विवाह और प्रेम ………।
विवाह आज एक संस्था के रूप में माने जाने लगा हैं जिसकी परिधि में पूरा जीवन जीते- जीते सब उन्मुक्त प्रेम की तलाश करते हैं पर क्या सिर्फ विवाह ही एक माध्यम रह गया हैं वास्तविक प्रेम का आभास करने का। बिना विवाह के या विवाहोपरांत किया गया प्रेम अगर उन्मुक्त रूप में मिलता हैं तो समाज उसे अपने द्रष्टिकोण से ग़लत बताने का प्रयास करता हैं अब किसी से प्रेम करने के लिए भी क्या नियमों में बंधना होगा या प्रेम करने के लिए विवाह जैसी संस्था ही एक वैधानिक माध्यम हो सकती हैं इंसान के अपनी भावनाओं और जस्बातो और आत्मिक सुकून की कोई कीमत नहीं इन सबका जब जब उसने दोहन किया हैं वो भी सिर्फ समाज के लिए तब- तब न तो उसे कुछ हासिल हुआ न जिनकी वजह से उसने ऐसा किया उसे कुछ हासिल हुआ सिर्फ तबाही ही हासिल हुई हैं प्रेम जैसे पवित्र और उन्मुक्त शास्वत सत्य को किसी पर जबरजस्ती थोपा नहीं जा सकता न ही पाया जा सकता हैं ये विपरीत परिस्थितियों की उपज से जन्मता हैं और अनुकूल परिस्थितियों पर जाकर फलता हैं दुनिया का कोई भी इंसान चाहे वो स्त्री हो या पुरुष अगर उन्होंने प्रेम विवाह भी किया होगा तो भी उसमे प्रेम के पुट से ज्यादा उन परिस्थितियों का इनपुट ज्यादा होगा जिनमे वो पनपा। अनुकूलता में वास्तविक प्रेम की पहचान नहीं हो सकती न ही उसे पाया जा सकता हैं। और विपरीत परिस्थितयों में जन्मा प्रेम, विवाह जैसी सामाजिक संस्था और परंपरा से कोसों दूर होता हैं उसे किसी बंधन या authenticity की आवश्यकता नहीं होती वो सदा सर्वदा उन्मुक्त प्रेम बनकर ही रहता हैं। जिसे समाज बमुश्किल स्वीकार कर पाता हैं समाज को शायद प्रेम सिर्फ विवाहित जीवन के सील ठप्पे के साथ ही देखना पसंद हैं लेकिन जबरजस्ती से कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता अंततः विवाहित जीवन में सम्बध विच्छेद हो जाते हैं और इनकी संख्या में गत पांच वर्षो में इजाफ़ा ही हुआ हैं. । सबसे अहम बात जिसे कोई समझना नहीं चाहता की विवाह नामक संस्था में जिम्मेदारी और समर्पण सबसे अहम और मजबूत डोर होती हैं न की प्रेम। प्रेम का स्थान तीसरा होता हैं इस रिश्ते में.। अगर दोनों अपनी- अपनी जिम्मेदारी के प्रति समर्पित होते हैं तो प्रेम अपनेआप ही जन्म ले लेता हैं लेकिन प्रेम पाने की असीम इच्छा कभी -कभी जिम्मेदारी से विमुख कर देती हैं मन को कुंठित और दुखी कर देती हैं जिसके चलते 'गलत कदम के नाम' पर दोनों दांपत्य जीवन से जो प्रेम चाहिए वो बाहर तलाश करने लगते हैं जो वास्तव में किसी भी अर्थ में गलत नहीं हैं उन परिस्थितयों के मुताबित , क्योकि बाहर भी जो प्रेम प्राप्त होता हैं उसमें भी कही न कही समर्पण और जिम्मेदारी का भाव होता हैं तभी वो प्रेम का दर्जा पाने लगता हैं और अंततः पा लेता हैं जबकि बाहर से प्राप्त प्रेम में न तो कोई authenticity होती हैं न ही वैधता फिर भी कभी कभी वो विवाहित जीवन की परिधि में तलाशते उन्मुक्त प्रेम से कहीं ज्यादा ऊपर गहरा साबित हो जाता हैं ये कड़वा हैं लेकिन सत्य हैं इसलिए विवाह जैसी संस्था की परिधि में उन्मुक्त प्रेम को तलाशना सही हैं और होना भी चाहिए लेकिन बगैर अपनी -अपनी जिम्मेदारी और समर्पण की पूर्णता के सिर्फ प्रेम पाने की इच्छा रखना अँधेरे में तीर चलाने जैसा ही होगा।
विवाह आज एक संस्था के रूप में माने जाने लगा हैं जिसकी परिधि में पूरा जीवन जीते- जीते सब उन्मुक्त प्रेम की तलाश करते हैं पर क्या सिर्फ विवाह ही एक माध्यम रह गया हैं वास्तविक प्रेम का आभास करने का। बिना विवाह के या विवाहोपरांत किया गया प्रेम अगर उन्मुक्त रूप में मिलता हैं तो समाज उसे अपने द्रष्टिकोण से ग़लत बताने का प्रयास करता हैं अब किसी से प्रेम करने के लिए भी क्या नियमों में बंधना होगा या प्रेम करने के लिए विवाह जैसी संस्था ही एक वैधानिक माध्यम हो सकती हैं इंसान के अपनी भावनाओं और जस्बातो और आत्मिक सुकून की कोई कीमत नहीं इन सबका जब जब उसने दोहन किया हैं वो भी सिर्फ समाज के लिए तब- तब न तो उसे कुछ हासिल हुआ न जिनकी वजह से उसने ऐसा किया उसे कुछ हासिल हुआ सिर्फ तबाही ही हासिल हुई हैं प्रेम जैसे पवित्र और उन्मुक्त शास्वत सत्य को किसी पर जबरजस्ती थोपा नहीं जा सकता न ही पाया जा सकता हैं ये विपरीत परिस्थितियों की उपज से जन्मता हैं और अनुकूल परिस्थितियों पर जाकर फलता हैं दुनिया का कोई भी इंसान चाहे वो स्त्री हो या पुरुष अगर उन्होंने प्रेम विवाह भी किया होगा तो भी उसमे प्रेम के पुट से ज्यादा उन परिस्थितियों का इनपुट ज्यादा होगा जिनमे वो पनपा। अनुकूलता में वास्तविक प्रेम की पहचान नहीं हो सकती न ही उसे पाया जा सकता हैं। और विपरीत परिस्थितयों में जन्मा प्रेम, विवाह जैसी सामाजिक संस्था और परंपरा से कोसों दूर होता हैं उसे किसी बंधन या authenticity की आवश्यकता नहीं होती वो सदा सर्वदा उन्मुक्त प्रेम बनकर ही रहता हैं। जिसे समाज बमुश्किल स्वीकार कर पाता हैं समाज को शायद प्रेम सिर्फ विवाहित जीवन के सील ठप्पे के साथ ही देखना पसंद हैं लेकिन जबरजस्ती से कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता अंततः विवाहित जीवन में सम्बध विच्छेद हो जाते हैं और इनकी संख्या में गत पांच वर्षो में इजाफ़ा ही हुआ हैं. । सबसे अहम बात जिसे कोई समझना नहीं चाहता की विवाह नामक संस्था में जिम्मेदारी और समर्पण सबसे अहम और मजबूत डोर होती हैं न की प्रेम। प्रेम का स्थान तीसरा होता हैं इस रिश्ते में.। अगर दोनों अपनी- अपनी जिम्मेदारी के प्रति समर्पित होते हैं तो प्रेम अपनेआप ही जन्म ले लेता हैं लेकिन प्रेम पाने की असीम इच्छा कभी -कभी जिम्मेदारी से विमुख कर देती हैं मन को कुंठित और दुखी कर देती हैं जिसके चलते 'गलत कदम के नाम' पर दोनों दांपत्य जीवन से जो प्रेम चाहिए वो बाहर तलाश करने लगते हैं जो वास्तव में किसी भी अर्थ में गलत नहीं हैं उन परिस्थितयों के मुताबित , क्योकि बाहर भी जो प्रेम प्राप्त होता हैं उसमें भी कही न कही समर्पण और जिम्मेदारी का भाव होता हैं तभी वो प्रेम का दर्जा पाने लगता हैं और अंततः पा लेता हैं जबकि बाहर से प्राप्त प्रेम में न तो कोई authenticity होती हैं न ही वैधता फिर भी कभी कभी वो विवाहित जीवन की परिधि में तलाशते उन्मुक्त प्रेम से कहीं ज्यादा ऊपर गहरा साबित हो जाता हैं ये कड़वा हैं लेकिन सत्य हैं इसलिए विवाह जैसी संस्था की परिधि में उन्मुक्त प्रेम को तलाशना सही हैं और होना भी चाहिए लेकिन बगैर अपनी -अपनी जिम्मेदारी और समर्पण की पूर्णता के सिर्फ प्रेम पाने की इच्छा रखना अँधेरे में तीर चलाने जैसा ही होगा।
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