कविता --कहाँ गए ....
शोभा जैन
कहाँ गई घरों से तुलसी की क्यारी
वो रस्मों रिवाज, वो तीज वो त्योहारी
दिन भर फटकती वो आंगन की बुहारी,
वो दुपट्टे से ढकी -टुपी कन्या कुंवारी
कहाँ खो गये वो संस्कार
बात करने से पहले करना विचार
कहाँ कहनी है कौन सी बात
किसे देनी है कैसी सौगात
कहाँ गये गुम वो रिश्तों के बुलावे
जो समय-असमय ब्याई समधी घर आवे
कहाँ गुम हुए घर से मुरब्बे और अचार
क्यों बन गए रिश्ते अब व्यापार
कितने बदल गये अपनों के व्यवहार
क्यों नहीं रहा अब लोकाचार
जीवन से गुम हुए मीठे दाल भात
भ्रम,संदेह दुविधाओं का बसा चक्रवात
क्यों रुखी हँसी, ओपचारिकता निभाना
क्यों कठिन है अब मन से मन का मेल खाना
रिश्तों में उलझन है, सुलझती नहीं डौर
मन न तो निश्छल है, मन में बसा है चोर
कैसे सिखाये अब रिश्तों को निभाना
जब जड़ ही भूली है पेड़ को पालना और बढ़ाना
अपनों का साथ खुशकिस्मती से हैं पाना
जीवन में लगा रहता है कठिन समय का आना और जाना।
शोभा जैन
कहाँ गई घरों से तुलसी की क्यारी
वो रस्मों रिवाज, वो तीज वो त्योहारी
दिन भर फटकती वो आंगन की बुहारी,
वो दुपट्टे से ढकी -टुपी कन्या कुंवारी
कहाँ खो गये वो संस्कार
बात करने से पहले करना विचार
कहाँ कहनी है कौन सी बात
किसे देनी है कैसी सौगात
कहाँ गये गुम वो रिश्तों के बुलावे
जो समय-असमय ब्याई समधी घर आवे
कहाँ गुम हुए घर से मुरब्बे और अचार
क्यों बन गए रिश्ते अब व्यापार
कितने बदल गये अपनों के व्यवहार
क्यों नहीं रहा अब लोकाचार
जीवन से गुम हुए मीठे दाल भात
भ्रम,संदेह दुविधाओं का बसा चक्रवात
क्यों रुखी हँसी, ओपचारिकता निभाना
क्यों कठिन है अब मन से मन का मेल खाना
रिश्तों में उलझन है, सुलझती नहीं डौर
मन न तो निश्छल है, मन में बसा है चोर
कैसे सिखाये अब रिश्तों को निभाना
जब जड़ ही भूली है पेड़ को पालना और बढ़ाना
अपनों का साथ खुशकिस्मती से हैं पाना
जीवन में लगा रहता है कठिन समय का आना और जाना।
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