लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

 कविता
'जीवन' में  'मैं '
-शोभा जैन

आदमी 'जीवन' जीता हैं 'मैं' में
'जीवन' अभाव पूर्ति से अधिक कुछ नहीं
अपने भीतर के मनुष्य और ,
विश्व  के बीच एक गहतर सम्बन्ध
और उसकी  अभिव्यक्ति भी नहीं
उसके चिंतन के क्रम में
जीवन की मौलिक उपादेयता
 की एक झलक भी नहीं
जो बदल जाती हैं
 समाज के बदलने के क्रम में
सहसा  हुई घटना
बदल  जाती जाती हैं  कुछ दिनों में
आई गई बात के स्वरुप में
क्षण  भंगुर जन्मी संवेदनाये
अखबार के पहले पन्नें से शुरू
और अंतिम पर खत्म हो जाती
बचा रहता केवल 'मैं'
जो कभी जाता ही नहीं
जबकि उस 'मैं' के पीछे
छिपे हैं जीवन के
 अघटित रहस्यों
की श्रृंखला
अपने आप से कतराने का सच
चल चित्र पात्रों में अपनी
पहचान खोजने  का समय
मन बहलाने के झूठे आयाम
किसी चित्र नुमा संगीत के टुकड़े
कुछ खोये  हुए सुख के पल
कुछ समझदारी की बातें
जीवन के कटुक सवाल
जिनसे बचकर भागता 'मैं'
मनोरंजन को मानता तनाव मुक्ति का साधन
ऐसे अयथार्थ से प्रभावित 'मैं'
सतत रहता उस विचित्र मनोरंजन में
जो रहस्यमय हैं उस असंतोषजनक जीवन में
अपने सम्पन्न अस्तित्व और उसके अनुभवों
में बिना खतरे के पलायन करता 'मैं'
दूसरे पात्रों में अपनी अपूर्ण जीवन
को पूर्ण करने की लालसा
या फिर किसी प्रेक्षागृह के
अँधेरे से एक   रोशन मंच पर
आँखे गड़ाए उस 'मैं 'से 'मुक्त'
होकर 'मुग्ध' हो जाते हैं
जबकि वो केवल रंगमंच हैं
उस एक रात का, यथार्थ नहीं,
सम्पूर्ण जीवन का
मनुष्य नितांत अपने से
कुछ अधिक होना चाहता हैं
 जीवन केवल 'मैं' में जीना चाहता हैं
वो मैं जो वास्तव में अस्तित्वहीन हैं
जो भीड़ के साथ चले जा रहा हैं
अपने एक 'अलग व्यक्ति' होने पर
उसे संदेह हैं या संतुष्ट नहीं
ओरो से अलग दिखना उसे नीरस कर देता हैं
अपनी व्यक्तिक जीवन की
आंशिकता से वो जीवन की पूर्णता
की और ढहना चाहता हाँ
अर्थ गर्भ से निकला तर्क संगत विश्व
में अपने व्यक्तित्व की क्षण भंगुर
अकस्मात् सीमा रेखाओं में
अपने को नष्ट कर देने के खिलाफ विद्रोह करता हैं
केवल उन्ही से सम्बन्ध
जोड़ना चाहता हैं जो उसके 'मैं' से
कही ज्यादा हो
जो उसके भीतर हैं वो छद्म रहे
किन्तु उसके बाहर अविनाभावी  हो
उसका 'मैं' आसपास की दुनियां को
अपने भीतर खींचकर
अपना बना लेने को लालायित हैं
किन्तु अपने भीतर के सच
आत्म सात नहीं कर सकने
की असमर्थता उसे बाहर झाँकने के लिए
धकेलती हैं
उसके भीतर का डर
उसे बहार के लिए आमंत्रण देता हैं
वह केवल विज्ञानं और तर्क से
अपने 'मैं' भरे जीवन के सुदूर नक्षत्र पुंजो
को विकसित कर लेना चाहता हैं
अणु की अतलांत गुत्थियों में
प्रविष्ट करना चाहता हैं
अपने सिमित 'मैं' में
सामूहिक अस्तित्व को जोड़ना चाहता हैं
जाने क्यों अपने भीतर के व्यक्ति को
सामाजिक बनाना चाहता हैं
नहीं रचना चाहता अपनी अलग रचना
