लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

कविता – ‘एक गाँव’

       लेखिका –शोभा जैन


गाँव के भीतर ‘एक गाँव’
शहर के भीतर ‘एक गाँव’
   महानगर के भीतर ‘एक गाँव’
   
मेरे भीतर ‘एक गाँव’
तेरे भीतर ‘एक गाँव’
   खोदी थी जमीन इमारत के लिए
   मिला,मिट्टी के भीतर ‘एक गाँव’
   जहाँ थकते नहीं पाँव
ऐसे पीपल के नीचे ‘एक गाँव’
    वो रहता दूर विदेश में भले
    उसके मन में बसता है ‘एक गाँव’
 भाग कर जीता है वहां,  
हर रोज एक पाँव, 
शहर के, एक घर से भी
अच्छा है ‘एक गाँव’
    जब छप्पर पर कौआ,
    बोले  काँव- काँव
अतिथि आगमन में जुटे ‘एक गाँव’
यहाँ गेहूं की बाली, जामुन की छाँव
     शहर में मकान 'नम्बर प्लेट' पर नाम  
     यहाँ,पुरखों के नाम से जीता ‘एक गाँव’
मखमली गद्दों पर नीद भी हराम
टूटी खटिया पर चैन लेता ‘एक गाँव’  
    ये गुरुर है झूठा, झूठा हर दाव
    शहर में बाजार लाया ‘एक गाँव’
जहाँ बाजरे की रोटी में भाजी का चाव
बहती एक नदी और सिर्फ एक नाव
     धुएं से दूर,  बैलगाड़ी से काम
     मुफ्त में मिलते यहाँ इमली औरआम
मेरे शहर से बहुत दूर बसा ‘एक गाँव’
शहर के एक घर से, कही अच्छा है ‘एक गाँव’
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