लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

हमने त्योहारों का निर्माण किया हैं अपने जीवन के दुःखो से परे जाकर कुछ समय के लिये त्योहारों के ही बहाने अपने और अपनों से जुड़कर परम्पराओं और संस्कारों परिपाटी को जीने का एक तरीका कुछ नया सृजन या फिर कुछ पुराने के विसर्जन के लिए दरअसल हम त्योहारों के लिए नहीं बने हैं हमने इन्हे बनाया हैं हमको तो बस बहाने चाहिए जीवन को उत्सवी तरीके से जीने के अगर ये न बनाये होते तो बारह महीने एक जैसे होते कुछ भी नया न होता ये एक सत्य हैं। आज पूरे देश में श्रीगणेश चतुर्थी का पर्व उत्साह से मनाया जा रहा है। साकार रूप में श्रीगणेश भगवान का चेहरा हाथी और सवारी वाहन चूहा दिखाया जाता है। सकाम भक्त उनके इसी रूप पर आकर्षक होकर उनकी आराधना करते हैं। कुछ लोग भारतीय समाज के ढेर सारे भगवान होने के विषय की मजाक बनाते हैं। कुछ दिनों पहले मारोठिया बाजार में इसका प्रत्यक्ष उदाहरण भी देखा मैने इनमें भी भगवान श्री हनुमान तथा गणेश जी के स्वरूप को अनेक लोग मजाक का विषय मानते हैं। दरअसल ये एक आस्था का विषय हैं अन्धविशवास नहीं ऐसे अज्ञानी लोगों से बहस करना निरर्थक है। दरअसल ऐसे बहसकर्ता अपने जीवन से कभी प्रसन्नता का रस ग्रहण नहीं कर पाते इसलिये दूसरों के सामने विषवमन करते हैं। यह भी देखा गया है कि गैर हिन्दू विचारधारा के कुछ लोगों में रूढ़ता का भाव इस तरह होता है कि उन्हें यह समझाना कठिन है कि हिन्दू अध्यात्मिक दर्शन निरंकार परमात्मा का उपासक है पर सुविधा के लिये उसने उनके विभिन्न मूर्तिमान स्वरूपों का सृजन किया है। साकार से निराकार की तरफ जाने की कला हिन्दू बहुत अच्छी तरह जानते हैं। 
अभी कुछ दिनों से पवित्र और सबसे प्राचीन जैन धर्म के पर्युषण पर्व जिसका अर्थ ही आत्मा का पोषण करने वाला हैं के विषय में पढ़कर अत्यंत दुःख हुआ कुल आठ दिवसीय चलने वाले इस पर्व में भी लोग मांस खाने अथवा विक्रय से बाज नहीं आ रहे वो लोग शायद ये भूल गए की जैन धर्म अल्पसंख्यक हैं किन्तु धर्म आस्था और निष्ठां के प्रति वो न सिर्फ अपने धर्म के प्रति सजग और सम्मानित विचारधारा रखता हैं अपितु दूसरों के धर्म के प्रति भी। समाज सेवा हो या फिर ज्ञान की सेवा दोनों ही मार्ग पर जैन धर्म अग्रणी रहा हैं कभी किसी किसी धर्म या उसके त्योहारों में वो आड़े नहीं आया फिर वो अजमेर चादर चढाने का अवसर हो या फिर ईद पर होने चहल कर्मी या फिर नवरात्री उत्सव फिर क्यों कुछ दिनों के लिए हम किसी धर्म विशेष की आस्था को ठेस पहुँचाये जबकि त्यौहार आते ही कुछ दिनों के लिए हैं क्यों न हम भी हर धर्मविशेष के त्योहारों का परोक्ष रूप से हिस्सा बने अधिक से अधिक उत्सवों को जीवन से जोड़कर खुशियों से जुड़े जरुरी नहीं की आप भी पर्युषण पर्व के नियमों में बंधे आप भी ईद को ईद की मनाये पर उसके मूल उद्देश्य को ही शांति और सहजता से स्वीकार करना उसे मानाने के जैसा ही होगा क्योकि किसी भी धर्म के त्यौहार का अंतिम लक्ष्य इंसान को इंसान से जोड़ना ही हो सकता हैं न की उनमे अराजकता या फूट की भावना या साम्प्रदायिक दंगो को जन्म देना।। शिव सेना हो या गणेशजी की सेना असली सेनापति वही जो किसी भी धर्म की रक्षा करना जानता हो उसका सम्मान करना जानता हो जैसे असली पुरुष वही जो किसी भी स्त्री का सम्मान और रक्षा करे न की सिर्फ घर की महिलाओं के प्रति समर्पित हो। मैं स्वयं भी एक राजपूत हूँ पर पर जैन धर्म के कुछ आदर्शों पर चलना उन्हें अपनाना अपने आप में गर्व महसूस करवाता हैं धर्म जीवन का दिशा निर्देशन करता हैं । मैने २६ वा रोज़ा भी रखा उस वक़्त जब में महज़ १७ वर्ष की थी अपने एक शिक्षक के जीवन के लिए प्रार्थना के रूप में। अहिंसा के साथ समझ और बुद्धिमानी से जीवन जीना भी धार्मिकता के अंतर्गत आता हैं उसे आप जैन धर्म से परिभाषित करे या किसी अन्य से। 
भगवान के मूर्तिमान स्वरूपों से अमूर्त रूप की आराधना करने में सुविधा होती है। दूसरे धर्मों के लोगों के बारे में क्या कहें खुद स्वधर्मी बंधु भी अपने भगवान के विभिन्न स्वरूपों के प्रति रूढ़ता का भाव दिखाते हुए कहते हैं कि हम तो अमुक भगवान के भक्त हैं अमुक के नहीं? इसके बावजूद गणेश जी के रूप के सभी उपासक होते हैं अपनी झूठी कटटरता से आप ऊँचे स्थान पर नहीं आ जायेगे क्योंकि उनके नाम लिये बिना कोई भी शुभ काम प्रारंभ नहीं होता ऐसी मान्यता रही हैं जो हमारी आस्था हैं । भारत विश्व का अध्यात्मिक गुरु कहलाता है। उसे वही बने रहने दे किसी प्रकार के साम्प्रदायिकता के बन्धनों में न बांधे क्योकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस तनाव पूर्ण जीवन में ये कुछ दिनों के पर्व हमें खुशियों का आभास करवाते हैं वरना रोज कमाना खाना ही हमारी दिनचर्या बनकर रह जाएगी हम उसे कभी जी नहीं पायेगे इसलिए त्यौहार मनाये थोड़ा सामजस्य के साथ जैसे हम अपने परिवार में रखते हैं सबके भिन्न भिन्न स्वभाव और आदतों के चलते ।

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