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रक्षाबंधन -वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एक पुनरावलोकन
रक्षाबंधन -वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एक पुनरावलोकन
भारत
त्योहारों का देश है। कहा जाता है प्राचीनकाल में रक्षाबंधन मुख्यत: ब्राह्मणों का,
विजयदशमी क्षत्रियों, दीपावली वैश्यों और होली
शूद्रों का त्यौहार माना जाता था। रक्षाबंधन के पर्व पर यह आलेख इस त्यौहार के
अर्थपूर्ण निर्वहन पर एक पुनरवलोकन है। रक्षाबंधन के त्यौहार पर प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन
ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बांधते थे, जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था।
येन
बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन
त्वामपि बध्नामि रक्षे रक्षे मा चल मा
चल।।
इस
श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र
राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं
तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी
विचलित न हो।)" भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र
को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए इस मन्त्र का स्वस्तिवाचन किया था (यह श्लोक रक्षाबन्धन का
अभीष्ट मन्त्र है) रक्षाबंधन जिसे एक त्यौहार के रूप में हम मनाते है इसे मनाये
जाने के पीछे कई मान्यताएं रहीं है इसके
संबंध में एक पौराणिक कथा भी
प्रसिद्ध है। देवों और दानवों के युद्ध में जब देवता हारने लगे, तब वे देवराज इंद्र के पास गए। देवताओं को भयभीत देखकर इंद्राणी ने उनके
हाथों में रक्षासूत्र बाँध दिया। इससे देवताओं का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने
दानवों पर विजय प्राप्त की। तभी से राखी बाँधने की प्रथा शुरू हुई। दूसरी मान्यता
के अनुसार ऋषि-मुनियों के उपदेश की पूर्णाहुति इसी दिन होती थी। वे राजाओं के
हाथों में रक्षासूत्र बाँधते थे। इसलिए आज भी इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को
राखी बाँधते हैं।रक्षाबंधन का त्योहार भाई-बहन के पवित्र प्रेम का भी प्रतीक है।
यह सबसे अहम कारण रक्षा बंधन के दिन को
बहुमूल्य बनाता है। हालांकि कई अन्य मान्यतायें और कथाएँ रक्षा बंधन के सन्दर्भ
में प्रचलित है और राखी के इन धागों में
अनेक कुरबानियाँ निहित हैं।अंततः इस पर्व का सार 'रक्षा
सूत्र' के रूप में ही उभर कर आता है। शायद इसीलिए रक्षाबंधन का त्योहार हर भाई को बहन के प्रति
अपने कर्तव्य की याद दिलाता है।किन्तु उत्सवों और त्योहारों को मनाने का मूल कारण
अब महज एक दिवस की ओपचारिकता जैसी प्रतीत होती है शायद हम इस बात को भूल गए हैं कि
राखी के धागों का संबंध मन की पवित्र भावनाओं से हैं।एक पुरुष को ईश्वर ने स्त्री
के रक्षक के स्वरुप में ही निर्मित किया है समयानुसार उसके पद और स्थान में बदलाव
किया किन्तु स्त्री को सदैव पुरुष का संरक्षण सस्मान प्राप्त हो इसलिए ही पिता,
भाई और पति के रूप में स्त्री के जीवन में एक पुरुष को अनिवार्य
किया। हालांकि अब समय इतना तेजी से आगे
निकल रहा है की आज की नारी स्वयं को पुरुष तुल्य बनाने में स्वयं को सक्षम कर रही
है। किन्तु समय कितना भी आगे निकल जाय कुछ चीजें कभी नहीं बदलती ईश्वर ने अगर
स्त्री और पुरुष को दो अलग -अलग स्वरुप में निर्मित किया है तो अवश्य ही इसके पीछे
कोई ठोस कारण रहा होगा। स्त्री को समर्पण के साथ मानसिक सहयोग के लिए पुरुष के
जीवन में होना अनिवार्य किया। समयानुसार
पद और स्थान का बदलाव कर एक पुरुष को भी
माता के रूप में, बहन के रूप में और पत्नी के रूप में
स्त्री अनिवार्य की गयी। इसका अर्थ जो कार्य स्त्री का है वो शायद उससे बेहतर कोई
नहीं कर सकता और जो कार्य एक पुरुष का है वो कार्य उससे बेहतर कोई नहीं कर सकता
किन्तु आज प्रकृति के नियमों के साथ थोड़ी छेड़-छाड़
हो रही है स्त्री और पुरुष दोनों ही अपने -अपने काम को दरकिनार कर
कर्तव्यविमुख हो रहें है। सभ्यता और परिवेश के विकास के साथ प्रकृति द्वारा
