आज स्वामी विवेकानंदजी की १५३ जयंती के शुभअवसर पर एक आलेख आप सबके लिए एक बार फिर विवेक -आनंद
लेखिका -शोभा जैन
भारतीय संस्कृति के अमर मनीषी स्वामी विवेकानंद......
भारतीय संस्कृति को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने वाले भारत के अमर मनीषी भारत महापुरुष स्वामी विवेकानंद का जन्म भारत की तपों भूमि पर 12 जनवरी 1863 को सूर्योदय से 6 मिनट पूर्व 6 बजकर 33 मिनट 33 सेकेन्ड पर हुआ। भुवनेश्वरी देवी के विश्वविजयी पुत्र का स्वागत मंगल शंख बजाकर मंगल ध्वनी से किया गया। विवेकानंद वर्तमान युग में युवाओं के लिए अन्यवेषक वैदिक ऋषियों की परम्परा के प्रतिनिधि करुणा, दया और मानवीय गुणों के मूर्त रूप थे.। उनके चरित्र में जो भी महान है, वो उनकी सुशिक्षित एवं विचारशील माता की शिक्षा का ही परिणाम है। पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखने वाले पिता विश्वनाथ दत्त अपने पुत्र को अंग्रेजी शिक्षा देकर पाश्चातय सभ्यता में रंगना चाहते थे। किन्तु नियती ने तो कुछ खास प्रयोजन हेतु बालक को अवतरित किया था। नरेंद्र को बचपन से ही परमात्मा को पाने की चाह थी उनके लिए प्राणी मात्र परमात्मा था। उनकी अद्वितीय तर्क शक्ति के चलते जनरल असेम्बली कॉलेज के अध्यक्ष विलयम हेस्टी का कहना था कि-- नरेन्द्रनाथ दर्शन शास्त्र के अतिउत्तम छात्र हैं। जर्मनी और इग्लैण्ड के सारे विश्वविद्यालयों में नरेन्द्रनाथ जैसा मेधावी छात्र नहीं है। इधर डेकार्ट का अंहवाद, डार्विन का विकासवाद, स्पेंसर के अद्वेतवाद को सुनकर नरेन्द्रनाथ सत्य को पाने का लिये व्याकुल हो गये। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ती हेतु ब्रह्मसमाज में गये किन्तु वहाँ उनका चित्त शान्त न हुआ। रामकृष्ण परमहंस की तारीफ सुनकर नरेन्द्र उनसे तर्क के उद्देश्य से उनके पास गये किन्तु उनके विचारों से प्रभावित हो कर उन्हे गुरू मान लिया। परमहसं की कृपा से उन्हे आत्म साक्षात्कार हुआ। भारतीय संस्कृती को विश्वस्तर पर पहचान दिलाने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वो हैं स्वामी विवेकानंद वे एक परम राष्ट्रवादी सन्यासी थे किन्तु उनकी राष्ट्रीयता संकीर्णता के बंधनो से सर्वथा मुक्त थी देश के जन -जन की प्रसन्नता उनकी राष्ट्रीयता का लक्ष्य था। स्वामीजी मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानते थे। अतः वह सन्यासियों को मानव बनने की शिक्षा देते थे। वह प्रायः कहा करते थे ---''मैं एक ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूँ जिससे मनुष्य पैदा हो। '' इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर उन्होंने लम्बे- लम्बे व्याख्यान देना छोड़ दिया था और वे व्यवहारिक शिक्षा पर बल देने लगे। स्वामी जी केवल संत ही नही देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक एवं मानव प्रेमी थे। 1899 में कोलकता में भीषण प्लेग फैला, अस्वस्थ होने के बावजूद स्वामी जी ने तन मन धन से महामारी से ग्रसित लोगों की सहायता करके इंसानियत की मिसाल दी। स्वामी विवेकानंद ने, 1 मई,1897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। रामकृष्ण मिशन, दूसरों की सेवा और परोपकार को कर्मयोग मानता है जो कि हिन्दुत्व में प्रतिष्ठित एक महत्वपूर्ण सिध्दान्त है।शिकागों सम्मेलन से स्वामी विवेकानंद एक विश्वविख्यात व्यक्तित्व बन चुके थे लंदन ही नहीं समस्त पाश्चात्य जगत में उन्हें ''आंधी पैदा करने वाला हिन्दू ''कहा जाने लगा।२८ फ़रवरी १८९७ को शोभा बाजार स्थित राजा राधाकांत के भवन में कोलकाता वासियों की और से स्वामीजी का अभिनंदन किया गया इस अवसर पर स्वामीजी ने भावनापरक भाषण दिया जिसके महत्वपूर्ण अंश में था ----''मनुष्य अपनी मुक्ति के प्रयास ,में इस संसार से सर्वथा सम्बन्धविछेद करना चाहता हैं। वह स्वजनों - पत्नी,पुत्र,परिवार,मित्रों, सम्बन्धियों की माया के माया बंधन तोड़कर संसार से दूर बाहर दूर चला जाना चाहता हैं उसका प्रयत्न रहता हैं की वह शरीर के सभी संबंधो और संस्कारों का त्याग कर दे, यहाँ तक की वह मनुष्य साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला मनुष्य हैं, इसे भी भूल जाना चाहता हैं किन्तु उसके कानों में सदा एक ही स्वर गुंजित होता रहता हैं --''जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी '' जननी मैं मुक्ति नहीं चाहता तुम्हारी सेवा ही मेरे जीवन का एक मात्र कार्य हैं मैं तुम्हे इन निर्धन,अज्ञानी ,अत्याचार,पीड़ितों के लिए सहानुभूति -यह प्राणपर्ण प्रयत्न उत्तराधिकार के रूप में दे रहा हूँ। '' इसी तरह एक बार अमेरिका में एक व्यक्ति ने स्वामीजी से पूछा --स्वामीजी वेश्या तो अपवित्रता का भंडार हैं उसके ससर्ग से समाज को बुराई के अतिरिक्त क्या मिल सकता हैं ?'' तो स्वामीजी का उत्तर था -- मार्ग में उन्हें देख नाक भौ न सिकोड़े। वस्तुतः वेश्याएं ढाल बनकर समाज की अनेक सतियों की रक्षा कर रही हैं, अतः वे घृणा की नहीं धन्यवाद की पात्र हैं.। इसी तरह स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को समय के साथ मानव मूल्यों के प्रति जाग्रत कर मानव सेवा को ही धर्म समझने के लिए प्रेरित किया समाज में धर्म संस्कृति को विश्व स्तर पर मानव से जोड़ा। मानव का मानव के लिए प्रेम और करुणा दया का भाव ही मनुष्यता की पहचान के रूप में स्थापित की । 4 जुलाई 1902 को केवल चालीसवें वर्ष में उनका तिरोभाव हो गया और स्वामी जी का अलौकिक शरीर परमात्मा मे विलीन हो गया।अपने व्यख्यान से स्वामी जी ने सिद्ध कर दिया कि हिन्दु धर्म भी श्रेष्ठ है, उसमें सभी धर्मों समाहित करने की क्षमता है।इस अदभुत सन्यासी ने सात समंदर पार भारतीय संस्कृति की ध्वजा को फैराया।भारतीय वेदांत और संस्कृति के उदात्त स्वरुप से विश्व को अवगत कराने में उन्होंने जो सफलता प्राप्त की.वह अपने आप में एक इतिहास का प्रेरक अध्याय हैं। .निः संदेह वह भारतीय मनस्वियों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ऐसी महान विभूती के जन्म से भारत माता भी गौरवान्वित हुईं।
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