आलेख -
कितने मासूम ये दीये....
शोभा
जैन
भारत
का सबसे भव्य माने जाना वाला पर्व ‘दीपावली’ जिसकी भव्यता को पूर्णता देते हैं ये मिट्टी
के दिये | भारतीय संस्कृति की परम्पराओं
में जिस तरह स्वास्तिक,कलश और शंख को महत्वपूर्ण माना गया है उसी तरह दीये भी इसी
परंपरा का एक अहम हिस्सा हैं | ये मिट्टी के दीये भारतीय संस्कृति में हमें अपने
जीवन से अज्ञान को दूर कर पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का सन्देश भी देते हैं कितने
मासूम होते होंगे वो हाथ, कितनी शिद्द्त होती होगी उनकों आकार देने वाले दोनों हाथों
में जो प्रज्वलित होने पर इनकी शोभा चार गुनी बढ़ा देते है | पर जरुरी नहीं हमारे
त्योहार को भव्य बनाने वाले इन हाथों के घर की दिवाली भी उतनी ही भव्य होती होगी
|अब इस बदलते परिवेश में इन जलते दीयों का
रुदन सुनाई देने लगा है जिन दो हाथों के सामंजस्य से इन दीयों को आकार मिलता है
वही दो हाथ इस तपती चिलचिलाती धूप में अपनी और इशारा कर बुलाते है एक सही खरीदार
को उसी मासूमियत से जिस मासूमियत से इन्हें आकार में ढाला गया |दिये की टोकरी में रखा प्रत्येक दिया टोकरी के बाहर झांक
रहा है ताक रहा है दिवाली के भीड़ भरे बाजार में कि कोई साहेबा बिना भाव ताव किये इस मासूम से बच्चे को उसकी मासूमियत की कीमत दे जाय दीये की
मासूमियत भी बिल्कुल वैसी ही जैसी उसे तपती धूप में बेचने वाली किशोरी की | लोग
आते है भाव पूछकर चले जाते है उन पर तराशी गई मासूमियत से भरी बनावट और सुन्दरता,
रंग रोगन का पारिश्रमिक भी उन्हें सही समय नहीं मिल पाता | कभी- कभी दिवाली आकर
चली भी जाती है और हाथ में रह जाती है महज़
कुछ चिल्लरें| फिर भी दिये करते है
इन्तजार अगली दिवाली का की हम इस टोकरी से बाहर आयेगे कोई साहेबा हम मे से किसी एक
को अपने हाथ में लेकर उसी मासूमियत से देखेगी जिस मासूमियत से उन्हें बनाने वाले ने
उन्हें अपनी कल्पना में उकेरा था और उस
कल्पना को साकार कर लाया इस बाज़ार में बेचने के लिए | दिये करते हैं इन्तजार आएगी
कोई साहेबा और उठाकर देखेगी दिये के ढेर में एक साबुत से साफ़ सुधरे दीये को, आजू बाजू घुमाकर उसे चारों और से देखेगी, देखेगी उसकी बनावट को , उसकी उस गहराई को जिसमें
तेल भरा जायेगा, ‘दिये’ की ‘गहराई’ निर्धारित करेगी वो अँधेरे में कब तक जलेगा , साहेबा
देखेगी उसका तल, दिये का विस्तार, उसमें तराशी गई
चारों और सीडीनुमा कंगूरे वाली डिजाइन और वो सिरा जिसमें कपास की बत्ती निरंतर
जलने के लिए अपना विराम लेगी केवल एक ही नहीं चार सिरे भी एक दिये में समा गए
जिसमें चार बत्तियां एक साथ रोशन करेगी एक दिये को| उन सिरों की गहराई इतनी सुंदर की बत्ती खुद ठहर
कर जलने को आतुर हो जाय| है कोई ऐसा खरीदार इन मासूम दीयों का जो समझ सके इनका
आकार ? बनावट? और विस्तार ? है कोई जो
समझ सके इनके सिरों में छिपी गहराई? इसके
तल में छिपी दृढ़ता, इसके बनने से लेकर
बाज़ार में बिक जाने तक की व्यथा?
कितने मासूम ये ‘दीये’ ढूँढ रहें है किसी
ऐसे खरीदार को| जो समझ सके इसके आकार प्रकार को |कितने मासूम ये ‘दिये’ |इन्हें
जलाते नहीं है हम, ये तो अपनी ही आग में जलते है ‘कितने मासूम ये दिये’ |
अंत में किसी रचनाकार की कुछ
पंक्तियाँ ----
अपना
साया भी अंधेरों में साथ देता नहीं,
बनके
साथ चलते है ये मिट्टी के दीये|
कभी
आँगन,कभी मरघट,कभी समाधी पर,
किसी
की याद में जलते है ये मिट्टी के दीये |
कितना
स्वार्थी है जमाना जलाता है इन्हें,
सिसकियाँ
तक नहीं भरतें हैं ये मिट्टी के दीये |
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