्बर १९३८ (मध्यप्रदेश) के जावरा में हुआ  वे   हिन्दी साहित्यकार, आलोचक तथा नाटककार थे ।इन्होंने अपनी उच्च शिक्षा विक्रम विश्वविद्यालयउज्जैन से प्राप्त की और बाद में एम.ए. करने के बाद वहीं पर प्राध्यापक हो गए । इसके पश्चात इन्होंने पी.एच.डी. और डी.लिट्. की उपाधि भी वहीं से अर्जित की।   हिंदी आलोचना में प्रभाकर श्रोत्रिय एक महत्वपूर्ण नाम है पर आलोचना से परे भी साहित्य में उनका प्रमुख योगदान रहा , खासकर नाटकों के क्षेत्र में। उन्होंने कम नाटक लिखे पर जो भी लिखे उसने हिंदी नाटकों को नई दिशा दी। पूर्व में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के सचिव एवं 'साक्षात्कार' व 'अक्षरा' के संपादक रहे  एवं विगत सात वर्षों से भारतीय भाषा परिषद के निदेशक एवं 'वागर्थ' के संपादक पद पर कार्य करने के साथ-साथ वे भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली के निदेशक पद पर भी कार्य कर चुके हैं। वे अनेक महत्वपूर्ण संस्थानों के सदस्य रहे हैं।


प्रकाशित कृतियाँ


साहित्य के क्षेत्र में प्रभाकर श्रोत्रिय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे । साहित्य की लगभग सभी विधाओं में इन्होंने सफलतापूर्वक लेखन कार्य किया । आलोचनानिबंध और नाटक के क्षेत्र में इनका योगदान विशेष उल्लेखनीय है।
  • आलोचना- 'सुमनः मनुष्य और स्रष्टा', 'प्रसाद को साहित्यः प्रेमतात्विक दृष्टि', 'कविता की तीसरी आँख', 'संवाद', 'कालयात्री है कविता', 'रचना एक यातना है', 'अतीत के हंसः मैथिलीशरण गुप्त', जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता'. 'मेघदूतः एक अंतयात्रा, 'शमशेर बहादूर सिंह', 'मैं चलूँ कीर्ति-सी आगे-आगे', 'हिन्दी - कल आज और कल'
  • निबंध-'हिंदीः दशा और दिशा', 'सौंदर्य का तात्पर्य', 'समय का विवेक', 'समय समाज साहित्य'
  • नाटक- 'इला', 'साँच कहूँ तो. . .', 'फिर से जहाँपनाह'।
  • प्रमुख संपादित पुस्तकें- 'हिंदी कविता की प्रगतिशील भूमिका', 'सूरदासः भक्ति कविता का एक उत्सव प्रेमचंदः आज', 'रामविलास शर्मा- व्यक्ति और कवि', 'धर्मवीर भारतीः व्यक्ति और कवि', 'समय मैं कविता', 'भारतीय श्रेष्ठ एकाकी (दो खंड), कबीर दासः विविध आयाम, इक्कीसवीं शती का भविष्य नाटक 'इला' के मराठी एवं बांग्ला अनुवाद तथा 'कविता की तीसरी आँख' का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित।
इसके अलावा साहित्यिक जगत उन्हें प्रखर सम्पादक के रूप में भी जानता है। वे ‘वागर्थ’, साक्षात्कार‘ और ‘अक्षरा’ जैसी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं के लंबे समय तक संपादक रहे । भारतीय ज्ञानपीठकी पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ के वे लंबे समय तक संपादक रहे ।

पुरस्कार और सम्मान


  • अखिल भारतीय आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान),
  • आचार्य नंददुलारे वाचपेयी पुरस्कार (मध्य प्रदेश साहित्य परिषद),
  • अखिल भारतीय केडिया पुरस्कार,
  • समय शिखर सम्मान (कान्हा लोकोत्सव, 1991),
  • श्रेष्ठ कला आचार्य (मनुवन, भोपाल, 1989),
  • अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार (बिहार सरकार),
  • अखिल भारतीय श्री शारदा सम्मान (म.प्र. के हि.सा. एवं संस्कृतिन्यास देवरिया) एवं
  • माधव राव सप्रे पत्र संग्रहालय का रामेश्वर गुरु साहित्यिक पत्रकारिता पुरस्कार।
  • मित्र मंदिर कोलकाता सम्मान 1998,
  • सारस्वत सम्मान 2002 ।

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