लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

रविवार, 29 जुलाई 2018

ॐ, तत् और सत् का स्वरूप......
ॐ, तत् और सत् – ऐसा तीन प्रकार का नाम ‘ ब्रह्मण: निर्देश: स्मृत:’ – ब्रह्म का निर्देश करता है, स्मृति दिलाता है, संकेत करता है और ब्रह्म का परिचायक है। उसी से ‘पुरा’ – पूर्व में (आरंभ में) ब्राह्मण, वेद और यज्ञादि रचे गये हैं। अर्थात् ब्राह्मण, यज्ञ और वेद ओम् से पैदा होते हैं। ये योगजन्य हैं। ओम् के सतत चिंतन से ही इनकी उत्पत्ति है, और कोई तरीका नहीं है।

इसलिये ब्रह्म का कथन करनेवाले पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप – क्रियाएँ निरंतर ‘ओम्’ इस नाम का उच्चारण करके ही की जाती हैं, जिससे उस ब्रह्म का स्मरण हो जाय। अब तत् शब्द का प्रयोग बताते हैं-

तत् अर्थात् वह (परमात्मा) ही सर्वत्र है, इस भाव से फल को न चाहकर शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट नाना प्रकार की यज्ञ, तप और दान की क्रियाएँ परम कल्याण की इच्छा करनेवाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं। तत् शब्द परमात्मा के प्रति समर्पणसूचक है। अर्थात् जप तो ओम् का करें तथा यज्ञ, दान और तप की क्रियाएँ उस पर निर्भर होकर करें। अब सत् के प्रयोग का स्थल बताते हैं-

और सत्; योगेश्वर ने बताया कि सत् क्या है? गीता के आरंभ में ही अर्जुन ने प्रश्न खड़ा किया कि कुलधर्म ही शाश्वत है, सत्य है, तो श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ! तुझे यह अज्ञान कहाँ से उत्पन्न हुआ? सत् वस्तु का तीनों कालोँ में कभी अभाव नहीं होता, उसे मिटाया नहीं जा सकता और असत् वस्तु का तीनों कालोँ में अस्तित्व नहीं है, उसे रोका नहीं जा सकता। वस्तुतः वह कौन- सी वस्तु है, जिसका तीनों कालोँ में अभाव नहीं है? और वह असत् वस्तु है क्या, जिसका अस्तित्व नहीं है? तो बताया- यह आत्मा ही सत्य है और भूतादिकोँ के समस्त शरीर नाशवान् हैं। आत्मा सनातन है, अव्यक्त है, शाश्वत और अमृतस्वरूप है- यही परमसत्य है।

यहाँ कहते हैं, ‘सत्’ ऐसे परमात्मा का यह नाम ‘सद्भावे’ – सत्य के प्रति भाव में और साधुभाव में प्रयोग किया जाता है और हे पार्थ ! जब नियत कर्म सांगोपांग भली प्रकार होने लगे, तब सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। सत् का अर्थ यह नहीं है कि यह वस्तुएँ हमारी हैं। जब शरीर ही हमारा नहीं है, तो इसके उपभोग में आनेवाली वस्तुएँ हमारी कब हैं। यह सत् नहीं है। सत् का प्रयोग केवल एक दिशा में किया जाता है- सद्भाव में। आत्मा ही परमसत्य है- इस सत्य के प्रति भाव हो, उसे साधने के लिये साधुभाव हो और उसकी प्राप्ति करानेवाला कर्म प्रशस्त ढंग से होने लगे, वहीं सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी पर योगेश्वर अग्रेतर कहते हैं-

यज्ञ, तप और दान को करने में जो स्थिति मिलती है, वह भी सत् है- ऐसा कहा जाता है। ‘तदर्थीयम्’ – उस परमात्मा की प्राप्ति के लिये किया हुआ कर्म ही सत् है, ऐसा कहा जाता है। अर्थात् उस परमात्मा की प्राप्तिवाला कर्म ही सत् है। यज्ञ, दान, तप तो इस कर्म के पूरक हैं। अंत में निर्णय देते हुए कहते हैं कि इन सबके लिये श्रद्धा आवश्यक है।

हे पार्थ ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह सब असत् है- ऐसा कहा जाता है। वह न तो इस लोक में और न परलोक में ही लाभदायक है। अतः समर्पण के साथ श्रद्धा नितांत आवश्यक है।

      --विविध स्त्रोतों से ......


बुधवार, 11 जुलाई 2018

भारतीय किसान के परिप्रेक्ष्य में
पीढ़ा के स्वर
नहीं चाहिए राज सिंहासन
ना वैभवी स्वर्ण आडम्बर
एक कलम और कुछ अक्षर
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
पीढ़ा जो अपनी नहीं है
ओरो के दुःख में पली है
संचित कर अश्रु के बादल
हल उसका फिर भी कोई न हल
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
दीपक सा जलता अन्तस्थल
रुधिर श्वेत हुआ जाता
परिश्रम जिसका जर्जर
तन को जिसके धूल ढांकती
मिट्टी सा जिसका मन
सबका सुख धन धान्य भरा
मेरा दुःख भी निर्धन
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
जीवन पथ दुर्गम तल है
मैं पंछी पर कटे पर हैं
मेरा उज्ज्वल भविष्य दरबदर
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
        -------शोभा जैन