अपने अस्तित्व सोच विचारों के साथ
नहीं रखना चाहता स्वयं से निजता
फिर भी जीता हैं 'मैं' में
स्वयं से निजता साहस मांगती हैं
क्यों नहीं वो खोजता स्वयं में
केवल एक 'व्यक्ति' खोखलेपन में जीता जीवन ]
 झूठे मैं के मद में डूबा अस्तित्वहीन जीवन की
गाड़ी में भागता हरदम तलाशता
मनोरंजन के आयामों में अपने
जीवन का सुख
क्यों नहीं खोजता वो अपने भीतर
एक संभावना
जो उसके भीतर छिपी पड़ी हैं
उसके 'मैं' की आड़ में या
सामाजिक होने के अतिरेक में
कही गुम हो  हैं
उपनयस के नायक बनने के लालसा
या रंग मंच का महानायक बनने का बेकाबू
उन्मादी रुझान उसे अपने ही भीतर छिपी
सार्वभौम मौलिक उपादेयता से दूर कर रहा हैं
अपनी भोगवादी प्रवृत्ति
उस मनोरंजन में संतुष्टि नहीं देगी
 अपने 'मैं ' से तादम्य स्थापित करने का साहस
नहीं जूटा पाता। ..
बल्कि अपने से दूर हटता
स्वयं से दुरी बनाता
यथार्थ की नंगी ताकत को
 काबू  रखने जोखिम लेता
निः संदेह -मैं का यथार्थ
भयावह हैं द्वंदात्मक हैं
किन्तु उन्मुक्त स्वतंत्रता
भीतर से ही आती हैं
बाह्य तर्कवाद से नहीं
या थोथे दिखावे और
नाटकीय रंगमंच से भी नहीं
आयाम जीवन नहीं
बल्कि वो कभी कभी
बन जाते हैं साधन
जीवन से सुदूर करने के
अपने 'मैं' से दूर करने के
दूसरों में अपना व्यक्तित्व जीने के
अपना अस्तित्व खोने के
अपने 'व्यक्तिगत' होने से परे
'व्यक्ति' होने से भी कोसो दूर कर देते हैं ये
क्षणिक मनोरंजन में खोजते हैं
अपने जीवन का यथार्थ
उसके पात्रों में अपनी छवि
जो थियेटर के बाहर आते ही
दू कर देती हैं अपने भरम को
लुभावनी सामयिक मुग्धावस्था ही
कमोवेश 'मनोरंजन' का स्वभाव हैं
उस सुख का देहावसान हैं जो
हम जे सकते हैं अपने व्यक्ति होने में
अपने ही अस्तित्व के साथ
अपने वास्तविक 'मैं' के भीतर
जीवन के प्रश्नों के प्रत्युत्तर के साथ
पूंजीवादी इस समाज में
अस्तित्व का हनन मानव का
बड़ा ह्रास हैं जो दिखाई नहीं देता
या पारदर्शी नहीं
हम समझ ही नहीं पाते
 अस्तित्व साधित जीवन के लिए
बुद्धि और भावना
में संतुलन कितना आवश्यक हैं
भावना- बुद्धि के चरम प्रयत्नो से प्रेरित करती हैं
वहीँ बुद्धि- हमारी भावना  शुद्धिकरण
किन्तु हम उलझे रहते हैं ऊपरी परतों में
झंझटो में देखा देखि में
अपने हेटर देखना ही विस्मृत कर देते हैं
भूल जाते हैं जीवन संभावनाओं से भरा पड़ा हैं
अपने भीतर खोजने का विलम्ब
हमें 'मैं' से दूर करता हैं
धकेलता  हैं उस 'मैं' में
जो यथार्थ हैं ही नहीं
लोकाचारों में स्वयं को डुबोना
उसे स्वयं स दूर कर देता हैं
कभी कभी वो ये भी भूल जाता हैं
की वो हैं क्या
उसका जन्म क्यों हुआ
सबसे आसान जीवन का चुनाव ही
उसे भीड़ का हिस्सा बना देता हैं
तब खो बैठता हैं वो अपने भीतर के 'व्यक्ति' को
और मद में जीता अपने 'मैं' में
जो वास्तव में उसका अपना रहा ही नहीं।










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