प्रदत्त नेमत का भी ससम्मान निर्वहन करना अनिवार्य है। अन्यथा किसी भी विकास का चरम पतन का कारण भी बन जाता है। घर-
गृहस्थी,साज श्रृंगार सेवा पूजा संस्कार जैसी बातें एक
स्त्री के पिछड़ेपन का घोतक मानी जाने लगी है.। किन्तु नोकरी करने वाली स्त्री
सेल्फ और आत्मविश्वासी औरत के रूप में संबोधित होने लगी है एसी महिलाओं को रक्षक
की जरुरत ही महसूस नहीं होती शायद इसलिए क्योकि जो रक्षा करेगा उसकी भी अपनी
अपेक्षायें होंगी जो निः संदेह एक पुरुष की एक स्त्री से होती है पदानुसार माँ,बहन,और पत्नी के रूप में। उन्हें पूरा करने के लिए उसे अपने पारिवारिक
जीवन में स्वयं को डुबोना होगा। घर के हर एक सदस्य की जरूरतों खुशियों का
ख्याल रखना होगा ये काम शायद बाहर जाकर पैसा कमाने से भी कठिन है क्योकि ये काम
शिद्दत और समर्पण मांगता है। जिसे देने के लिए शायद आज की शिक्षित नारी तैयार
नहीं। बाहर जाकर काम करना कोई गलत काम नहीं किन्तु अपनी जिम्मेदारियों के सम्पूर्ण
निर्वहन के पश्चात् ही इस और अग्रसर होने का
कदम बढ़ाना एक उचित निर्णय होगा। बल्कि अपने शोक या स्वयं को रचनात्मक बनाए
रखने के लिए ऐसा कोई भी कार्य करना बिल्कुल सही निर्णय होगा। किन्तु स्त्री की
आर्थिक आत्मनिर्भरता का अतिरेक कई परिवारों में विघटन का कारण बन रहा है। फलस्वरूप
आज की स्त्री घर में रहना ही नहीं चाहती।
घर के कार्यो की दक्षता उसे गर्वित महसूस नहीं कराती। जबकि उसके पास एक
पुरुष है जो उसे आर्थिक रूप से भी सुरक्षित संरक्षित कर सम्मान की जिन्दगी देने
में सक्षम है। इस विषय का मूल थोडा गहरा है की रक्षा सूत्र तभी बांधना या बंधवाना
उचित होगा जब दोनों एक दूसरे के कर्तव्यों
का निर्वहन कर सकें। फिर वो भाई का बहन के साथ ही क्यों न हो। अगर भाई
रक्षा करने के लिए तत्पर है तो बहन भी समर्पण के लिए स्वयं को सक्षम
बनायें।पदानुरूप एक पुरुष से एक
स्त्री की अपने जीवन में दो ही अनिवार्य आवश्यकता होती है
संरक्षण[सुरक्षा] और सम्मान। बिना पुरुष के ये दोनों ही आवश्यकतायें पूरी नहीं
होगी या संभव नहीं ऐसा लिखकर मैं किसी के विचारों या स्वाभिमान को ठेस न पहुचाते
हुए प्रकृति के सत्य से अवगत करने का प्रयास अवश्य करुँगी की कोई तो वजह रही होगी
ईश्वर ने स्त्री और पुरुष दोनों को पृथक रूप में निर्मित किया न केवल शारीरिक
अपितु मानसिक तौर पर भी। मैं यहाँ उनके विचारों से भी सहमत हूँ जो स्त्री को 'आज की नारी से' संबोधित करते है मैं मानती हूँ भारत
देश में कई वीरांगनायें जन्मी है जिन्होंने पुरुषों के समान साहसिक कार्य किये हैं किन्तु उनकी वीरता युद्ध के साथ उनके
प्रेम और समर्पण की भी गाथा कहती है।और समानुसार उन्होंने स्वयं को केवल 'पत्नी' बने रहना भी स्वीकारा। जिसमें उनकी प्रतिभा एक बेहतर माँ,पत्नी और बहु के साथ
-साथ एक कुशल रानी के रूप में भी उभर कर सामने आयी। अतः इस रक्षाबन्धन रक्षा सूत्र का अर्थ गहराई
से समझकर स्त्री भी इस रक्षा सूत्र की कीमत देने के लिए तत्पर रहे। रक्षाबंधन केवल
एक पर्व ही नहीं अपितु सामाजिक और
पारिवारिक एकबद्धता एवं एकसूत्रता एवं हमारी
सांस्कृतिक विरासत को पुनर्सृजित करने का एक अवसर है. एक ऐसा पर्व जो घर
-घर मानवीय रिश्तों में उर्जा का संचार कर दे। नारी के सम्मान और सुरक्षा पर
केन्द्रित ये पर्व विलक्षण इसी लिए है क्योकि सबसे अधिक जिम्मेदारी से परिपूरित
है। प्राचीन काल में जब शिष्य गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूरी कर अपने गुरु से विदा
लेते थे तब आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वे रक्षा सूत्र बांधते थे जबकि
आचार्य अपने विधार्थी को इस कामना के साथ रक्षा सूत्र बांधते थे की उसने जो ज्ञान
प्राप्त किया है उसका वह अपने भावी जीवन में समुचित ढंग से प्रयोग करेंगे अर्थात्
दोनों की एक दुसरे के प्रति अपेक्षायें निहित है। वर्तमान समय मानवीय संवेदना और
मानवीय उसूलों से परे केवल साज श्रृंगार
के साथ भाईयों की जेब की इतिश्री करने से ज्यादा और कुछ नहीं।
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