लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

पुराने शब्दों पर नये अर्थ की कलम लगाना विचार क्रांति की अहिंसक प्रक्रिया हैं।
समय, समाज और भावनाओं की दखलअंदाजी के बगैर शोषण, विद्रोह और प्रेम की स्थितियां नहीं बनती। 
क्या ये सत्य हैं -----संत्रास, व्यर्थता बोध, अवसाद, खालीपन  और इस तरह की तमाम अनुभूतियों के बीच आज हम जी रहे हैं. .....  इसे अपने भीतर अक्सर महसूस करते हैं पर स्वीकारते नहीं। 

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

प्रेम और प्रतिशोध और परम्परा तीनों का निर्वहन चुनौती पूर्ण हैं। 
वाणी में विश्वास और शब्दों में संकल्प का होना आवश्यक हैं 
जीवन में दो ही परिस्थितयां हो सकती हैं जब आपके द्वारा लिया गया निर्णय गलत साबित हो जाय पहली या तो अपने फैसले को सही बनाने की ताकत रखे या फिर आसानी से अपने निर्णय को एक गलती मान अनुभवों के खाते में डाल दे।
प्यार उस क्षण के लिए रूका नहीं रहता है जिस क्षण आप कहते हैं प्यार नहीं है
ध्वंस का जबाब सृजन ही है।हम रचना पर बात नहीं करते अक्सर, रचनाकार में ही उलझे रहते हैं
वक़्त दिखाई नहीं देता पर दिखा बहुत कुछ देता हैं।
बड़ी विडम्बना हैं - हम जीवन में समय को खोज रहे हैं या समय में जीवन को 
एक सवाल जो मनुष्य खुद से पूछने से डरता है - "क्या वह खुश है?"
समझोता' शब्द भी पहले समझ से होकर ही गुजरता हैं इसलिए इसका उपयोग जीवन में पहले करें जबकि हम उल्टा करते हैं पहले समझोता करते हैं फिर समझते हैं अगर पहले 'समझ' लेंगे तो समझोता करने की शायद आवश्यकता ही न पड़े .। वैसे ही 'प्रतिशोध' शब्द में भी शोध छिपा हैं शोध उसे प्रतिबोध में बदल सकता हैं इसलिए प्रतिशोध लेने से पहले शोध जरूर करें।
'प्यार से जरुरत पूरी नहीं होती पर अक्सर जो चीजे हमारी जरूरतें पूरा करती हैं उनसे प्यार हो जाता हैं।''
इंसान असफलता से उतना निराश नहीं होता जितना अपने जीवन के खालीपन से..
हिंदुस्तान मे ज्यादातर रिश्ते तो उधार वापस माँगने की वजह से टूट जाते है
जीवन की आवश्यक सुविधाओं का अभाव मनुष्य को अधिक दिनों तक मनुष्य नहीं बना रहने देता, इसे प्रमाणित करने के लिए उदाहरणों की कमी नहीं।
उन्होंने कहा- छोटी जगह रहने पर प्रेम और ईर्ष्या स्पष्ट दीखते हैं। जबकि बड़ी जगह प्रेम के आवरण में कई बातें छुपी होती हैं।
स्त्री ने जब कभी इतना बलिदान किया है, नितांत परवश होकर ही और यह परवशता प्रायः अर्थ से संबंध रखती रही है। जब तक स्त्री के सामने ऐसी समस्या नहीं आती, जिसमें उसे बिना कोई विशेष मार्ग स्वीकार किए जीवन असंभव दिखाई देने लगता है, तब तक वह अपनी मनुष्यता को जीवन की सबसे बहुमूल्य वस्तु के समान ही सुरक्षित रखती है। 
जिंदगी जिन मोड़ों से होकर गुजरती हैं,उसमे संदेह,समस्या ,संघर्ष,अपमान, बलात पीड़ा ,तिरस्कार [अपनों और परायों सबसे ] के चौराहे, तिराहे, दोराहे ,चौक, सबसे होकर गुजरती हैं,लेकिन इनको दिमाग में जगह दे दी तो ये अपना घर बना लेंगे। इन सबको ऐसे पार करना जैसे तुम अपनी कार या स्कूटर से गति साधते हुए पार करते हो। इन चौराहो पर रुकना जरूर ,लेकिन ध्यान रखना इन अजनबियों को जल्दी बिदा करना। यहीं 'तिनका संतुलन' तुम्हारे जीवन की वृत्ति का निर्माण करेगा
हम सभी को जीवन में कभी -कभी अधिकार और योग्यता के बीच की चुनौतियों का सामना करना पड़ता हैं अक्सर जिसके पास अधिकार होते हैं उनके पास योग्यता नहीं होती जिनके पास योग्यता होती हैं उनके पास अधिकार नहीं होते जीवन की इस चुनोती से हम सब भी कभी न कभी गुजरे हैं या गुजर रहे हैं यही समय हमारी निर्णयन क्षमता और दिमागी संतुलन के परीक्षण का होता हैं क्योकि जिनके पास अधिकार हैं उन्हें हम बाहर नहीं कर सकते और जिनके पास योग्यता हैं उन्हें जीवन का हिस्सा नहीं बना सकते लेकिन शामिल दोनों ही जीवन में रहते हैं इसे संतुलित जीवन कहते हैं .
महिलाओं में रोने का गुण होने के कारण ही पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को दिल के दौरे कम पड़ते हैं। स्त्रियां रोकर अपने दिल का बोझ हलका कर लेती हैं। अपने मानसिक तनावों को आंसुओं द्वारा कम न कर पाने के कारण पुरुष प्रायः धमनियों संबंधी शिकायतों से ग्रस्त रहते हैं।
आंसू के कारण ही आंखें नम रहती हैं। कुछ चिकित्सकों का कहना है कि भावनात्मक आंसू अवसाद, उदासी एवं क्रोध को समाप्त करते हैं। रोने से मन का संपूर्ण मैल धूल जाता है। अतः जब कभी भी किसी कारण से रोना आए तो उसे रोकना नहीं चाहिए, बल्कि खुलकर बाहर आने देना चाहिए।
हम अक्सर उन चीज़ो को ज्यादा गंभीरता से ले लेते हैं जो हैं जो हमारे पास नहीं होती। बजाय उनके जो हमारे पास होती भी हैं और बड़ी सहजता से हमें मिल भी जाती हैं.। भटकना शायद मनुष्य का ही स्वभाव बन गया हैं इसलिए उसके पास जो होता हैं उसे वो कभी- ख़ुशी इत्मीनान और संतुष्टि के साथ जी ही नहीं पाता या समय रहते उसकी क़द्र नहीं कर पाता हैं.। एक उदाहरण से समझ सकते हैं कहने का अर्थ क्या हैं - माँ का प्रेम,परिवार वालो का सपोर्ट ,पिता की केयर,भाई के साथ हसी मजाक, बहनों के साथ गुजरा वक़्त हम अपने घर में कभी इन लोगों से ये नहीं कहते की माँ तुम मुझे कितना प्यार करती हो,या क्यों करती हूँ,या गुस्से के समय में क्यों नहीं करती हो, पिता से कभी भावनात्मक होकर बात नहीं करते अपवाद को छोड़ दे तो.। क्योकि ये हमें बिना मांगे मिला हैं हम बाहरी रिश्तों में या हमारे द्वारा बनाये रिश्तों में इस प्रकार की अपेक्षाओं न सिर्फ गंभीरता से लेते हैं बल्कि पूरी गहराई से डूब जाते हैं पूरी न होने पर अवसाद में चले जाते हैं खुद को अकेला बना लेते हैं। हमारे पास जो हैं हमें वो दिखाई ही देता क्योकि उसे पाने के लिए न तो हमने कोई प्रयास किये न परिश्रम। पर जो मुफ्त में मिला उसकी कीमत हम जीवन भर नहीं समझ पाते फिर अकेला होने का डंका बजाते हैं डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं दुःखी रहते हैं.कहने का तात्पर्य अगर हम बिना मांगे मिले इस प्रेम की क़द्र करना सीख जायेगे तो जो बीज हमारे द्वारा बोये जाते हैं जो रिश्ते हमारे द्वारा बनाये जाते हैं उनके साथ शायद ऐसी परिस्थितियाँ ही न बने अगर बने भी तो उनसे उबरने के लिए हमारे पास संसाधन के रूप में पूरा परिवार हैं। इसलिए समय -समय पर परिवार वालो से भी अपनापन,प्रेम, एक्सप्रेस करे सिर्फ बाह्य प्रेम में ऐसा हो जरुरी नहीं। कभी -कभी समय की डिमांड होती हैं अपनों को भी अपनापन जाताना कहना की की हमें उनकी जरुरत हैं इससे पहले की कुछ ग़लतफहमियाँ एक दूसरे के प्रति करुणा स्नेह को दीमक की तरह खाना शुरू कर दे जो वास्तव में हमारे अंदर हैं पर हम कह नहीं पाते इसलिए अपने प्रेम को परिवार के साथ भी कभी कभी एक्सप्रेस करे ठीक उसी अंदाज में जैसे हम दूसरों को महत्व देकर करते हैं या उससे बेहतर भी । 
फितरत, सोच और हालात मे अंतर होता है,वरना हर इंसान दिल
का बुरा नही होता ।
विचार और गहराई
दोस्तों आज सुबह –सुबह चाय के कप के साथ दो शब्द मेरे मस्तिष्क में घर कर गए उन्ही को ध्यान रखकर ये आलेख लिखा उम्मीद हैं आपके काम आये आपको पसंद आये.
'विचार और गहराई' ये दोनों एक ऎसे शब्द हैं जो रोज हमारे जीवन से टकराते हैं कभी कभी एक साथ कभी कभी अलग अलग कहने का तात्पर्य जब हम दो करीबी रिश्ते के बात करते हैं वहाँ शायद टकराव इस बात का हो जाता हैं की दोनों के विचार भले ही एक जैसे हो सकते हैं इसी लिए तो वे इस रिश्ते में बंधे हैं लेकिन दोनों के विचारो की गहराई भी एक जेसी हो ये आवश्यक नहीं बस यही दोनों में कभी कभी टकराव पैदा कर देती हैं जिसे हमें समझना होगा ठीक इसी तरह दूसरा पहलू पहले हमने यहाँ दो लोगो के टकराव के बात की। अब हम उस टकराव की बात करते हैं जिसमे हम अकेले जिम्मेदार होते हैं विचार और गहराई के मामले में. की कुछ चीजो पर हम विचार तो कर जाते हैं पर कभी कभी उन पर गहराई से नहीं सोच पाने की वजह से कुछ गलत निर्णय ले लेते हैं या कुछ विषयों पर गहराई से सोच लिया जाता हैं पर उन पर विचार नहीं किया जाता कहने का तात्पर्य गहराई में जाने के पहले की प्रक्रिया विचार से होकर ही गुजरेगी। इसमें इस बात का बोध होना भी आवश्यक हैं की कुछ विषयो के गहराई तक पहुचने की जरुरत भी नहीं होती उनका समाधान निराकरण या निर्णय सिर्फ विचार करके भी लिया जा सकता हैं 'विचार' में मस्तिष्क ज्यादा सक्रिय रहता हैं 'गहराई' में आत्मा अधिक बलवान हो जाती हैं बस इसी फर्क को समझना जरुरी हैं की कहा विचार करना हैं कहाँ गहराई से सोचना हैं और कहाँ ये दोनों- 'विचार करके गहराई से सोचना हैं' विचार और गहराई को इस एक उदाहरन द्वारा भी समझा जा सकता हैं की हमें किसी जगह माँ की जरुरत होती हैं उनके बिना कार्य संभव नहीं किसी जगह पिता की जरुरत होती हैं लेकिन किसी -किसी जगह हमें दोनों की जरुरत होती हैं बस हमें यही ध्यान रखना हैं विचार और गहराई हमारे जीवन के माता-पिता के समान ही हैं जरुरी हैं समझना इसे संतुलित करने का नाम जीवन हैं।
ये ज़मीं की फितरत है की वो हर चीज़ सोख लेती है… वरना इन आँखों से गिरने वाले आंसूओं का भी एक अलग ही समंदर होता.. सैलाब उठना ही जीने की पहचान नहीं कभी कभी ठहराव भी जीवन जीने के लिए जरुरी हैं 
जब किसी सही बात को स्वीकारना मुश्किल लगे या आत्मा उसे सही स्वीकारे लेकिन मन उस पर हावी हो या ये जानते हुए भी की ये सही हैं फिर भी उसका समर्थन न दे पाने के स्थिति हो कारण कोई भावनात्मक क्षति या आपके सिधान्तों के विपरीत उस बात का होना भी हो सकता हैं जो आपको उसे निष्पक्ष होकर समझने में विफल कर रहा होता हैं तो फिर उसमे सिर्फ अपना या अपने किसी सबसे प्रिय अजीज का फायदा देखकर उसको उसका समर्थन देने का प्रयास ही उस कार्य का अंतिम विकल्प होगा क्योकि कुछ चीजो को अपनाया नहीं जा सकता लेकिन परिस्थितयो वश उन्हें छोड़ना भी कभी -कभी असम्भव होता हैं 
याद रखे दुनिया के लिये आप सिर्फ़ एक व्यक्ति हैं ............
लेकिन परिवार के लिये पूरी दुनिया हैं 
अपना ध्यान रखे.......
व्यसन से दूर रहे .....
