लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

                                                  आलेख –
                                        स्त्री विमर्श –द्रष्टि और दिशा  

                                                                                               -शोभा जैन 


पुरुष प्रधान देश में स्त्री विमर्श महज एक रोचक विषय है उसके दैहिक विषयों पर चर्चा करने का समय अन्तराल के साथ परिवर्तित होती सभ्यता की नग्नता अब स्त्री के खुलेपन पर भी हावी हो रही है । हम उस समाज का हिस्सा है जहाँ  आदमी अगर नंग-धड़ंग हो जाए तो उसे संन्यासी मान लिया जाता है और औरत नग्न हो तो स्त्री को अब इस क़ैद से निकलना होगा। स्त्री को शुरू से आज तक शरीर में ही क़ैद रखा गया है। चाहे वह साहित्य में बिहारी  का नख-शिख वर्णन हो, चाहे वात्सायन का नायिका भेद। पूरा का पूरा रीतिकाल भरा पड़ा है नायिकाओं के दैहिक वर्णन में । बहुत खोजा पुरुषों का नख-शिख वर्णन कहीं नहीं मिला। नारी के नख-शिख वर्णन की परंपरा में निष्णात कवि पुरुष के प्रति  इतने उदासीन क्यों रहे ?  स्त्री को देह के आस-पास ही परिभाषित किया गया। बिहारी ने अपने एक दोहे में बताया है -वधू अधर की मधुरता कहियत मधु न तुलाय,लिखत लिखक के हाथ की किलक ऊख ऊँ जाय।धन्य है ऐसी वधू और धन्य है ऐसा कवि! जिससे कलम बनती है वे सारे किलक अगर ऊख हो जायँ तो देश की चीनी की आवश्यकता तो पूरी हो ही, इतनी बची रहेगी कि उसके निर्यात से विदेशी मुद्रा के भंडार भर जायेंगे। नीति-बोध कहाँ गया ? हमारे समय में भी स्त्री की मुस्कुराहट ही बहुत बड़े -बड़े तूफान ला देती है आज के समाज  में कपड़ों को लेकर मोर्डेनिटी  आ गयी है पर पुरुषों को सोच में नहीं।  दरअसल हम उस पीढ़ी की सोच में है जो उदारीकरण में जवान हो रही है । जहाँ तक स्त्री विमर्श के वर्तमान स्वरूप का सवाल है तो कोई भी विमर्श ऐसा नहीं होता जिसे सभी स्वीकार कर लें। लेकिन ये निरंतर बढ़ने वाला और साहित्य की मुख्यधारा बनने वाला विमर्श है। इस पर हमें सोचना और चिन्तन करना होगा स्त्री को विवेकशीलता के साथ शायद कभी आँका ही नहीं गया यौवन  और सौन्दर्य के अतिरिक्त उसकी अपनी समझ और बुद्धि का मूल्यांकन उस स्तर तक नहीं हुआ जितना वर्णन उसकी दैहिक विषयों पर हुआ| सम्पन्न और विकसित आधुनिक भारत का सपना देखने वाला भारत और पूंजी मुक्त बाजार को अपना आदर्श मानने वाली पीढ़ी इस मुगालते में पल रही है की स्त्री आज आजाद है शायद स्त्री की स्वतंत्रता की परिभाषा महज उसके पाश्चात्य तरीकों से कपडे पहनने, बाहर जाकर नोकरी करने,पढने -लिखने और सजने संवरने के अर्थ में ही ली जाती है किन्तु उसके प्रति सोच आज भी उसी पराधीनता में कैद है । शायद  एक पुरुष स्त्री के व्यक्तित्व में  सौन्दर्य दैहिक जिज्ञासा से ऊपर देखना ही नहीं चाहता अक्सर इसलिए नोकरी में भी वरीयता का आंकलन उनके प्रतिभा कौशल के रूप में द्वितीयक होता है 'स्त्री है' इसलिए उसका चुनाव आसानी से होता है कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो स्त्रियाँ अक्सर शोपीस के रूप में ही देखी जाती है उनकी प्रतिभा 'उनका स्त्री होना ही है।' फिर चाहे वो  बात किसी भी कार्य क्षेत्र की हो निचले और कमजोर तबगों से लेकर उच्च श्रेणी तक में यही आलम है शायद इसी लिए योग्य होते हुए भी एक स्त्री को पुरुष की तुलना में अक्सर कम  वेतन दिया जाता है क्योकि उसका कार्य सिर्फ कार्यालय की शोभा बढ़ाना है पदस्त तो वो सिर्फ नाम के लिए है ।  इस बात को स्पष्ट करने के और भी सैकड़ों उदाहरण है क्यों हर रिझाने वाले विज्ञापन में अक्सर स्त्री को ही पात्र बनाया जाता है जबकि एक पुरुष को दिशा विमुख होते दिखाया जाता है इतना ही नहीं जहाँ स्त्री की आवश्यकता नहीं वहां भी स्त्री को डाल दिया जाता है । निः संदेह स्त्री सौन्दर्य का पर्याय है किन्तु  उसे फूहड़ता और नग्नता में परिवर्तित कर  स्त्री को महज शोभा की सुपारी की धारणा में  लिया जा रहा है जहाँ उसके ज्ञान,प्रतिभा,योग्यता, गुणों का मोल नहीं चूँकि वो एक स्त्री है यही पर्याप्तता उसे अपने इस ठप्पे का दुरूपयोग करने के लिए अब बाध्य कर रही है जब बार -बार उसके स्त्री होने के सॉफ्ट कार्नर का एहसास करवाया जाता है तब शने -शने उसकी मानसिकता उसी काम के लिए बन जाती है  फलस्वरूप वर्तमान में महिलायें सबसे आसान रास्तों का चुनाव जीवन के सबसे कठिन दौर में कर रही हैं और यही विषय  कई घरों ,परिवार और हमारे समाज के लिए दुर्भाग्य का विषय बन गया है की उसने अपनी खूबसूरती को अपने व्यवसाय में तब्दील कर दिया दरअसल पुरुष उसे जिस रूप में देखता है उसे ही अपनी नियति बनाने में स्त्री  को अब कोई शर्म नहीं शायद इसलिए अब स्त्री अपने जीवन के वास्तविक  कार्यक्षेत्र में स्रजन तो कर  रही है लेकिन पुराने शब्दों पर  नए अर्थ के साथ। समाज वैसा  ही बनता है जैसा आप बनाना चाहते हो और वैसा ही दिखाई देता है जैसा आप देखना चाहते हो द्रष्टिकोण आपका अपना है जैसी द्रष्टि होगी वैसी दिशा होगी 'सोच' हर समस्या का समाधान देती है उसे बदलना या बनाना, निर्माण और परिवर्तन दोनों ही  विकल्प समाज में स्त्री की दशा और दिशा के लिए एक  सम्मानजनक स्थिति का परिचायक बन सकते है ।   ----  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें