लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

हमारा गणतंत्र-- एक विमर्श
लेखिका -शोभा जैन    
 

             मित्रों आज हम सब गणतंत्र की 67 वीं वर्षगांठ सहर्ष, स्वतंत्रतः मना रहे हैं ये हम सबका सौभाग्य हैं की हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा हैं आज देश को संविधान से बहुत कुछ मिला एक तरह से संविधान ने गणतंत्र शब्द के अर्थ को सजीवता दी- गणतंत्र मतलब  'लोगों का कल्याण करने वाली शासन पद्धति'  जिसके तहत आज भारत में भुखमरी, ग़रीबी,निरक्षरता, जैसे गंभीर मसलों को काफ़ी हद तक अपने नियंत्रण में कर उसे सुलझाने के सफल प्रयास किये हैं और हो रहे हैं। बस आवश्यकता हैं सामाजिक और संवैधानिक अपेक्षाओं को अपने-अपने स्तर पर देखने की क्योकि अक्सर सामाजिक विकृतियाँ को संविधान की कमी बताकर नजर अंदाज कर दिया जाता हैं सरकारी विभागों में शीर्ष पदों पर विराजमान कानून के निबाह की देख रेख करने वाले उन तमाम महानुभवों के अतिरिक्त हम व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से बातों में सुधार कर आत्मसात कर ले तो शायद सभी संविधान के प्रति कृतज्ञता महसूस करेंगे कहने का तात्पर्य संवैधानिक अधिकार और क़ानून, और सामाजिक उत्तरदायित्व को पृथक -पृथक देखे भारत जैसे बेहद विविधता भरे देश में संविधान अक्षुण्ण रहा समय के साथ अपना महत्व बरक़रार रखते हुए इसमें संशोधन हुए ये भी एक उपलब्धि हैं..अपने आसपास देख लीजिये कई पडोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल आदि देशों में संविधान कई बार बने और उन्हें रद्दी की टोकरी में डाला जाता रहा। भारत में तमाम राजनैतिक मुद्दों पर तीखे मतभेद होने के बावजूद संविधान के प्रति अनादर का भाव किसी में नहीं और इस विषय में कोई मतभेद नहीं। बात आधी दुनिया की करें यानी महिलाओं की हो, तो संविधान ने उन्हें भरपूर अधिकार दिए खुद मुख़्तार होने के लिए उन्हें मर्दों के साथ ही मताधिकार दिया जबकि अमेरिका और ब्रिटेन में औरतों को मर्दों के बाद यह अधिकार मिला..पंचायतों में तीस प्रतिशत आरक्षण महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। यह नारी सशक्तिकरण के रस्ते में मील का पत्थर साबित हो रहा हैं इसके बावजूद भी अगर महिलाओं की दशा में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ ,तो कमी संविधान की नहीं सामाजिक हैं समाज की मानसिकता की हैं।

    इसके साथ ही ये भी आवश्यक हैं की हम सब असहमति को असहिष्णुता का पर्याय न बनने दें,क्योकि असहमति दूर करने का सभ्य तरीका संवाद हैं न की विरोध और नाराजगी....अतः अपने परिवार के साथ समाज के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को भी अपने देनिक जीवन का अहम हिस्सा बनाये सिर्फ संविधान से अपेक्षाये रखना अपनी जिम्मेदारी से हाथ झटकने जेसा हैं याद रहे नियमों की आवश्यकता तब पड़ती हैं जब उल्लघन में सीमाये न रहे .कानून हमारी सुरक्षा और सुविधा के लिये बनाये गए हैं, नियमों का निर्वहन करने की शर्त के रूप में नहीं, न ही कानून नियम तोड़ने के बदले सजा पाने का एक विकल्प के रूप में, कानून सिर्फ उन लोगो के लिये हैं जो सामाजिक मूल्यों, अनुशासन और नियमों को ताक पर रखकर जीवन जीते हैं बेहद आवश्यक हैं अपने अतीत के प्रति सम्मान वर्तमान के प्रति संवेदनशील और भविष्य के प्रति दूरदर्शिता के साथ जागरूक होकर जीवन जिए....हमारे संविधान ने हमें अधिकार दिए हैं उनका उपयोग करने की स्वतंत्रता दी हैं अधिकारों की जानकरी होने के साथ -साथ उनका सही इस्तेमाल करना सामाजिक दायित्व और संविधान के प्रति आदर भावना व्यक्त करता हैं

जय हिन्द जय भारत। 

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