इस शोक को आदत न बनने दे 
और आदत को अपनी कमज़ोरी न बनाये 
कुछ रिश्ते ईश्वर बनाता हैं 
कुछ रिश्ते 'लोग' बनाते हैं 
कुछ रिश्ते हम बनाते हैं 
पर कुछ लोग 
बिना किसी रिश्ते के बेहतरीन रिश्ते निभाने का उदाहरण बन जाते हैं 
शायद वे रिश्ते शब्द के बंधन से स्वयं को कही ऊपर और गहरा मानते हैं
और उसे निभाते भी उन्हीं ऊंचाईयों और गहराइयों के साथ …
स्वभाव और सम्बन्धो को परखने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम परिस्थितियाँ होती हैं शायद विपरीत परिस्थितयों में पैसे और ख्याति से अधिक सगे सम्बधियों की आवश्यकता होती हैं ये समय स्वभाव और सम्बन्धो को जानने के साथ -साथ स्वयं के अंदर छिपे गुणों और प्रतिभा को निखारने का भी सही वक़्त होता हैं 
विवाह और प्रेम ………। 
विवाह आज एक संस्था के रूप में माने जाने लगा हैं जिसकी परिधि में पूरा जीवन जीते- जीते सब उन्मुक्त प्रेम की तलाश करते हैं पर क्या सिर्फ विवाह ही एक माध्यम रह गया हैं वास्तविक प्रेम का आभास करने का। बिना विवाह के या विवाहोपरांत किया गया प्रेम अगर उन्मुक्त रूप में मिलता हैं तो समाज उसे अपने द्रष्टिकोण से ग़लत बताने का प्रयास करता हैं अब किसी से प्रेम करने के लिए भी क्या नियमों में बंधना होगा या प्रेम करने के लिए विवाह जैसी संस्था ही एक वैधानिक माध्यम हो सकती हैं इंसान के अपनी भावनाओं और जस्बातो और आत्मिक सुकून की कोई कीमत नहीं इन सबका जब जब उसने दोहन किया हैं वो भी सिर्फ समाज के लिए तब- तब न तो उसे कुछ हासिल हुआ न जिनकी वजह से उसने ऐसा किया उसे कुछ हासिल हुआ सिर्फ तबाही ही हासिल हुई हैं प्रेम जैसे पवित्र और उन्मुक्त शास्वत सत्य को किसी पर जबरजस्ती थोपा नहीं जा सकता न ही पाया जा सकता हैं ये विपरीत परिस्थितियों की उपज से जन्मता हैं और अनुकूल परिस्थितियों पर जाकर फलता हैं दुनिया का कोई भी इंसान चाहे वो स्त्री हो या पुरुष अगर उन्होंने प्रेम विवाह भी किया होगा तो भी उसमे प्रेम के पुट से ज्यादा उन परिस्थितियों का इनपुट ज्यादा होगा जिनमे वो पनपा। अनुकूलता में वास्तविक प्रेम की पहचान नहीं हो सकती न ही उसे पाया जा सकता हैं। और विपरीत परिस्थितयों में जन्मा प्रेम, विवाह जैसी सामाजिक संस्था और परंपरा से कोसों दूर होता हैं उसे किसी बंधन या authenticity की आवश्यकता नहीं होती वो सदा सर्वदा उन्मुक्त प्रेम बनकर ही रहता हैं। जिसे समाज बमुश्किल स्वीकार कर पाता हैं समाज को शायद प्रेम सिर्फ विवाहित जीवन के सील ठप्पे के साथ ही देखना पसंद हैं लेकिन जबरजस्ती से कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता अंततः विवाहित जीवन में सम्बध विच्छेद हो जाते हैं और इनकी संख्या में गत पांच वर्षो में इजाफ़ा ही हुआ हैं. । सबसे अहम बात जिसे कोई समझना नहीं चाहता की विवाह नामक संस्था में जिम्मेदारी और समर्पण सबसे अहम और मजबूत डोर होती हैं न की प्रेम। प्रेम का स्थान तीसरा होता हैं इस रिश्ते में.। अगर दोनों अपनी- अपनी जिम्मेदारी के प्रति समर्पित होते हैं तो प्रेम अपनेआप ही जन्म ले लेता हैं लेकिन प्रेम पाने की असीम इच्छा कभी -कभी जिम्मेदारी से विमुख कर देती हैं मन को कुंठित और दुखी कर देती हैं जिसके चलते 'गलत कदम के नाम' पर दोनों दांपत्य जीवन से जो प्रेम चाहिए वो बाहर तलाश करने लगते हैं जो वास्तव में किसी भी अर्थ में गलत नहीं हैं उन परिस्थितयों के मुताबित , क्योकि बाहर भी जो प्रेम प्राप्त होता हैं उसमें भी कही न कही समर्पण और जिम्मेदारी का भाव होता हैं तभी वो प्रेम का दर्जा पाने लगता हैं और अंततः पा लेता हैं जबकि बाहर से प्राप्त प्रेम में न तो कोई authenticity होती हैं न ही वैधता फिर भी कभी कभी वो विवाहित जीवन की परिधि में तलाशते उन्मुक्त प्रेम से कहीं ज्यादा ऊपर गहरा साबित हो जाता हैं ये कड़वा हैं लेकिन सत्य हैं इसलिए विवाह जैसी संस्था की परिधि में उन्मुक्त प्रेम को तलाशना सही हैं और होना भी चाहिए लेकिन बगैर अपनी -अपनी जिम्मेदारी और समर्पण की पूर्णता के सिर्फ प्रेम पाने की इच्छा रखना अँधेरे में तीर चलाने जैसा ही होगा।
कुछ चीजे अँधेरे में दिखाई नहीं देती और कुछ चीजो को अँधेरे में देखना होता हैं यही हैं जीवन । 
जीवन का अकेलापन हम सबको कभी -कभी वो महसूस करवा देता हैं जिसे हम सबके बीच रहकर गहराई से नहीं समझ पाते। 
कभी- कभी अकेलापन बहुत जरुरी हैं जीवन को समझने के लिए और शब्दों में अनुभूति को जन्म देने के लिए.। अकेलापन कभी कभी आपको इतना गंभीर चिंतक बना देता हैं की आप फिर दूसरों के दुःख को भी उतनी ही गहराई से महसूस करने लगते हैं जितना स्वयं दुखार्थी। जीवन में कमी का होना बहुत जरुरी हैं जीवन की बहुत बड़ी से बड़ी कमी भी हमें अक्सर बहुत छोटी छोटी चीज़ो का महत्व समझा जाती हैं.। कभी कभी जो काम किसी चीज की पूर्ति नहीं कर सकती वो कमी कर जाती हैं। हमें इन दोनों के बीच के फर्क को समझने की कोशिश करना चाहिए। 
बहुत दूर तक जाना होता हैं ये जानने के लिये के सबसे करीब कौन हैं।
माँ कभी बूढी नहीं होती ……
माँ तू कैसे समझ जाती हैं मेरी तन्हाइयों को
बहुत याद आती हैं तेरी इन निराशा भरे पलों में
तू कितनी हरी भरी रहती हैं 
जीवन के हर मौसम में हर क्षण में
क्योकि- माँ कभी बूढी नहीं होती
तू बात करने से कैसे समझ जाती हैं
की मैं ठीक नहीं हूँ, जी रही परेशानियों में
तू पहला सवाल ही ये पूछती हैं
मेने खाना खाया की नहीं,
आज भी उसी सहजता से, उसी चिंता से,
जब में 33 की हो चली हूँ तू 60 की
तुझे मेरी फिक्र वैसी ही हैं जैसी जन्मते वक़्त थी
तू कभी थकती नहीं, तेरे काम का कोई छोह ही नहीं
तू कभी बूढी नहीं होती माँ
जब भी तेरा फ़ोन आता मेरी आँखे भर आती
मुझे लगा फिर से तुझे पता चला, की में ठीक नहीं हूँ। …
कहाँ से लाती हैं तू इतनी ऊर्जा जो हम सबको देती हैं
फिर भी तुझमे बढ़ती ही जाती हर दिन हर पल में
मेरी निराशा ने मुझे कमजोर बना दिया हैं
पर एक तू हैं जो हर दिन मजबूत होती
क्योकि माँ कभी बूढी नहीं होती
क्यों माँ नहीं थकती कभी बच्चो के काम से
जैसे नहीं थकती 'धूप' कभी जीवन के नाम से 
परिवर्तन को न सिर्फ पहचाने बल्कि स्वीकार करे।
क्या हमने कभी हमारी बुनयादी दिक्कतों को समझने की कोशिश की हैं आधुनिक समाज में हम वास्तविक खुशियों से दूर होते जा रहे हैं। आधुनिकता का सही मतलब हम नहीं समझते हैं। जीवन के लिए क्या और कितना जरूरी है। क्या गैर-जरूरी है। आंख मूंद कर, तर्क किए बगैर हम चीजों का अनुसरण करने लग जाते हैं। जीवन का लुत्फ उठाना और पीड़ा की उपेक्षा करना ही केवल मनुष्य को प्रेरित नहीं करती है।हमारे दिमाग मैं उठने वाले विचार ही हमारी जीवन शैली निर्धारित कर देते हैं और हमारे सोचने का नजरिया काफी हद तक हमारे आस पास के वातावरण व्यवहार पर निर्भर करता हैं हमारे जीवन मैं दो तरह की परिस्थितिया होती हैं पहली वो जब हम हमारे पूर्व निर्धारित मूल्यों सिद्धांतो और नियमो के आधार पर जीवन जीते हैं ऐसे लोगो पर परिस्थितियों के अकस्मात परिवर्तन का विशेष असर देखने को नहीं मिलता न सकारात्मक न नकारात्मक उन्हें ऐसा प्रतीत होता हैं जेसे उन्हें पहले से सब पता था पर दुसरे किस्म के जिन्दगी जीने वाले व्यक्ति समय और परिस्थितियों के बदलने से बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं उन्हें लगता हैं ये तो वो हो गया जो मेने कभी सोचा ही न था सकारात्मक और नकारात्मक दोनों द्रष्टि से आमतोर पर महिलाओ मैं ये समस्या ज्यादा होती हैं आचानक से हुए परिवर्तन को वो सहजता से स्वीकार नहीं कर पाती हैं यही उनके असंतोष घुटन और पीड़ा और दुःख का कारण बन जाता हैं अगर हम अपनी बुनियादी दिक्कतों और जीवन की छोटी छोटी कमियों को सहजता से स्वीकार कर ले तो हम महसूस करेंगे की हमारी जिन्दगी पहले से काफी बेहतर हो गयी हैं जीवन में समस्याए कभी पूरी तरह ख़त्म नहीं होती लेकिन जो समस्याए कम हो जाती हैं उसकी अनुभूति होना भी जरुरी हैं 
जुड़ना सरल हैं जुड़े रहना कठिन।
मित्रों आज इंदौर शहर में बेहद शांत रिमझिम- रिमझिम बारिश सुबह से हो रही हैं ऐसा प्रतीत हो रहा हैं मानों वो अपने जीवन के हर एक पल को सुकून के साथ जी रही हो उसे महसूस कर रही हो और हमें भी बिना किसी द्वेष, आवेग आक्रामक,आक्रोश के बेहद मार्मिकता शांतता और गहरे चिंतन के साथ सुकून भरा जीवन जीने के लिए प्रेरित कर रही हो।जैसे एक सच्चा और ईमानदार इंसान बेहद शालीनता से अपनी बात कह रहा हो और सभी उसे उसी तरह से सुन रहे हो सुप्रभात 18/august/2015
कुछ लोग हमारे जीवन के लक्ष्यों शामिल नहीं होते लेकिन जैसे- जैसे हम अपने लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढ़ते हैं उन रास्तों से गुजरते वक़्त वो भी उसका एक अहम हिस्सा बनने लगते हैं.। इस सूक्ष्म से दिखने वाले सत्य को हर दृष्टि नहीं देख और समझ पाती हैं.। ये बात प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अनुभवजनित हैं । लक्ष्य हमारे द्वारा निर्धारित किये जाते हैं लेकिन उसके पूरा होते होते उसका हिस्सा कौन बन जाये ये समय और परिस्थितियाँ निर्धारित करती हैं। 
स्वतंत्रता का अर्थ -
सिर्फ आजादी रह गया हैं या हम पूर्ण शिक्षित हैं अपनी वास्तविक स्वतंत्रता से। अभी बहुत दूर न जाय तो अपने स्वयं के घर परिवार में ही शोषण और अपराधों का शिकार हैं जिनके विरोध में आवाज उठाने की स्वतंत्रता नहीं हैं हमें आज भी। .उदाहरणों की कोई कमी नहीं । अब हम अंग्रेजो के गुलाम तो नहीं रहे पर अपने अधिकारों का पूर्ण तः सही इस्तेमाल करने जैसी स्थिति में भी नहीं हैं और गुलाम हैं हमारे अपनों के या हमे अधिकारों का संरक्षण देने वाली संस्थाओं या उन में उच्च पदो पर आसीन अधिकारीयों के। जिनके पास भरपूर अधिकार हैं एक आम इंसान को ड्राइव करने के.। लेकिन एक आम इंसान के पास न तो अधिकार हैं न उनकी शिक्षा देने वाली कोई सहज संस्था.। उन्हें जानने के लिए भी उससे कई ऎसे रास्तों से होकर गुजरना पड़ेगा की वो आधे रास्ते में ही हार मान लेगा ये सोच कर की क्या करूँगा, चलो छोड़ो इस माथापच्ची को, अपने अधिकारों का ज्ञान लेकर भी सभी तो शोषित हैं.। सब संरक्षण अधिकारियों के जी हजुरी के मुताबित ही चलता हैं कौन सुनेगा, किसको सुनाये , दरअसल हमारे यहाँ की नियम और कानून व्यवस्था इतनी ज्यादा लचीली और औपचारिक हैंकि एक आम इन्सांन को वास्तविक नियमों का बोध होते होते उन तक पहुँचते पहुँचते ही वह दम तोड़ देता हैं एक छोटा सा उदाहरण से और स्पष्ट हो जाएगी क्या आप जानते हैं ट्रैफिक पुलिस का वास्तविक काम क्या हैं शायद हमें नियमों को तोड़ने से रोकना या समझाइश देना, उनके पालन हो इस और ध्यान देना। जो चालान आप कभी ट्रैफिक नियम उल्लंघनों के तहत भरते हैं उन्हें वो लेने का वास्तविक अधिकार हैं भी या नहीं,कहने का तात्पर्य अगर हमारा ट्रैफिक नियम को तोडना गलत हैं तो उनका चालान बनानां कितना तक सही हैं मैं नहीं जानती ये कितना सच हैं वास्तव में नियम क्या हैं लेकिन अगर आपने कभी ट्रैफिक नियमों के चलते चालान भरा हैं तो इसकी जानकारी अवश्य निकाले इस दंड को भोगने की वास्तविक प्रक्रिया क्या हैं.। दंड देने का अधिकार मेरे विचार में न्यायधीश या जज महोदय को होना चाहिए कितना और कैसे और कब देना हैं ये समस्त अधिकार हमारे आदरणीय न्यायधीश महोदय के पास होते हैं। बिना किसीलिखित कार्यवाही या कोर्ट के आदेश के किसी भी अधिकारी को न तो दंड देने का अधिकार होना चाहिए न इंसान को भुगतने की विवशता। जब तक कानून उसे साबित कर अपना न्याय न सुना दे की आपको चालान भरना हैं या नहीं तब तक रुकना सही होगा बजाय उसी वक़्त अपने पर्स से पैसे निकल कर देने के। थोड़ा हास्यप्रद लगेगा की चालान भरने के लिए कोर्ट के नोटिस का इंतजार करना पर इस हास्य में कहीं कहीं थोड़ी सत्यता हमारे अधिकारों और उनके हनन सम्बन्धी भी हैं जिसे समझना सभी को चाहिए मेरे कहने का अर्थ ये कदापि नहीं हैं की आपका चालान गलत बनता हैं और ये प्रक्रिया गलत हैं पर ये जानना सही होगा की क्या सही हैं और कितना सही हैं। और आप स्वयं भी अगर एक स्वतंत्र भारत में शिक्षित वर्ग होने की पहचान रखते हैं तो इसे पूरी तरह समझने का अधिकार आपको हैं इस तरह के और भी कई उदाहरण हैं जहाँ हम पैसे देकर समय बचा लेते हैं लकिन वास्तव में हम स्वयं अपने अधिकारों को जानना ही नहीं चाहते कब कौन सा अधिकार किस तरह से लागू किया जाता हैं ।एक आम आदमी के लिए बस यही एक तकनिकी ज्ञान हमारी वास्तविक स्वतंत्रता हैं। आपको अपने नियम और कानून व्यवस्था की पूर्ण और सही जानकारी होनी चाहिए और उनका सही वक़्त पर उपयोग करने की स्वतंत्रता ही वास्तविक स्वतंत्रता हैं स्वतंत्रता का अर्थ ही अपने अधिकारों का न सिर्फ ज्ञान होना बल्कि उनका सही वक़्त पर सही उपयोग करना भी होता हैं 
किसी ने पूंछा कि -
'उम्र' और 'ज़िन्दगी'
में क्या फर्क है?
