लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

रविवार, 27 नवंबर 2016

अपनी बात

परित्यक्ता /तलाकशुदा, स्त्री का जीवन एक पुनरावलोकन

--शोभा जैन
जिस विषय में आज हम  बात करने का रहे है  उस विषय पर बात करना भारतीय परंपरा में कोई उचित नहीं समझता बल्कि इस विषय के पक्ष में बात रखने वाले को अक्सर गलत ही करार दिया जाता है विषय विवाह विच्छेद या तलाक । क्योंकि मनु के अनुसार कन्या एक बार ही दान दी जाती है।  किन्तु जैसे -जैसे समय बदल रहा है ज्ञान के विकास के साथ अपेक्षायें भी उतनी ही तीव्रता से अपना स्थान मजबूत कर रहीं हैं  वैसे ही  ये स्थितियां भी परिवर्तित हो गयी|  विवाह विच्छेद की इस प्रथा के चलते कई घर बर्बाद होने से बच भी गए है| इसलिए इसे कुप्रथा की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता  ।प्राचीन काल में आधुनिक युग की विवाह विच्छेद की धारणा के समान  कोई व्यवस्था नहीं थी क्योंकि हिन्दू धर्म में विवाह एक ऐसा संस्कार था जिसमें आत्मा का आत्मा से ऐसा संबंध हो जाता था कि इस भौतिक हाड़-मांस के शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी संभवतः यह संबंध अटूट रहता था । यदि किन्हीं कारणों से पति अपनी पत्नी का त्याग कर देता था तो उसको उसके भरण-पोषण की व्यवस्था करनी पड़ती थी ।किन्तु आज शिक्षित समाज और बदलते परिवेश ने स्त्री और पुरुष दोनों का द्रष्टिकोण बदल दिया है विवाह के अर्थ में दोनों एक दूसरे की अपेक्षाओं पर परस्पर खरे उतरें यही इसका आधार है । हालाँकि कोई भी विवाह विच्छेद छोटे मोटे या पचा सकने वाले कारणों पर संभव नहीं।  निः संदेह इसके पीछे कोई एक नहीं बहुत से गंभीर कारण होते है जिसे समाज के हर एक व्यक्ति को समझाया नहीं जा सकता ।.. दुर्भाग्य की बात तो ये है की ये स्थिति कभी- कभी परिवार के सदस्य और रिश्ते नाते वाले भी नहीं समझते फिर समाज तो बहुत दूर है ।अक्सर तलाकशुदा महिला को ससुराल से बेदखल होने के बाद अपने मायके को भी छोड़ना होता है और किसी नयी जगह पर अपना गुजर बसर करना पड़ता है जहाँ उसके अतीत के बारे में कोई गलत टिप्पड़ी न कर सके जहाँ उसके अतीत से कोई परिचित ही न हो । क्योकि परित्यक्ता या तलाकशुदा महिलाओं को शिक्षित समाज में भी ज्यादातर लोगो के तिरस्कार, हीन भावना, असहयोग या दुरूपयोग होने का सामना करना पड़ता है कभी -कभी एसी महिलाओं को  चरित्रहीन बोलने से भी नहीं चूंकते  है ये शिक्षित समाज  के लोग । कभी कभी तो स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है की विवाह विच्छेद के बाद स्त्री का अकेले रहना अभिशाप बन जाता है |उसे यह कहकर मानसिक प्रताड़ना दी जाती है –जिसका एक पति नहीं उसे कई पति पैदा हो जाते है |या फिर उसे कुछ ऐसे समझोतों को स्वीकार करने पर विवश होना पड़ता है जिसके एवज में उसे अपने जीवन की सुरक्षा मिल सके| इसे मुझे स्पष्ट तौर पर लिखने की आवश्यकता नहीं | तलाकशुदा स्त्री के लिए सम्मान पाने की  ख्वाहिश रखना तो जैसे धरती पर स्वर्ग की अपेक्षा रखने के बराबर है | मैंने ये महसूस किया है की तलाकशुदा महिलाओं को अपने ही परिवार के मांगलिक कार्यों में दूर रखने के बहाने ढूंढे जाते है जैसे –अगर तलाक बड़ी बहन का हुआ है और छोटी बहन का वैवाहिक कार्यक्रम हो तो अक्सर उसे बाहर रहने की ही सलाह दी जाती है| इतना ही नहीं उसे साज श्रृंगार करने का भी हक नहीं उसे यह कहकर मानसिक प्रताड़ना दी जाती है की ये किसको दिखाने के लिए सज संवर रही है |
सोचने वाली बात ये है की क्या तलाकशुदा पुरुष का जीवन भी ऐसा ही होता है  विशेषतः उन परिस्थितियों में जब वैवाहिक जीवन में कोई संतान न हो |जिस प्रकार स्त्री भावनात्मक स्तर पर तहस महस हो जाती है तलाकशुदा होने की वजह से अपनी आत्मा को मार लेती है एक पुरुष के जीवन में क्या बदलाव आता है इस पर काम करना होगा क्या वो भी स्त्री की तरह प्रताड़ित जीवन जीता है? क्या उसे भी अपने जीवन में अनचाहे समझोतो के दौर से गुजरना पड़ता है? क्या उसकी मान प्रतिष्ठता को भी उसी तरह क्षति पहुँचती है जैसी स्त्री को ?क्या समाज उसे भी स्त्री की तरह एक आसामान्य पुरुष की नजरों से देखता है ?मेरे विचार में इस पर काम करने की जरूरत है|
 |ये जानना बेहद जरुरी है की परित्यक्ता /तलाकशुदा स्त्रियों का शेष जीवन केवल  प्रताड़ित होने के लिए ही बना है या पुरुष भी इस सामाजिक ओछेपन का शिकार होते है |
  साथ ही इस संवेदनहीनता का परिचय देने वाली प्रताड़ना  का स्थाई समाधान क्या है ? क़ानूनी रूप से स्त्री और पुरुष के जीवन की इस अवस्था के लिए उनकी विशेष सुरक्षा सम्मान के लिए कोई नियम या अधिकार बनाने की आवश्यकता है क्या?
   अलग से इसलिए क्योकि हमारा  समाज और समाज के बुद्धिजीवी  लोग  ही इन्हें सामान्य इंसान की तरह देखते ही नहीं | बेचारेपन की की आड़ में समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले ही उनके साथ एक ऐसे  व्यवहार का परिचय देते है जिससे उनकी मानवता पर भी संदेह होता है | ये केवल एक परित्यक्ता ही अपनी जुबान से बयां कर  सकती है |अंत में बस यही अपेक्षा समाज से  की स्त्री  को स्त्री  समझो |एक ओरत को  केवल दो ही चीजें चाहिए सुरक्षा और सम्मान | फिर चाहे वो कुंवारी हो, विवाहित हो या फिर तलाकशुदा |और एक स्त्री को स्त्री समझ लेना ही एक सभ्य और  शिक्षित समाज  होने का परिचायक है |
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