लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

रविवार, 4 फ़रवरी 2018

लोग कहते हैं कि बचपन के दिन बड़े सुख के दिन थे। कैसी अजीब बात है, अगर जीवन विकसित हो रहा है तो बुढ़ापे के दिन सबसे ज्यादा सुख के दिन होना चाहिए। बचपन के दिन क्यों? बचपन तो थी शुरुआत, बुढ़ापा है पूर्णता, तो दिन होने चाहिए सुख के बुढ़ापे के। अगर जीवन बड़ा है तो आनंद बढ़ना चाहिए। लेकिन हम सारे लोग तो गीत गाते हैं बचपन के कि बड़े खुशी के दिन थे। और हमारे कवि-कविताएं लिखते हैं कि बड़े सुख थे बचपन में।

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