जो अपनों के बिना बीती वो - 'उम्र'
और
जो अपनों के साथ बीती वो - 'ज़िन्दगी'!
एक कच्चा धागा हम सबको सिर्फ़ आदमी और औरत होने से कुछ ऊपर होना महसूस करवा देता हैं और बना देता हैं एक घर, एक परिवार, और उसके सदस्य हम , एक कच्चा धागा इतना बड़ा रिश्ता निर्धारित कर देता हैं की शायद उसके बिना हम सब सिर्फ नर या मादा ही होते या फिर परिवार में सम्बन्धों को खोज रहे होते उस एक कच्चे धागे ने हमें नर या मादा होने से कुछ ऊपर होने का अहसास करवाया। इस एहसास को सिर्फ एक ही दिन न जिया जाय हर दिन महसूस किया जाय । सभी को रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनायें। 
क्या हम अपने परिवार के किसी सदस्य में अचानक से कोई बड़ा बदलाव महसूस कर रहे हैं अक्सर हम इन बातों को बहुत लाइट्ली ले लेते हैं या फिर अपनी अपनी चिंताओं और जिम्मेदारियों के चलते उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं। लकिन कभी कभी हमारी छोटी सी नजरअंदाजी बहुत बड़ी किसी घटना का परिणाम प्रस्तुत कर देती हैं पिछले कुछ दिनों से मैं अख़बार के पन्नो में परिवार में आत्महत्या की खबरों को पढ़कर बहुत आहत हूँ जिसने मेरे सोचने समझने का नजरिया न सिर्फ बदल दिया बल्कि अब उस पर काम करने पर विवश भी कर दिया हैं मेरा आप सभी से विनम्र निवेदन हैं की अपने परिवार के साथ हर दिन कुछ वक़्त जरूर बिताएं वो भी सिर्फ़ बिताना नहीं उसे महसूस करना, जानना की कही वो किसी वजह से परेशान या दुखी तो नहीं है ,जो आपके डर या शर्म की वजह से आपसे छुपा कर अंदर ही अंदर अकेलापन, कुंठा, भय असुरक्षा और निराशा को जन्म दे रहे हो.। जिसकी वजह से या तो वे किसी मानसिक रोग को आमंत्रण दे रहे हो या फिर आत्महत्या जैसी घटना के माध्यम से किसी गहरे असाध्य दुःख का अंदेशा। पर हम एक ही घर में रहकर अपने- अपने दुःखो की बंसी बजा रहे हैं हमें जरुरत हैं सार्वजानिक दुःखों को बांटने की क्योकि परिवार का दुःख कभी किसी एक अकेले का दुःख नहीं होता भले ही उसे जीता एक इंसान हो पर परोक्ष रूप से भोगता हर एक हैं। मेरी आप सबसे दरख्वास्त हैं की तेज रफ़्तार से चलते और प्रतिस्पर्धा के युग में परिवार में आपसी प्रेम ,समय विश्वास,और आत्मीयता की कमी बहुत बुरी तरह से हावी हो रही हैं जिसकी वजह से दिमाग असंतुलित हो रहा हैं मन के किसी खाली कोने की भरपाई हम जीवन भर करते रहते है इसी में कुछ लोग संतुलित रह पाते कुछ टूट जाते हैं लेकिन हमें उनके रिक्त स्थान को परिवार के प्रेम से भरना होगा क्योकि प्रेम के रिक्त स्थान प्रेम से ही भरे जाते हैं दवाइयों से नहीं इसलिए किसी घटना के होने का इंतजार न करे अपने परिवार को आत्मीयता से अपना समय दे वरन जो चला जायेगा वो कभी लौट कर नहीं आएगा समय की तरह ।
समर्थन और विरोध केवल 
विचारों का होना चाहिए,
किसी व्यक्ति का नहीं 
क्योकि, 
अच्छा व्यक्ति भी 
ग़लत विचार रख सकता हैं
और किसी बुरे व्यक्ति का भी
कोई विचार सही हो सकता हैं
'मत' भेद कभी भी 'मन'
भेद नहीं बनंना चाहिए।


मेरा सभी मित्रों से अनुरोध हैं की हिन्दी को अपनाने में उसका उपयोग करने में शर्म महसूस न करे क्योकि हम कितने भी बड़े अंग्रेज बन जाये या अंग्रेजी बोल ले संवेदनशीलता और भावनाओं के बगैर हम सिर्फ हाड़ मॉस का एक हाइली एजुकेटेड पुतला ही कहलायेगे अगर शिक्षा का सम्बन्ध जीवन से हैं तो जीवन का सम्बन्ध ज़मीन से क्योकि फसलें जमींन पर ही उगती हैं आसमानों पर नहीं इसलिए चाहे कितनी भी तरक्की करे अपनी जमीन से सदा जुड़े रहे और माँ और मात्र भाषा दोनों हमारी जमीन हैं जिनमेँ बसी हैं हमारी संवेदनशीलता जिसे हम अपनों के साथ बिना हिंदी के अभिव्यक्त नहीं कर सकते कर भी दिया तो वे उन गहराइयों तक नहीं पहुँच पाएंगे जिन तक हम हिन्दी के माध्यम से जा सकते हैं.। अंग्रेजी या किसी भी अन्य भाषा का नॉलेज होना आपकी इंटेलिजेंसी बताता हैं. लेकिन अपनी भाषा का सही तरीके से सही जगह उपयोग करना और दूसरों को करने के लिए प्रेरित करना आपकी बुद्धिमानी और संस्कार बताता हैं हिंदी के जैसी भावुक मर्मस्पर्शी भाषा अन्यत्र नहीं और जीवन में भावना और मर्म दोनों का होना अत्यंत आवश्यक हैं इसलिए हिंदी को प्राथमिकता दें । किसी दूसरी भाषा का उपयोग करना गलत नहीं हैं पर अपनी भाषा को छोड़कर उसे अपनाना अपनों के साथ नाइंसाफी के बराबर हैं हमने सदेव दूसरों की भाषा और संस्कृति का सम्मान करना सीखा हैं फिर हम अपनों के मामले में और अपनी भाषा के लिए वो सम्मान क्यों नहीं ला पाते हैं अगर हम ही अपनी भाषा और अपनों के साथ परायों जैसा बर्ताव करेंगे तो हममें और एक बुद्धिहीन प्राणी में कोई फर्क नहीं रह जायेगा एक बार जो बात आप अंग्रेजी में कह कर जताते हो वही हिंदी में बोलकर दोनों के फर्क को महसूस करने की कोशिश करे फिर चाहे वो किसी से माफ़ी मांगना हो या फिर अपने प्रेम का इजहार या फिर अपनी कोई गलती स्वीकारना। जितनी गहराई आप हिन्दी भाषा के शब्दों में महसूस करेंगे अंग्रेजी में कतई नहीं। [चूँकि हम हिंदुस्तानीहैं भारतीय हैं ] शिक्षित होना आवश्यक हैं पर बुद्धिमान होना उससे भी ज्यादा आवश्यक हैं। और बुद्धि ईश्वर ने दी तो सबको हैं पर उसका उपयोग कितने कर पा रहे हैं ये देखना बाकि हैं। 
जीवन की आवश्यक सुविधाओं का अभाव मनुष्य को अधिक दिनों तक मनुष्य नहीं बना रहने देता, इसे प्रमाणित करने के लिए उदाहरणों की कमी नहीं। वह स्थिति कैसी होगी, जिसमें जीवन की स्थिति के लिए मनुष्य को जीवन की गरिमा खोनी पड़ती है, इसकी कल्पना करना भी कठिन है।इसे अपने आसपास किसी के भी जीवन में झांक कर देखा और महसूस किया जा सकता हैं या फिर कभी -कभी स्वयं के भीतर भी
हमने त्योहारों का निर्माण किया हैं अपने जीवन के दुःखो से परे जाकर कुछ समय के लिये त्योहारों के ही बहाने अपने और अपनों से जुड़कर परम्पराओं और संस्कारों परिपाटी को जीने का एक तरीका कुछ नया सृजन या फिर कुछ पुराने के विसर्जन के लिए दरअसल हम त्योहारों के लिए नहीं बने हैं हमने इन्हे बनाया हैं हमको तो बस बहाने चाहिए जीवन को उत्सवी तरीके से जीने के अगर ये न बनाये होते तो बारह महीने एक जैसे होते कुछ भी नया न होता ये एक सत्य हैं। आज पूरे देश में श्रीगणेश चतुर्थी का पर्व उत्साह से मनाया जा रहा है। साकार रूप में श्रीगणेश भगवान का चेहरा हाथी और सवारी वाहन चूहा दिखाया जाता है। सकाम भक्त उनके इसी रूप पर आकर्षक होकर उनकी आराधना करते हैं। कुछ लोग भारतीय समाज के ढेर सारे भगवान होने के विषय की मजाक बनाते हैं। कुछ दिनों पहले मारोठिया बाजार में इसका प्रत्यक्ष उदाहरण भी देखा मैने इनमें भी भगवान श्री हनुमान तथा गणेश जी के स्वरूप को अनेक लोग मजाक का विषय मानते हैं। दरअसल ये एक आस्था का विषय हैं अन्धविशवास नहीं ऐसे अज्ञानी लोगों से बहस करना निरर्थक है। दरअसल ऐसे बहसकर्ता अपने जीवन से कभी प्रसन्नता का रस ग्रहण नहीं कर पाते इसलिये दूसरों के सामने विषवमन करते हैं। यह भी देखा गया है कि गैर हिन्दू विचारधारा के कुछ लोगों में रूढ़ता का भाव इस तरह होता है कि उन्हें यह समझाना कठिन है कि हिन्दू अध्यात्मिक दर्शन निरंकार परमात्मा का उपासक है पर सुविधा के लिये उसने उनके विभिन्न मूर्तिमान स्वरूपों का सृजन किया है। साकार से निराकार की तरफ जाने की कला हिन्दू बहुत अच्छी तरह जानते हैं। 
अभी कुछ दिनों से पवित्र और सबसे प्राचीन जैन धर्म के पर्युषण पर्व जिसका अर्थ ही आत्मा का पोषण करने वाला हैं के विषय में पढ़कर अत्यंत दुःख हुआ कुल आठ दिवसीय चलने वाले इस पर्व में भी लोग मांस खाने अथवा विक्रय से बाज नहीं आ रहे वो लोग शायद ये भूल गए की जैन धर्म अल्पसंख्यक हैं किन्तु धर्म आस्था और निष्ठां के प्रति वो न सिर्फ अपने धर्म के प्रति सजग और सम्मानित विचारधारा रखता हैं अपितु दूसरों के धर्म के प्रति भी। समाज सेवा हो या फिर ज्ञान की सेवा दोनों ही मार्ग पर जैन धर्म अग्रणी रहा हैं कभी किसी किसी धर्म या उसके त्योहारों में वो आड़े नहीं आया फिर वो अजमेर चादर चढाने का अवसर हो या फिर ईद पर होने चहल कर्मी या फिर नवरात्री उत्सव फिर क्यों कुछ दिनों के लिए हम किसी धर्म विशेष की आस्था को ठेस पहुँचाये जबकि त्यौहार आते ही कुछ दिनों के लिए हैं क्यों न हम भी हर धर्मविशेष के त्योहारों का परोक्ष रूप से हिस्सा बने अधिक से अधिक उत्सवों को जीवन से जोड़कर खुशियों से जुड़े जरुरी नहीं की आप भी पर्युषण पर्व के नियमों में बंधे आप भी ईद को ईद की मनाये पर उसके मूल उद्देश्य को ही शांति और सहजता से स्वीकार करना उसे मानाने के जैसा ही होगा क्योकि किसी भी धर्म के त्यौहार का अंतिम लक्ष्य इंसान को इंसान से जोड़ना ही हो सकता हैं न की उनमे अराजकता या फूट की भावना या साम्प्रदायिक दंगो को जन्म देना।। शिव सेना हो या गणेशजी की सेना असली सेनापति वही जो किसी भी धर्म की रक्षा करना जानता हो उसका सम्मान करना जानता हो जैसे असली पुरुष वही जो किसी भी स्त्री का सम्मान और रक्षा करे न की सिर्फ घर की महिलाओं के प्रति समर्पित हो। मैं स्वयं भी एक राजपूत हूँ पर पर जैन धर्म के कुछ आदर्शों पर चलना उन्हें अपनाना अपने आप में गर्व महसूस करवाता हैं धर्म जीवन का दिशा निर्देशन करता हैं । मैने २६ वा रोज़ा भी रखा उस वक़्त जब में महज़ १७ वर्ष की थी अपने एक शिक्षक के जीवन के लिए प्रार्थना के रूप में। अहिंसा के साथ समझ और बुद्धिमानी से जीवन जीना भी धार्मिकता के अंतर्गत आता हैं उसे आप जैन धर्म से परिभाषित करे या किसी अन्य से। 
भगवान के मूर्तिमान स्वरूपों से अमूर्त रूप की आराधना करने में सुविधा होती है। दूसरे धर्मों के लोगों के बारे में क्या कहें खुद स्वधर्मी बंधु भी अपने भगवान के विभिन्न स्वरूपों के प्रति रूढ़ता का भाव दिखाते हुए कहते हैं कि हम तो अमुक भगवान के भक्त हैं अमुक के नहीं? इसके बावजूद गणेश जी के रूप के सभी उपासक होते हैं अपनी झूठी कटटरता से आप ऊँचे स्थान पर नहीं आ जायेगे क्योंकि उनके नाम लिये बिना कोई भी शुभ काम प्रारंभ नहीं होता ऐसी मान्यता रही हैं जो हमारी आस्था हैं । भारत विश्व का अध्यात्मिक गुरु कहलाता है। उसे वही बने रहने दे किसी प्रकार के साम्प्रदायिकता के बन्धनों में न बांधे क्योकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस तनाव पूर्ण जीवन में ये कुछ दिनों के पर्व हमें खुशियों का आभास करवाते हैं वरना रोज कमाना खाना ही हमारी दिनचर्या बनकर रह जाएगी हम उसे कभी जी नहीं पायेगे इसलिए त्यौहार मनाये थोड़ा सामजस्य के साथ जैसे हम अपने परिवार में रखते हैं सबके भिन्न भिन्न स्वभाव और आदतों के चलते ।
आरंक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए जातिगत नहीं। आरक्षण की जरुरत किसी भी 'गरीब' को हैं सिर्फ़ किसी जाति विशेष के गरीब को नहीं।
मदद का अर्थ
पुर्णतः सत्यता पर आधारित एक आलेख समय निकाल कर एक बार अवश्य पूरा पढ़े और विश्लेषण करे मदद किसकी करे और उसके क्या मायने .........
मित्रो आज आप सबके साथ अपना एक ऐसा अनुभव शेयर करने जा रही हूँ जो मैने पिछले कुछ दिनों में ही जिया हैं मुझे उम्मीद हैं आप भी शायद अपने जीवन में कभी न कभी इस दौर से गुजरे होंगे या निकट भविष्य में गुजर सकते हैं बात गत माह की हैं मेरी एक मित्र का फ़ोन मेरे पास आया जो मुझे कही न कही अपना शुभचिंतक मानने के साथ -साथ सहयोगी भी मानती हैं मेरी कोशिश भी रहती हैं की मुझसे जितना और जो हो सके मित्रता के अतिरिक्त मानवता और इंसानियत के नाते मैं किसी के भी लिए कुछ कर सकु फिर वो कुछ कर सकना वैचारिक भी हो सकता हैं और मानसिक भी सिर्फ पैसो से सम्बंधित ही हो ये कतई आवशयक नहीं अगर ईश्वर ने मुझे थोड़ी क्षमता किसी ऐसे कार्य को करने के लिए दी हैं जो किसी के काम आ सके तो में जरुर उसे करने का एक प्रयास करती हूँ तो बस इसी सोच के साथ मैने उसका फ़ोन पिक किया कुछ ..औपचारिक बातचीत के बाद उसने मुझसे कहा मेरी एक मित्र हैं उसे कुछ रुपयों की आवश्यकता हैं आप एक ऐसे व्यक्ति हो जो मदद कर सकते हो इस बात को कहने में मेरी वो मित्र थोड़ी असहज जरूर थी इसके लिए उसने पहले कुछ दिनों तक मुझे यूँ ही फ़ोन लगा कर बार बार मिलने का आग्रह किया मुझे कुछ दिनों तक तो समझ नहीं आया आखिर ऐसी कौन सी समस्या आ गयी की ये मुझसे मिलना चाहती हैं किंचित कारणों से में समय नहीं निकाल पा रही थी क्योकि में भी चाहती थी की जब भी उससे मिलू वो पूरा वक़्त उसी का हो एक महिला होने के नाते में उस दूसरी महिला के दर्द और समस्या को अच्छी तरह समझना चाहती थी उसने इस दौरान मुझसे मिलने के कारणों का कोई खुलासा नहीं किया न ही कोई संकेत लेकिन मुझे कुछ अंदेशा हुआ फिर जिस दिन मेने उससे फ़ोन पर बात की तब उसने मुझसे आग्रह किया की उसकी एक मित्र हैं जिसे अतिआवश्यक रूप से कुछ रुपयों की आवश्यकता हैं आप ही मुझे नजर आये आप समझते हो दूसरों की परेशानियों को और मदद कर सकते हो आपने मुझसे कहा भी था की जब भी मेरी कोई हेल्प लगे बेझिझक कॉल कर सकती हो इसलिए मैने आपको फ़ोन किया ये सब उसके द्वारा मुझे कहा गया
मैने कहा रुपयों की आवश्यकता तुमको नहीं तुम्हारी मित्र को हैं जिसे मैं जानती भी नहीं हूँ पहली बात दूसरी बात तुमने एक उम्मीद रख कर मुझे फ़ोन किया हैं तो मैं तुम्हे निराश तो नहीं होने दूंगी पर आश्वस्त भी नहीं कर सकती जब तक मैं थोड़ा समझ न लू कहने का अर्थ अभी में कमिटमेंट नहीं कर सकती क्योकि मुझे उनसे मिलना पड़ेगा और चीजो को उनकी जरूरतों को समझना पड़ेगा उसके बाद ही में कोई जवाब दे पाऊँगी अगर आपको जरुरत होती तो फिर भी मैं इतना विचार विमर्श नहीं करती पर पेसो के मामले में भावनाओं से नहीं बुद्धिमानी से काम लेना जरुरी हैं अगर रिश्तों को जिन्दा रखना हैं उनकी वजह से आपके और मेरे रिलेशन ख़राब न हो जाय। ऐसा मेरा मानना हैं यही बात मेने अपनी मित्र से कही उसने जवाब दिया ठीक हैं मैं आपकी उससे अभी बात करवा देती हूँ वो अभी मेरे साथ ही हैं फिर उस अनामिका नामक महिला ने मुझसे बात की [बदला हुआ नाम ] कहा नमस्ते मैडम------ मेरी पिछले माह की सेलरी थोड़ी ज्यादा कट जाने के कारण मुझे कुछ लोगो को पैसे देने थे वो नहीं दे पायी और वो प्रेशर बना रहे हैं में बहुत परेशान हूँ इस वजह से अगले माह की की तनख्वा आने तक आप मुझे कुछ रूपए उधार दे दीजिये मैं आपको उसका ब्याज भी दूंगी। उसे 5000 रुपयों की आवश्यकता थी एक माह के लिए जो वास्तव में बहुत बड़ा अमाउंट नहीं था पर उसे देने के लिए मेरा उस पर विश्वास का बड़ा होना और उसकी परेशानी का मुझे वास्तविक लगना ज्यादा जरुरी लगा। मैने पूछा----- आपको पता नहीं था की इस माह आपकी तनख्वा कितनी कटने वाली हैं और उस हिसाब से आपने देनदारों से बात नहीं की, वो कुछ स्पष्ट जवाब नहीं दे पायी जिसकी वजह से मुझे महसूस हुआ उस महिला की जरुरत सिर्फ आज की नहीं हमेशा ही रहने वाली हैं इस समस्या का परमानेंट समाधान सिर्फ मेरे ५००० रुपयों के दे देने से नहीं होगा दरअसल मै उसकी समस्या की जड़ को समझना चाहती थी न की उसे वर्तमान की समस्या का समाधान कर उसे पैसे मांगने का आदि बनाना चाहती थी इसलिए मैने फ़ोन पर ही उसकी पारिवारिक पृष्टभूमि और वापस लौटने के सौर्सेस के विषय में विस्तार पूरक जानकरी ली जिसमे वो मुझे कन्वेंस करने में पूरी तरह असफल रही बल्कि वो मुझसे एक झूठ भी बोल गयी की उसका अगले महीने एक ५०००० हजार का लोन भी पास होने वाला हैं जिसके चलते वो मुझे मेरे पांच हजार लौटा देगी।
फिर मैने कहा आप आपके देनदारों को लौन के विषय में स्पष्ट कर दें वो भी तो एक माह तक रुक सकते हैं वो बोली नहीं मेम वो नहीं मान रहे हैं दरअसल मैं उसकी जरुरत की गहराई और सत्यता को परखना चाहती थी मैं चाहती थी की वो मुझसे सत्य कहे फिर मैने ज्यादा कुछ बात न करते हुए उस महिला से कहा की आप मेरी मित्र को फ़ोन दो मेरी मित्र ने फोन हाथ में लिया तब मेने उनसे कहा देखो मदद और जरुरत दोनों ही बातें अपनी जगह अलग अलग रूप से परिभाषित भी होती हैं तुमने सबसे पहले मुझसे मदद लेने का अर्थ पैसों में समझा इस बात का मुझसे खेद हैं मदद के अर्थ कई तरह के होते हैं पर हर स्तर के व्यक्ति के द्वारा जरुरत की परिभाषाये अलग अलग होती हैं जेसे जिसे पैसों की आवश्यकता नहीं उसके लिये जरूरत का अर्थ कुछ होगा लेकिन एक मिडिल क्लास या उससे कम वर्ग के लिये जरुरत का अर्थ सिर्फ पैसों से जोडकर ही लिया जाता हैं ये में भी समझती हूँ कहने का अर्थ इस तथ्य से में सहमत थी की मेरी मित्र ने मेरे द्वारा मदद का अर्थ पैसों से सम्बंधित ही क्यों समझा
ये एक एसी मदद हैं जो दिखाई देती हैं लेकिन बहुत सार्री एसी मदद हैं जो दिखाई नहीं देती सिर्फ महसूस की जा सकती हैं शायद एक माध्यम वर्गीय या संघर्षरत परिवार में दिखाई देने वाली मदद ही सबकुछ होती हैं क्योकि कही न कही वो आधारभूत और अनिवार्य आवश्यकता का एक हिस्सा होती हैं इसलिए मेने अपनी मित्र से कहा देखो में उनकी जरूरत से तो सहमत नहीं हो पा रही हूँ उनकी बातों में जो कॉन्फिडेंस मुझसे दिखाई दिया इससे मुझसे महसूस हुआ की की वो आदतन हैं इस तरह रुपयों की जरुरत से जूझने की साथ ही तुम नहीं समझोगी कुछ बातें पर मुझे उसमे वो दिखाई दी तुम भावुक हो गयी उसकी मदद मेरे द्वारा लेने के लिये लेकिन समझदारी से काम लो वो नहीं लौटा पायेगी समय पर ये में जानती हूँ जिसकी वजह से मेरे और तुम्हारे बीच खटास पैदा हो सकती हैं फिर मुझे लौटने के लिये वो किसी और से उधार लेगी बस यही चलता आ रहा हैं अब तक ये तुम नहीं जानती पर मुझे महसूस हुआ.. मेरी मित्र ने मुझे सही समझा और कहा शोभाजी आपकी बात हैं तो सही पर फिर में चाहती हूँ की कुछ न कुछ आप उसकी मदद कर दे उसके पैसे लौटने की ग्यारंटी मेरी अगर वो नहीं भी देगी तो मैं आपको दूंगी मेने जवाब दिया जब तुम्हारा ये वर्क प्रोफाईल नहीं हैं तुम खुद एक संघर्षरत जीवन जी रही हो दूसरों के फटे में क्यों उलझ रही हो तुम कहाँ से लाओगी फिर मुझे तुमसे वसूलना शोभा नहीं देगा
तुम इस बात को प्रैक्टिकल लो तुम उसे कितने समय से जानती पर नहीं समझ पाई मेने अभी २० मिनट बात की मिली भी नहीं पर कुछ भी पॉजिटिव और गले उतरने वाला नहीं लगा यार केसे मदद कर दू हैं अगर वो खुलकर सही सही सार्री बाते बताये तो हम बैठकर उनकी ये बार बार पैसों की जरुरत न पढ़े इस बात का कोई हल निकालसकते हैं उनके पति हैं बच्चे हैं माता पिता भी उनके साथ हैं फिर वो इतनी व्याकुल क्यों हैं ऐसे कौन लोग हैं जो इतने कम पैसों के लिये उन्हें इतना परेशान कर रहे हैं इन सब बातों पर सोचना भी जरुरी हैं सिर्फ पैसा दे देने से बात खत्म नहीं होगी और वो नहीं लौटा पायेगे समय पर इस बात को लेकर में आश्वस्त हूँ ...इस बात को भी तुम समझो की पैसा मेहनत से कमाया जाता हैं वो एक रुपया हो या एक हजार में भी देकर भूल जाने वाली तो नहीं मेहनत का हैं आखिर... एसी समाज सेवा तो लोगो को अकर्मिक और परजीवी बना देगी मित्र ने जवाब दिया आपकी बात तो बिलकुल सही हैं मेने कहा पहली चीज तुम अपने दिमाग से एक बात निकल दो की मदद का अर्थ सिर्फ पैसा ही होता हैं आगे के लिये ध्यान रखना और इस तरह से किसी भी व्यक्ति को बिना अच्छी तरह जाने परखे और पहचाने उसकी ग्यारंटी लोगी तो तुम मुसीबत में आ जाओगी एक साल से तुम्हारी उसके साथ जान पहचान हैं में भी तुमको एक ही साल से जानती हूँ पीएचडी के कारण हम मिले पर मैने तुम्हे जानने के साथ समझा भी और तुमको लेकर में कॉंफिडेंट हूँ आश्वस्त हूँ तुम्हे कभी गलत रास्ता नहीं दिखाउंगी दोस्त होने के नाते और इंसानियत के नाते भले ही मेरा फायदा हो
मेरी मित्र को शायद मेरी बातें सही होती प्रतीत हुई फिर वो बोली अब आप ही बताओ मेने उसको आपको लेकर बहुत विश्वास दिलाया था आपने ,मुझे भी तो हमेशा सही समय पर हेल्प किया मेरी परेशानिया भी आप ही हल करती हो मेने जवाब दिया तुम्हारी कोई भी परेशानी पैसों से सम्बन्धित नहीं थी तुम्हे तो सिर्फ मोटिवेशन चाहिए था थोडा निराश थी हर इन्सान के जीवन में पारिवारिक और व्यक्तिगत कारणों से समस्याए आती हैं मेरे जीवन में भी ऐसा होता हैं बस कुछ लोग स्वयं उनका हल निकाल लेते हैं कुछ अपनों के साथ मिलकर दोस्तों से इकहरे विमर्श कर ... मेने अब तक तुम्हारे साथ वही किया जिसे तुम ‘मदद ‘ कहती हो मुझे वो फर्ज लगा बस ......
मेने अपनी मित्र को कहा अब चुकी तुम्हारी बात रखना भी जरुरी हैं और इसलिए में उस महिला से मिलना तो नहीं चाहूंगी क्योकि वो मेरे साथ स्पस्ट नहीं हैं और उनके झूठ और घुमावदार बातें मुझे irrited कर जाय इसलिए इस काम को करते हैं प्रोफेशनली तरीके से सिर्फ आपके behalf पर मेरी मित्र ने बिना ये जाने की में क्या कहना चाह रही हूँ धन्यवाद् की झड़ी लगा दी मेने कहा पहले सुन तो लो
आप उस महिला को बोलिए की मैं सिर्फ आपकी वजह से उनके लिये ये सब कर रही हूँ न की उनकी मज़बूरी और जरूरतों के चलते क्योकि वो मेरे गले नहीं उतरी पहली बात ......दूसरी बात आप उनसे ये भी कहे की अगर वो महिला पैसे नहीं दे पाई तो पैसे मुझे [आपको ] लौटने होंगे तयशुदा तारीख पर चुकी मेरी मित्र की वजह से में ये काम कर रही हूँ इसलिए इस पर ब्याज माफ़ हैं और ये सिर्फ मित्रता के संयोगवश हो रहा हैं जरुरत के विश्वसनीयता के चलते नहीं..... इसलिए पुरे पांच हजार का जोखिम नहीं लेते हुए में उनकी 2500 रुपयों से मदद बिना ब्याज के कर सकती हूँ किसि के द्वारा दिलवाकर जो होगा वास्तव में मेरा ही. पर दिखाया ये जायेगा की की किसी और ने दिए हैं ये पैसे ठीक हैं न ....
इस पर मेरी मित्र खुश हो गयी अगले दिन मेने अपनी मित्र को फ़ोन किया 2500 रूपए देने के लिये तब उन्होंने कहा की वो लेने आने में असमर्थ हैं इसलिए वो उसी महिला को लेने भेज रही हैं मेने कहा ठीक हैं जिस व्यक्ति के हाथ में भेज रही हूँ उनका नम्बर आप उस महिला को दे दे वो उनसे बात करके कॉर्डिनेट कर लेगी मित्र ने कहा थैंक यू सो मच शोभाजी मैं जानती थी आप मदद अवश्य करेंगी मेने कहा थैंक यू की कोई अत नहीं आप मुझसे परसों लाइब्रेरी में मिलो फिर बात करते हैं फ़ोन पर नहीं दरअसल मैं उनको मदद के मायने जरा विस्तार में समझना चाह्हती थी जिससे वो भविष्य में भी इस बात को गहराई और गंभीरता से ले सके ......
मेरी मित्र बोली जरुर जरुर चूँकि मुझे उस महिला तक पैसे पहुचने थे इस वजह से मेरे ऑफिस के एक क्लाइंट जो कही न कही फॅमिली मेम्बर जेसे ही हैं और एक बेहद अच्छे इन्सान भी हैं उनको मेने पैसों के साथ भेजा उस महिला का फोन भी उनके पास आ गया था दोनों सही वक़्त पर मिल गए और उस महिला का काम हो गया लेकिन......
उस महिला ने मेरे क्लाइंट को अपनी समस्त परेशानियों से जो मुझसे जिस तरह से शेयर की थी उस व्यक्ति को बताई और कहा मुझे 2500 रुपयों की और आवश्यकता हैं अगर आप मेरी मदद ........ तब उस व्यक्ति ने जवाब दिया शोभा मैडम ने तो इतने ही दिए हैं आपको देने के लिये चूँकि आपने मुझसे अपनी परेशानी कही तो में देखता हूँ कोई मेरा परिचित अगर आपकी मदद कर पाए........ उस महिला ने उनका नम्बर सेव कर लिया बस उसके बाद वो निरंतर मेरे ऑफिस वाले उस व्यक्ति क्लाइंट से संपर्क में रही जिसकी जानकारी मुझे निरंतर मिलती रही हर एक बातचीत की अंततः मुझसे सर ने कहा की मैडम क्या करूँ उस महिला का अक्सर फ़ोन आता हैं और पैसों के लिये
मेने कहा माना कर दो स्पष्ट कह दो मेरे बगैर जानकारी के आप कुछ नहीं कर पाओगे इसके लिये आपको शोभा मेम से ही बात करनी होगी उन्होंने वही किया फिर कुछ दिनों बाद जब उस महिला को ये महसूस हुआ की वो शख्स अब उनके फ़ोन पिक नहीं करता हैं तो मेरे पास फिर से उस महिला का फ़ोन आया करींब आठ दिनों बाद 2500 रूपए और चाहिए थे मेने मना नहीं कहा अबकी बार .....लेकिन प्रोफेशनली अब सारी बातें कही मेने कहा में आपको और 2500 रूपए दे देती हूँ आप कुछ ओप्चारिक्ताये पूरी करनी होगी जेसे सिक्यूरिटी के तौर पर गोल्ड या सिल्वर मेरे पास रख दे उसके अगेस्ट में मैं आपको दे देती हूँ क्योकि मित्रतावश ,में आपको 2500 पहले ही दे चुकी हूँ वो भी बिना ब्याज के इन ढाई हजार पर तो आपको सिक्यूरिटी के साथ साथ ब्याज भी देना होगा अगर कुछ हैं तो ले जाएये वो बोली ------
मैडम वो तो नहीं हैं अक्सर में तो चेक स्टाम्प रख कर ही उधार लेती हूँ मेने कहा फिर वही से ले लीजिये क्योकि में इस तरह से काम नहीं करती बिना सेफ्टी के मैं नहीं चाहती आज जो आपसे मेरी हाय हेलो हो रही हैं वो भी बंद हो जाय मैं नहीं चाहती जितनी पारदर्शिता रखेंगे उतना बेहतर होगा वो बोली फिर देखती हूँ मेम... मेने कहा हैं बिलकुल इसे व्यक्तिगत होकर तो नहीं कर सकते न .....वो बोली ठीक हैं मेम
लेकिन उसने पुराने पैसों को लौटने के विषय में कोई भी बात नहीं की अंततः फ़ोन रखते वक़्त मुझे ही पूछना पड़ा आपने जो पहले 2500 लिये हैं वो आप अगले महीने की 10 तारीख को लौटा देंगी न क्योकि वो मेने किसी और से आपको दिलवाए हैं वो सिर्फ इतना बोली yes मेम आपको उससे पहले ही दे दूंगी ये बात और हास्यप्रद लगी ........
इस माह की ७ तारीख को मेने अपनी मित्र को फ़ोन लगाया याद दिलाने के लिये की 10 को उस महिला से पैसे लेने हैं मित्र ने कहा में आज ही उसे बोल दूंगी और आपको दे दूंगी उसके बाद से आज तक न तो महिला फ़ोन उठा रही न मेरी मित्र...... न ही मेरी मित्र मेरे मेसेजेस का जवाब दे रही हैं जिसका मुझे पूर्व अंदेशा था मेने भी वो पैसे एक अनुभव लेने के लिये इस्तेमाल किये जो मुझे मिला अगर ‘मदद’ का अर्थ सिर्फ पैसों से ही हैं तो दुनियाँ में किसी को किसी की मदद नहीं करनी चाहिए क्या इस पुर्णतः सत्यता पर आधारित आर्टिकल में बहुत कुछ हैं जो अनुभव किया जा सकता हैं
मुझे लगता हैं किसी भी इन्सान की मदद करने से पहले उसकी जरूरतों का आंकलन करना अत्यंत आवश्यक हैं क्योकि जरुरत तो हर रोज हर इन्सान की हैं पर पूरी करने योग्य कितनी हैं उनका स्तर क्या हैं वो सबसे महत्वपूर्ण हैं
पुरुस्कारों की वापसी।।।। 
मित्रों पिछले कुछ समय से अख़बारों में पुरस्कारों को लौटाने के चर्चे खुमार पर हैं इसी पर मैं आज अपने विचार आपके समक्ष इस आलेख के माध्यम से रख रही हूँ मुझे व्यक्तितगत रूप से इसका बेहद दुःख हैं की साहित्य के संसार में उसकी विशिष्टता पाने वाले ही उसे लौटाकर उसका निरादर कर रहे हैं मैं इस विषय के कारणों पर कतई नहीं जाना चाहती पर पिछले समय में इतने वरिष्ठ साहित्यकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कारों से नवाजा गया जिनमे से आलोचक अशोक बाजपाई जी भी थे जिन्होंने नए रचनाकारों और उनकी रचनाओं पर कटाक्ष भी किया था उन्होंने भी इस सम्मान को लौटाया ये जानकर दुःख हुआ हम उनसे सीखते हैं समझते हैं पर फिर भी निराश हैं उनके इस निर्णय से.. उनके इस कटाक्ष को अपने पिता तुल्य होने और इस क्षेत्र की वरिष्ठ गरिमा होने के नाते हम उनकी बातों का विद्रोह नहीं कर रहे पर विरोधाभास अवश्य महसूस हो रहा हैं पुरस्कार लौटने के लिए नहीं दिए जाते ये कही न कही उनका तिरस्कार हैं पाने वाले के प्रति पाठको की आस्था पर प्रश्न चिन्ह भी. क्या हम इसलिए उन्हें अपनी प्रेरणा मानते हैं ये अभी निरतंर हो रहा हैं दरअसल सेकुलर साहित्यकारों द्वारा साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने की घटना ने कार्लमार्क्स के सिद्धांत को पुनरुज्जीवित कर दिया। मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक वस्तु या व्यवस्था के नष्ट होने के गुण उसमें ही स्थित होते हैं. पहले वाद होता है , उससे विवाद निकलता है फिर वाद-विवाद से संवाद चलता है और उससे एक नया वाद बनता है.ये तथाकथित साहित्यकार अपने वाद का स्वयं विवाद बन गए. अपने द्वारा बनाए गए माटी के घरौंदे वे स्वयं ही गिराने लगे क्योंकि वे जर्जर हो गए हैं। किसी भी बात का गुस्सा साहित्य अकादमी पर निकालना तथा कथित महान साहित्यकारों की सोच विचार और भावभूमि को इंगित करता हैं जबकि साहित्य समाज और देश को कितना प्रभावित करता हैं इस बात से वे भली भाति पररिचित हैं. ये सृजन, संवेदना, अनुभूति, अभिव्यक्ति का तिरस्कार हैं जिनसे मिलकर साहित्य बनता हैं मेरा अनुरोध हैं सम्माननीय समस्त वरिष्ठ साहित्यकारों से की कृपया साहित्य की गरिमा और पाठको के उत्साह के लिए ही सही इसें किसी भी रूप में व्यक्तिगत न ले न ही इसे राजनीति से जोड़े साहित्य का अपना एक अलग संसार हैं जो बेहद मार्मिक पारदर्शी और संवेदनशील हैं उसमे सृजन होता रहे न की वो पुरस्कारों को लौटाने से एक निर्जर भूमि बन जाय ,साहित्य अकादमी पुरस्कार साहित्य की गरिमा हैं टैगोर ने भी भी लौटाया था पर 'नाइटहुड' साहित्य का नोबल नहीं। यह सम्मान लेखकों की उपलब्धि पर हमारे समाज की भावांजलि हैं कही ऐसा न हो जाय की मूल्यों के द्रण रहने के संकल्प और असहिष्णुता के वातावरण में एक समय ऐसा न आ जाय की लेखक पुरस्कार वापस पाने के लिए अनुरोध करे। निः संदेह विरोध करने वाले लेखकों का विरोध वाजिब भी हो सकता हैं आखिर वे समाज के मार्गदर्शक हैं गलत अभियक्ति नहीं देंगे परन्तु लेखन में रचनात्मकता को बढ़ावा देने और उपलब्धियों की गरिमा को सजीव रखने के लिए बौद्धिक स्वतंत्रता का वातावरण बहुत जरुरी हैं मेरे विचार में किसी भी तरह के विरोधाभास को अभिव्यक्त करने के लिए पुरस्कार लौटना अंतिम विकल्प नहीं हो सकता। अगर मेरे इस आर्टिकल से किसी की व्यक्तिगत रूप से भावनायें आहत हुई हैं तो मैं तहे दिल से क्षमा प्रार्थी हूँ मेरा उद्देश्य निश्चिततौर पर स्पष्ट हैं इसलिए इसे कतई व्यक्तिगत न लें 
दुनियाँ में कोई भी काम तीन बातों की वजह से होता हैं पहली - जरूरत, दूसरी- मजबूरी, तीसरी शौक [पसंद,हॉबी] इन्ही तीनों के मध्य जंजाल में जिम्मेदारी फर्ज और अन्य- अन्य पर्याय के रूप में हमारी पूरी 'करनी' या कृत्य से सम्बंधित 'बातें निहित हैं जो किसी भी काम को करने के लिए हमें प्रेरित करती हैं परन्तु मूल में तीन ही समाहित हैं। कहीं पर दो कही पर तीन परन्तु इनमे से ही कोई एक। पर इन्ही तीन के भीतर भिन्न -भिन्न अर्थो पर निर्भर हैं हमारे जीवन की कार्मिक प्रक्रिया। इन तीनों के इर्द गिर्द ही परिणाम भी उसी मुताबित ही आते हैं क्योकि जरूरत के लिए किये गए काम के तौर तरीके और परिणाम भिन्न होते हैं ,मजबूरी में किये गए काम की सूरत अलग ही नजर आती हैं.. और शौक या पसंद से किये गए काम की खूबसूरती अलग ही शोभा देती हैं । इसलिए जब भी आप कोई भी काम करे एक बार ये अवश्य सोचे की ये काम आप क्यों करना चाहते हैं। फिर शायद कभी आप परिणामों से आश्चर्य नहीं करेंगे। 
जीवन एक त्यौहार की तरह हैं और अस्तित्व एक उत्सव जैसा जब हम जीवन में उत्सवों को जीने लगते हैं हमारा जीवन उसी क्षण परिवर्तित होता चला जाता हैं इसलिए कभीं न थमने वाली इच्छाओं के वशीभूत होकर अपने वर्तमान का शोषण न करे और अपने जीवन की पीढ़ा को अंतहीन समय न बनने दे। हमारे आस पास बहुत खूबसूरती हैं बल्कि हमारे भीतर भी उसे भरपूर जिए, प्रकृति की सुंदरता, पेड़ों की भाषा, पुष्पों के रंग, जंगल का मौन महसूस करें जीवन को उत्सव में शामिल करें इसी से जीवन बनता हैं और उत्सव कभी खत्म नहीं होता यही अस्तित्व का आग्रह भी हैं.। परन्तु या तो हम इतिहास में जीते हैं या भविष्य में, और फिर वर्तमान हमसे निरंतर दूर होता चला जाता हैं, जो नहीं हैं उससे दुःखी, जो है उससे अतृप्त, यही हमारे दुःख का कारण हैं.. यही हमारे जीवन का दुर्व्यवहार भी। इसलिए उत्सवों में भाग लेना सीखे न की उनसे भागना।
'मुलाकात' शब्द याद दिलाता हैं कई रिश्तों में बंधी स्मृतियों को दोस्ती, प्रेम या फिर वो रिश्ते जो हमने बनाये नहीं हमें विरासत में मिले हैं.. हर रिश्ते के साथ मुलाकात के अलग -अलग अनुभव हमें कभी- कभी डुबों देते हैं हमारे गुजरे वक़्त में जिसे हम इतिहास कहते हैं । हमारे जीवन की अहम बातों में शामिल हैं कुछ मुलाकातों की अनुभूति जिसे हम जीते हैं एकांत में। आपके जीवन में भी अगर कोई मुलाकात बेहद अविस्मरणीय रही हैं तो उसे तब जरूर स्मृतिपटल पर अंकित करे जब आप अपने जीवन के किसी कठिन दौर से गुजर रहे हो जिसे टाला जाना थोड़ा दुष्कर प्रतीत हो रहा हो और किसी को ये आभास भी नहीं देना चाहते की आप कितने अकेले हैं इस भीड़ में। उस वक़्त ये मुलाकातें कभी -कभी वो असर कर जाती हैं जिसे हम वास्तव में मिलकर भी नहीं समझ पाते लेकिन उन कठिन क्षणों में उन स्मृतियों का आभास मात्र हमें एक बार फिर से ऊर्जावान बना देता हैं ये एक ऐसा मनोवैज्ञानिक नुस्खा हैं दुर्बलताओं और कमजोर दौर से उबरने का की न तो इसकी कोई कीमत देनी हैं न निर्माण करना हैं ये वो पुरानी ओषधि हैं जिसका प्रयोग पुराने होने के साथ -साथ उपयोगी और गुणकारी होने लगता हैं उदाहरण के तौर पर अपने पिता के साथ गुजारा वक़्त या फिर अपनी माँ के साथ हुई गंभीर या मन की बातें। भाई -बहनों के साथ कोई विशेष स्मृति या फिर दोस्तों के बीच गुजरे सुख- दुःख के पल या फिर हृदय के सबसे करीब किसी इंसान के साथ जिया समय.। ये सब मुलाकातों के ही पात्र हैं जो हमारे जीवन की ओषधि बन जाते हैं जितने पुराने होते हैं उतने अधिक गुणकारी।
पढने और जीवन में उतारने में बहुत फर्क होता हैं.। '
दोस्तों अक्सर हम बहुत ही उच्च दर्जे की किताबें जिनमे उदाहरण स्वरुप साहित्य, मोटिवेशन सम्बन्धी, सफलता हासिल करने सम्बन्धी और अन्य -अन्य सकारात्मक विचारों सम्बन्धी किताबे पढ़ते हैं या फिर इस तरह के आलेख पढ़ने का शौक रखते हैं परन्तु क्या हम इस शौक को वास्तविक जीवन में उतार पाते हैं अक्सर मैने 11, 12 और collage के विद्यार्थियों के पास व्यक्तित्व विकास याने पर्सनालिटी डेवपलमेंट सम्बन्धी किताबें उनकी अलमारी या बैग में अक्सर देखि परन्तु उनके जीवन में उससे जुडी आधारभूत बातों का अभाव ही पाया। कभी- कभी एक मनोवैज्ञानिक कारण हो सकता हैं की हम सिर्फ उस तरह की किताबों को पास में रखने और कुछ समय उनके साथ समय बिताने को समझ बैठते हैं की हम उन्हें जीवन में उतार भी रहे हैं पर वो दिखने में ऐसा प्रतीत होता हैं पर वास्तविकता बहुत कठिन प्रतीत होती हैं स्वेट मर्टन और शिवखेड़ा की किताबे और 'लोकव्यवहार कैसे करें' जैसी किताबें पास में रखने से हमारे व्यक्तित्व को अनुशासित अवश्य दर्शाती हैं लेकिन उन किताबों में लिखी बातों को वास्तविक जीवन में उतरने से वास्तव में वो हमारा व्यक्तित्व वैसा ही बनाती हैं मैने कुछ विधयर्थियों को ये करनें के लिए की कहा जो किताबे वो रखना पसंद करते हैं उन्हें अपनाना भी शुरू कर दे [पाठ्यक्रम से हठकर] और फिर अपने जीवन में,अपने व्यवहार में आये बदलाव को स्वयं महसूस करें सिर्फ पढन्तु या दृश्यानुशसित न बने वास्तव में बने.। बार- बार पढ़े तब तक जब तक उसे अपनाने पर विवश न हो जाय १० बातों का रेपिटेशन होगा तो तीन अपने आप आदत में शामिल होने में आसान हो जाएगी और धीरे धीरे आपके स्वभाव का हिस्सा भी इसलिए मेरा हर माता-पित,मित्र और मार्गदर्शक से अनुरोध हैं अगर आप अपने आस पास किसी को इस तरह अच्छी किताबों का कलेक्शन करते देखे तो उसे एक बार अवश्य उसमे लिखी बातों को प्रायोगिक रूप से अपनाने के लिए प्रेरित करें उसके बाद उनमे आये बदलाव को उन्हें महसूस भी करवाये ये आपकी परोक्ष रूप से समाज सेवा भी हैं और किसी को अच्छे कार्य की पूर्णता के लिए मोटीवेट करना भी क्योकि अच्छा कार्य सिर्फ अच्छी किताबें पढ़ने तक सिमित नहीं जब तक उसका उपयोग हम वास्तविक जीवन में न करें उस कार्य की पूर्णता उसको अपनाने में निहित हैं। और किसी चीज को अपने पास रखना और अपनाना दोनों में बहुत फर्क होता हैं । 
दूसरों के दुःख भुलाने का फन नहीं आता
ख़ुशी को अपनी छिपाने का फन नहीं आता
कमी एक और दी हैं खुदा ने हमें
ग़मों को अपने दिखाने का फन नहीं आता
कोई गुजरे इस राह से तो पढ़ ले भला
किसी को पढ़कर सुनाने का फन नहीं आता
वो एक दरमियाँ बन गयी हैं लकीरें मज़हबी
मगर दिवार उठाने का फन नहीं आता
माना,
दिल को लुभाती हैं अदाकारी हर कला की मगर
किसी के नाज उठाने का फन नहीं आता
हम भी गुजरे हैं दुनियाबी ग़मी दरख्तों से
हमकों पर आंसू बहाने का फन नहीं आता 
पुरुस्कारों की वापसी के संदर्भ में। ... 
सम्मान तब अपयश बन जाएगा जब आप किसी एक अन्याय, एक अत्याचार,एक अंधेर पर विद्रोही दिखेंगे -किन्तु दूसरे अन्याय पर शांत रहेंगे लेखकों को विचारोत्तेजक होना शोभा देता हैं पर व्यक्तितोजक होना नहीं ,लेखकों को अपने विरोधाभास और विद्रोह को अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त करना उनके सच्चे लेखक होने का प्रमाण बन जाता हैं न की पुरुस्कारों को लौटाने जैसे और अनशन पर बैठ जाने से वे अपनी एक अनुशासित छवि को पाठको के समक्ष एक विद्रोही व्यक्तित्व की छाप छोड़ रहे हैं जबकि विरोध और विद्रोह उनकी लेखनी के अलंकार हैं उनके व्यक्तित्व के नहीं।  [पिछला आलेख 'पुरस्कारों की वापसी' के संदर्भ में ]
सबसे आसान हैं भावनात्मक होना किसी भी गलत काम को करने या ढाकने का सबसे सरल जरिया भावनाए हैं अक्सर भावनाओं का दुरूपयोग ही होता आया हैं जब जब वो हावी हुई हैं समझ दरकिनार हो गयी भावनाओं से भी कही ऊपर एक सबसे अहम् बात हैं वो हैं 'अनुभव' और अच्छे और बुरे अनुभवों का लाभ उठा कर उनसे प्रेरित होकर उठाये गए हर कदम जीवन को बहुत वजनदार और बेहद सफल और आत्मविश्वासी बना सकते हैं दुनियाँ का कोई भी रिश्ता सिर्फ भावनाओं पर नहीं चल सकता भावनात्मकता के साथ सबसे अहम समझदारी का होना आवशयक हैं हर उम्र में अलग -अलग भावना और अनुभव होते हैं हर परिस्थिति में भावनायें स्वतः ही विधमान होती हैं हमारी उम्र, अनुभव और भावनाओं के साथ साथ अगर समझदारी में भी पर्याप्त इजाफ़ा हो जाय तो दुनियाँ के किसी भी रिश्ते को निभाना और निभाने के योग्य बन पाना आसान होगा.. भावनायें हमारे लिए महत्वपूर्ण जरूर हैं पर यथार्थ से परे नहीं हो सकती न ही उनसे ऊपर इसलिए भावनाए भी तब तक पुरती हैं जब वो पूर्णतः वास्तविकता और समझ के साथ अभिव्यक्त की जाय 'अति भावुकता' सदैव नुकसान दायक ही रहती हैं किसी भी पहलु की वास्तविकता और समझदारी से लिया गया निर्णय कभी किसी भी प्रकार की क्षति नहीं पंहुचा सकता जो रिश्ता फलों के सामान कठोरता की उपरी परत से बना होता हैं निश्चित ही उसके भीतर भावना की नर्माहट और मिठास स्वतः ही मौजूद होती हैं लकिन जिस रिश्ते में ऊपर से जरुरत से ज्यादा भावनाए और अभिव्यक्ति की नर्माहट होगी वो जीवन की एक छोटे से कठोर झरोखे से ही टूट जायेगा इसलिए रिश्तो की परत यथार्थता के साथ अनुभवों की गहरी समझ की कठोर परत से बनायीं जाय जिसके भीतर गहरी भावनायें छिपी हो ...एक फिलॉसफर ने लिखा हैं ----१-पहले जो जरुरी हैं वो करे, 2-फिर जो आवशयक हैं वो करे, ३-उसके बाद आप वो कर जायेगे जो असंभव सा लगता हैं लेकिन भावनाओ को सर्वोपरि मानने वाला तीसरे नम्बर से अक्सर शुरुआत करता हैं जस्बाती होकर सिर्फ सेलाब ही उठाये जा सकते हैं अपनी समझ को हमेशा सबसे उपर रखे जीवन की हर परिस्थिति में...अक्सर भावनात्मक होकर बनाये रिश्तों से कही जयादा बेहतरीन जीवन वो रिश्ते जीते हैं जो आपसी समझ-[mutual understanding ], समान वैचारिक द्रष्टिकोण, सोचने का तरीका, और अनुशासित जीवन शैली से जिए जाते हैं उसके बाद उनमे भावनाये अपनी पैठ स्वतः ही बना लेती हैं जहाँ ये तीन चीजे हैं वहां शायद कोई रिश्ता न भी हो तो भी उस रिश्ते में बहुत बेहतर जीवन जिया जा सकता हैं ..
हम जो और जैसा सोचते हैं जिसके भी विषय में वास्तु या व्यक्ति हमारी सोच उसी दिशा में गतिशील प्रतीत होती हैं कभी कभी हमारी सोच उस बात के प्रति आस्था का रूप भी धारण कर लेती हैं फिर तथ्यों की वास्तविकता और महत्व फीके पढ़ जाते हैं सत्य तो ये हैं की किसी व्यक्ति के लिए अगर आपको सोच बेहद नकारात्मक बानी हुई हैं और इत्तफाक से उससे जुड़ा कोई काम आपको हानि पहुँचाता हैं या फिर मानसिक क्षति तो आपका पूरा ध्यान उसी पर जायेगा की शायद उसी ने किया होगा या यही हुआ होगा आपकी उसके प्रति सोच वास्तविकता का रूप लेने लगती हैं. आधुनिकीकरण के इस दौर में वर्तमान समय तथ्य – आधारित है परंतु यह भी सत्य है कि आस्था और तथ्य दो अलग – अलग बातें हैं. विज्ञान की भाषा में प्रकृति का आधार ऊर्जा है तो आस्था का आधार भाव है. भारतीय चिंतन के अनुसार व्यक्ति जिस भाव से भगवान के प्रति अपनी आस्था प्रकट करता है, उसी अनुरूप उसे भगवान का सान्निध्य मिलता है। सोच हमारे क्रियान्वयन को गति देती हैं अच्छी सोच उसे सकारात्मक बना देती हैं फिर तथ्य भी आपको अपने पक्ष में ही प्रतीत होते क्योकि आप उसके प्रति पॉजिटिव ऊर्जा लिए हो कहने का तात्पर्य हमारे कार्यों पर हमारी सोच अक्सर हावी रहती हैं इसलिए सोच में गहरा चिंतन होना अत्यंत आवश्यक हैं परिस्थितियां अच्छी या बुरी नहीं होती हमारा नजरियां उन्हें अच्छा या बुरा प्रतीत करता हैं जो हमारे पक्ष में नहीं वो बुरा जो पक्ष में वो अच्छा। जबकि उससे ऊपर भी कुछ हैं उस गणित को समझ लिया तो आप स्वयं को हर परिस्थिति के लिए तैयार पाएंगे। अपनी सोच में चिंतन प्रवृत्ति लाये जैसा आप चाहते हैं हमेशा वैसा नहीं हो सकता इसलिए कभी- कभी उस पहलु की कल्पना भी करे जो आप नहीं देखना चाहते। लेकिन अगर हो जाय तो पूरी तैयारी से आप उसका स्वागत करें क्योकि जब अच्छा हमेशा के लिए नहीं रहता तो बुरा भी स्थाई नहीं फिर उस कुछ समय के मेहमान के लिए पूरा जीवन क्यों निराशा और दुखी बना देना जबकि समय- समय पर होने वाले परिवर्तन ही आपके संतुलन का परीक्षण करता हैं जिनमे आपकी समझ और परिपक्वता का परीक्षण होता हैं इसलिए अपनी सोच को सकारात्मक आस्था का पर्याय बनाकर उस बात के लिए भी चिंतन रखे जिसे आप कभी नहीं देखना चाहते या जो आपके पक्ष की नहीं अक्सर हम उन्ही बातों के विषय में सोचते हैं जो हम चाहते हैं अगर आप दोनों ही चीजों के लिए तैयार हैं तो फिर जीवन में अच्छे और बुरे समय के प्रकोप, अकस्मात घटना से कभी विचलित या भ्रमित नहीं होंगे क्योकि आप पहले ही उसका चिंतन कर चुके थे।एक और बात अपना आत्मविश्लेषण समय समय पर करते रहना चाहिए स्वयं के साथ बातें करें अपने आप से भागे नहीं एक्सेप्ट करना सीखे। अपने द्वारा लिए गए निर्णयों में सही और गलत को खोजे और सुधारे और हर परिणाम के लिए पहले से तैयार रहे अपनी ऊर्जा का सदुपयोग होना बेहद जरुरी हैं बस यही सुनियोजित जीवन शैली और समझदारी भरा जीवन जीने का एक मार्ग हैं जिस पर चलना बहुत कठिन नहीं हैं बेहद सरल हैं उतना ही जितना अच्छे समय को आसानी से जीना। 
जिंदगी गुजारने के लिए आधारभूत /मूलभूत सुविधाओं का होना आवश्यक हैं परन्तु लिए जीवन जीने के लिए........ ? एक उम्मीद का होना, संवेदनशीलता का होना, इमोशंस का होना, तमाम दुःखों, शिकायतों, गलतियों और विरोधाभासों के बावजूद किसी इंसान के साथ का होना। क्योकि अगर मनुष्य योनि ली हैं तो ये सब तो जीवन से जुड़ेगा ही... पर भरपूर सुविधाओं या विलासिता से भरा जीवन 'जीने' के लिए भी उपयुक्त हो ये आवश्यक नहीं क्योकि संतुष्टि तो प्रतिकूलताओं में जीत हासिल करके ही मिलती हैं सुविधाये सिर्फ़ समय व्यतीत करने का साधन बन सकती हैं जीवन जीने का नहीं ।।।

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

आलेख ---
जीवन में कुछ रिश्ते बिना authenticity के पूर्ण होते हैं उनके लिए किसी designation की आवश्यकता नहीं होती वे जीवित रहते ही आपसी समझ,एक दूसरे के प्रति प्रगाढ़ विश्वास और वैचारिक समानता पर.......... अक्सर इन रिश्तों को सामाजिक दृष्टि से सकारात्मकता के साथ समझना मुश्किल होता हैं पर बिना रिश्तों का बना रिश्ता किसी बंधन में नहीं 'स्वतंत्र बंधन' में बंधा कहने का अर्थ जहाँ स्वतंत्रता नहीं वहां बंधना मुश्किल होता हैं। इसलिए जीवन में कभी कभी कुछ लोग बिना रिश्ते के मिलते हैं और रिश्तों की परिभाषा बन जाते हैं......... . ऐसे लोग अगर आपके जीवन में हैं तो उन्हें पहचाने सहेज कर रखे ये वक़्त बेवक़्त के सबसे अच्छे और मजबूत साथी होते हैं चूँकि इनके साथ आपकी कोई ऑथेन्टिसिटी नहीं जुडी होती इसलिए इनके द्वारा दी जाने वाली सलाह और सहयोग पूर्ण निश्छलता और निः स्वार्थ भाव से होता हैं उसमे सिर्फ एक दूसरे की ख़ुशी का भाव होता हैं और वो जिम्मेदारी जो मिली नहीं हैं पर निभाना मन को सुकून देता हैं कभी- कभी ये एक मिसाल भी बन जाते हैं और वास्तविक रिश्तों का आकार और स्वरुप भी ले लेते हैं। पर इसका अर्थ ये कदापि नहीं की जिनके साथ आपका रिश्ता वास्तव में हैं[पति -पत्नी/बच्चे/भाई -बहन/माता -पिता, रिश्तेदार उनसे दूरियाँ बना ले या उन्हें अपने जीवन से बाहर कर दे। ये चुनाव आपको करना हैं ये रिश्ता इन सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त रिश्तों के बीच कौन सी भूमिका निभाएगा और कितनी। संतुलन का होना आवश्यक हैं कुछ लोग अधिकार लेकर साथ रहते हैं कुछ बिना अधिकारों के...... अक्सर जिनके पास अधिकार होते हैं योग्यता का अभाव होता हैं कभी कभी रिश्ते उसी तर्ज पर बन जाते हैं जिनमे योग्यता होती हैं पर अधिकार होता हैं। कोई भी इंसान अकेला नहीं रह सकता परिवार की भीड़ होने का अर्थ ये भी नहीं की परिवार आपके साथ हैं उस वक़्त के संघर्ष में कुछ ऐसे लोग आपके जीवन में या संपर्क में आ जाते हैं जो आपको अपने परिवार के तरह प्रतीत होते हैं लकिन भीड़ की तरह नही बल्कि भीड़ का नेतृत्व करते हैं और आपको अपने जीवन से जुडी समस्या से बहार लाते हैं ये सब एक दो दिन में नहीं होता समय के साथ एक दूसरी की समझ जितनी गहरी और परिपक्व होती हैं उतना सहज आप एक दूसरे के साथ हो जाते हैं। जो कभी -कभी हम अपनों के साथ भी नहीं हो पाते क्योकि उनसे अपेक्षित समझ का निराशाजनक परिणाम न सिर्फ आपको डिमोटीवेट करता हैं बल्कि कभी- कभी उनके प्रति नकारात्मक भी बना देता हैं जिससे आपसी मतभेद जन्म ले लेते हैं फिर संबंध विच्छेद या फिर पारिवारिक मतभेद शुरू होने लगते हैं सही गलत के आरोप प्रत्यारोप में ही समय बीतता जाता हैं कोई सिर्फ एक दूसरे का साथ पाने के लिए खुद को छोटा या उदार बनाने के लिए पहल करता ही नहीं। सबके आड़े उसका अभिमान आ जाता हैं। स्त्री के आड़े उसका परिवार, पुरुष के आड़े उसका मेन ईगो इसलिए कहानी सुधरने के बजाय अक्सर बिगड़ती हैं जब आप अपनी बात किसी से नहीं कह पाते हैं तो बहुत ज्यादा हारा हुआ और अकेला महसूस करते हैं आप चाहते हैं की कोई आपको सुने, समझे। आपके निर्णयों को सही कहे बिना किसी विरोधाभास के। पर अक्सर ऐसा हो नहीं पाता और फिर तलाश शुरू होती हैं जो पूरी होती हैं बेनाम रिश्तों पर जो वाकई में कभी -कभी मिसाल भी बन जाते हैं फिर वो दोस्ती का ही क्यों न हो या फिर उससे ऊपर । पर एक पुरुष के लिए शायद ये थोड़ा सरल कार्य हो पर स्त्री के लिए ऐसे रिश्तों को स्वीकारा नहीं जाता विवाहोपरांत एक पुरुष के साथ मित्रता स्त्री के लिए अक्सर प्रश्न चिन्ह बन जाती हैं भले ही उसका पति सिर्फ नाम का हो गैर जिम्मेदार पर authenticity रहती हैं उसके पास ठीक वैसे ही पत्नी भी सिर्फ नाम की नहीं अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझे । इसलिए जीवन में रिश्तों की भीड़ का होना आवश्यक नहीं हैं पर जो रिश्ते हैं उनमे जीवन का होना आवश्यक हैं अन्यथा बिना रिश्तों के निभाए जाने वाले स्वतंत्र बंधन अक्सर रिश्तों से बेहतर परिणाम दे जाते हैं। 

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

हर पल जीवन की नई शुरुआत करता हूँ
मैं इंसा हूँ ये सोच के देवता को याद करता हूँ 
कुछ 'टूटता ' हैं तभी बनता हैं 'नया' 
ये सोचके नया 'आज' बुनता हूँ 
गलतियाँ अब अनुभवों में तब्दील हो गयी हैं 
उन्ही से अपना 'आज' अपना 'कल' आबाद करता हूँ
बिगड़ना ही सुधरने को आकार देता हैं
हर बिगड़ने पर फिर नया सुधार करता हूँ
नव निर्माण के लिए विध्वंस जरुरी हैं,
बीते का दुःख नहीं, फिर नई शुरुआत करता हूँ
एक औरत के द्वारा लिए गए निर्णय जिसके उसके अपने विरोधी थे उस विरोध से जन्मी ये कविता.....
हर बात सही होती तो क्या होता।।।।
गलत सही तो बातें हुई
पर इंसान मैं गलत नहीं....... 
वो 'शब्द' वो 'परिस्थिति'
जिनमें जन्मा मेरे लिये 'विरोध'
जबकि विरोधी थे शब्द और हालात
विरोधी भी मैं नहीं.....
फैसले होते हैं कुछ विरोध में
पर किसी न किसी के हक में .......
निष्पक्षता की द्रष्टि नहीं
जो देख सके निर्विरोध उन्हें
फिर विरोधों से भरे वो शब्द
जो लगे गलत, वो शब्द थे पर
गलत मैं नहीं ……
शायद सम्बन्ध अनुबंध में बदलने लगे हैं ....
जल्दी या आसानी से मिलने वाली चीजे ज्यादा दिनों तक नहीं टिकती और जो चीजे ज्यादा दिनों तक टिकती हैं वो जल्दी या आसानी से नहीं मिलती। s
अधूरापन ज़रूरी है जीने के लिए …………

अधूरापन शब्द सुनते ही मन में एक negative thought आ जाती है. क्योंकि यह शब्द अपने आप में जीवन की किसी कमी को दर्शाता है. पर सोचिये कि अगर ये थोड़ी सी कमी जीवन में ना हो तो जीवन खत्म सा नहीं हो जायेगा?अगर आप ध्यान दीजिए तो आदमी को काम करने के लिए प्रेरित ही यह कमी करती है. कोई भी कदम, हम इस खालीपन को भरने की दिशा में ही उठाते हैं.मनुष्य के अंदर कुछ जन्मजात शक्तियां होती हैं जो उसे किसी भी नकारात्मक भाव से दूर जाने और available options में से best option चुनने के लिए प्रेरित करती हैं. कोई भी चीज़ जो life में असंतुलन लाती है , आदमी उसे संतुलन की दिशा में ले जाने की कोशिश करता है.
अगर कमी ना हो तो ज़रूरत नहीं होगी, ज़रूरत नहीं होगी तो आकर्षण नहीं होगा, और अगर आकर्षण नहीं होगा तो लक्ष्य भी नहीं होगा.अगर भूख ना लगे तो खाने की तरफ जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता. इसलिए अपने जीवन की किसी भी कमी को negative ढंग से देखना सही नहीं है. असल बात तो ये है कि ये कमी या अधूरापन हमारे लिए एक प्रेरक का काम करता है.कमियां सबके जीवन में होती हैं बस उसके रूप और स्तर अलग -
हमेशा स्वयं जीवन जीने के लिए प्रेरित हो और ओरों को भी प्रेरित करें ये एक ऐसा कार्य हैं जो आपको हमेशा रचनात्मकता की और अग्रसर करेगा। जिंदगी काटते तो सभी हैं पर व्ययवस्थित जीवन शैली जीवन जीने और समझने की ऒर प्रेरित करती हैं इसलिए जीवन में अनुशासन और व्यवस्थापन का होना अत्यंत आवश्यक हैं व्यवस्थित का अर्थ हर कार्य में निपुणता न सही पर परिपूर्णता का भाव हो मेरे कहने का अर्थ भोजन करना या भोजन बनाने से लेकर परोसने और उसके बाद के कार्य भी पूर्व निर्धारित सुनियोजित होंगे तो अपने आप हर कार्य आसान और रुचिकर प्रतित होगा अन्यथा जो सामने आयेगा तब देख लेंगे , बाद में कर लेंगे, जो होगा देखेंगे जैसे वाक्य जीवन में बोझ और झुंझलाहट को जन्म देते हैं । जो और जैसा आप चाहते हैं उसके लिए निरंतर प्रयासरत और चिंतन द्रष्टि होना आवश्यक हैं फिर देखिये वही होगा जैसा और जो आप जीवन से अपेक्षा रखते हैं या फिर उसके बेहद निकट जो आप चाहते हैं 

स्त्री की असंतुष्टि या (Inferiority complex) ........ 
एक औरत को संतुष्ट करना एक पुरुष के जीवन की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक हैं हो सकता हैं मेरी यह बात मेरे कुछ मित्रों को विरोधी प्रतित हो पर ये मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव रहा हैं स्त्री की अधीरता और जीवन से सदा असंतुष्ट रहना ही उसके पतन का कारण बन सकता हैं ऊंचाइयों को छूने की लालसा और कभी न ठहर पाने की प्रवृत्ति ने स्त्री को न सिर्फ उसके वजूद से बल्कि उसके अपने अस्तित्व से भी दूर कर दिया हैं अब वो अपनी एक अलग दुनियाँ रचने के लिए ललायित रहती हैं जीवन की थोड़ी सी कमी भी उसे निर्णय लेने के लिए विवश कर देती हैं वो समर्पण और वो और त्याग का भाव उसे गृहस्थ जीवन से स्वयं को अधूरा महसूस करवा रहा हैं शायद इसलिए अक्सर घर का प्रबंधन देखने वाली महिलाओं में बाहर नौकरी करने वाली या सेल्फ रहने वाली महिलाओं के प्रति एक आदर भाव मैने महसूस किया वो स्वयं को छोटा और सीमाओं में बंधा महसूस करने लगी हैं उनके लिए जॉब करना एक स्त्री के गर्व का विषय बन गया हैं उसके बिना औरत सिर्फ घरेलु समझकर खुद को हर दिन कुंठित कर रही हैं वो अपने घर के कार्यों के प्रति नीरसता दिखा रही हैं अति महत्वकांशी बन जो कुछ भी उनके पास हैं उसे भी धीरे धीरे खोती चली जा रही हैं सच तो ये हैं एक स्त्री सदा से ही एक पुरुष के बिना अधूरी हैं ईश्वर ने कुछ रचनाएँ कुछ विशेष कार्यों या सामर्थ के मुताबित की हैं उसके बाहर जाना थोड़े समय के लिए जरूर ख़ुशी देगा पर संतुष्टि उन्ही कार्यों से मिलेगी जिनके लिए वास्तव में आप बने हैं इसलिए दूसरों से अपनी तुलना न करें आपमें जो हैं उसे पहचाने उसी सर्वश्रेष्ठ बनाये हमारे देश में 75 प्रतिशत महिलायें नौकरी सिर्फ इसलिए कर रही हैं क्योकि घर की emi में पैसा कम न पड़ जाय बच्चो की शिक्षा और पति को आर्थिक सहयोग मिल जाय कहने का अर्थ नौकरी उनकी विवशता हैं ख़ुशी नहीं इसलिए वो सुबह ९ बजे घर से निकलती हैं रात आठ बजे घर आती हैं बॉस का प्रेशर काम का प्रेशर सुबह से शाम घर के बाहर गुजर जाती हैं इसलिए मेरा उन महिलाओं से अनुरोध हैं जो पूरी तरह सेआर्थिक रूप से पूरी तरह अपने पति पर आश्रित हैं और घर के कार्यों में अपनी जिम्मेदारी को पूरी निपुणता से निभा रही हैं उन्हें गर्व होना चाहिए ऐसे जीवन से जिसमे विवशता नहीं उन्हें बाहर की कोई फ़िक्र नहीं। वो अपने भीतर कॉम्प्लेक्स पैदा न करें उनके प्रति जो नौकरीशुदा हैं। ... ख़ुशी से किया गया कोई भी कार्य व्यवस्थापन का एक उदाहरण हैं आप खुश किस्मत हैं जो पैसा कमाने की विवशता और घर चलाने की चिंता से मुक्त हैं पति का सहयोग करना अच्छी बात हैं पर अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाकर। औरत का बाहर जाना गलत नहीं पर प्राथमिकता निर्धारित हो। या फिर अपनी आवश्यकताओं में कमी करके भी इस अस्तव्यस्तता को दूर किया जा सकता हैं सिर्फ नौकरी करना अंतिम विकल्प नहीं मैं रचनात्मकता की विरोधी नहीं हूँ औरत के सदा आगे बढ़ने के पक्ष में हूँ पर अपनी आधारभूत जिम्मेदारियों को छोड़कर कदम बढ़ाने से मुझे एतराज है पुरुष भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाएं अपने परिवार की सुरक्षा सम्मान और आर्थिकता को सर्वोपरी रखे और स्त्री उसके किये गए कार्य का प्रबंधन[ मैनेजमेंट ]. स्त्री का सृजन और सौंदर्य से गहरा सम्बन्ध हैं पर सृजन सर्वप्रथम उसके अपने जीवन में हो और सौंदर्य उसके भीतर हो यही बात शायद आज दाम्पत्य जीवन में कम देखने को मिल रही हैं जिसकी वजह से विवाहित में असंतुष्टि और हीन भावना का पोषण निरंतर हो रहा है। 
ये पूरा आर्टिकल मेरे अपने व्यक्तिगत विचारों से परिपूरित हैं इससे किसी की भावनाओं को आहात करना मेरा उद्देश्य बिलकुल भी नहीं अतः इसे पढ़कर परोक्ष रूप से किसी को कोई हृदयाघात पंहुचा हो तो कृपया क्षमा प्रार्थी हूँ। 
अपने जीवन के जब आप किसी भी प्रकार के बदलाव को बड़ी सहजता से स्वीकार कर लेते हैं तो परिस्थितियाँ स्वतः ही अनुकूल प्रतीत होने लगती हैं। बदलाव रिश्तों के, बदलाव माहौल के,बदलाव समय के,बदलाव उम्र और अनुभवों के, बदलाव जो आपके विपक्ष में हैं लेकिन उस वक़्त की जरुरत इन सभी को स्वीकारना या स्वीकृत करवाना दोनों ही मुश्किल कार्य हैं क्योकि कभी कभी आप स्वयं तो इन परिवर्तनों के मुताबित निर्णय लेकर स्वयं को सहज बना लेते हैं पर आपसे जुड़े लोग उन्हें उतनी ही सहजता और समझदारी के साथ आपका साथ नहीं दे पाते फिर शायद जीवन के कुछ अहम और गंभीर निर्णयों में कभी कभी आप अकेले ही खड़े रहते हैं लकिन हारिये मत आपने निर्णय को सही बनाकर दूसरों के लिये उस रस्ते पर चलने का मार्ग दर्शन कर उन्हें इस बात के लिए आश्वस्त कर दीजिये की जिस निर्णय को लेते वक़्त सब आपके विरोध में खड़े थे अंततः वो जीवन का सबसे सही निर्णय साबित हुआ इसलिए न सिर्फ निर्णय लेने की ताकत रखे बल्कि उसे सही बनाने के हुनर का भी सृजन करें । .. 
व्यवसायिक जीवन में परिश्रम, सामाजिक जीवन में पारदर्शिता, पारिवारिक जीवन में प्रेम और निज जीवन में पवित्रता सफ़ल जीवन प्रबंधन के तथ्य हैं।
आज सुबह का अख़बार नहीं आया
उसके पिछले माह के सौ रूपए बाकि थे
 काम वाली बाई को उधार चाहिये हजार रूपए
सोचना पड़ेगा
आज बच्चा बीमार हैं तेज बारिश और ठण्ड से
उसके स्कुल की छुट्टी करवानी हैं
माँ की दवा सिर्फ दो दिनों की बची हैं
धोबी  ने कपडे लोटाये पर पूरे नहीं
उनका हिसाब बनाना हैं
तेज बारिश से छत फिर टपकने लगी
पानी की टपकन से छत का पंखा जल गया
बाथरूम का नल  महीने भर  से ख़राब हैं
दरवाजे की कुण्डी अटकती हैं
ये सब  ठीक करवाना बाकि हैं
दो दिन से दूध फट रहा हैं कारण पूछना हैं
घर में छिपकलियां बहुत हो गयी हैं
कंट्रोल पेस्ट करवाना हैं
पत्नी के पिता बीमार हैं  उसे जाना हैं
बिटिया को घूमने ले जाना हैं
इस माह का बिजली का बिल भरना हैं
कल आखरी तारीख हैं
मल्टी के मेंटेनेंस में १०० रूपए ज्यादा
पता करना हाँ
कॉमन का बिल ज्यादा क्यों आया
जानकरी लेनी हैं
नई चेक बुक इश्यू करवाना हैं
जीवन बीमा पॉलिसी की क़िस्त बाकि हैं
गाड़ी की सर्विसिंग करवानी  हैं
अपने लिए हेल्थ इनश्योरेन्स पॉलिसी लेनी हैं
आज सबसे पहले क्योकि।
सब मुझ पर निर्भर हैं
मैं जीवन पर

जीवन मेरे स्वस्थ रहने पर  २० /०८/२०१५