लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

सोमवार, 8 अगस्त 2016

‘अमृता प्रीतम’ की आत्मकथा रसीदी टिकटका एक अंश, जो उनके शब्दों में उनकी समूची जीवनी का सार है।



पूरा नामअमृता प्रीतम
जन्म31 अगस्त1919
जन्म भूमिगुजराँवाला, पंजाब (पाकिस्तान)
मृत्यु31 अक्टूबर2005
मृत्यु स्थानदिल्ली
कर्म-क्षेत्रसाहित्य
मुख्य रचनाएँकाग़ज़ ते कैनवास (ज्ञानपीठ पुरस्कार), रसीदी टिकट, पिंजर आदि।
भाषापंजाबीहिन्दी
पुरस्कार-उपाधिपद्म विभूषण (2004), पद्मश्री(1969), साहित्य अकादमी पुरस्कार(1956), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982)
प्रसिद्धिकवयित्री, उपन्यासकार, लेखिका
नागरिकताभारतीय





शुरुआत अमृता इमरोज --

सामाजिक दायरों को तौड़ते हुए इस प्रेम कहानी को हर किसी के लिए स्वीकारना इतना आसान नहीं था कहा जाता है अमृता प्रीतम और इमरोज की पहली मुलाकात १९५७ में हुई इसके बाद दोनों की मुलाकातें प्यार में बदल गई। अमृता की शादी १९३५ में प्रीतम सिंह से हो चुकी थी लेकिन १९६० में दोनों ने अलग रहने का फैसला कर लिया था। अमृता की कविताओं को पढकर लगता है उन्हें सच्चे प्यार की तलाश थी। उनकी ये तलाश इमरोज कल करीब आकर पूरी हुई। दोनों का धर्म अलग था लेकिन दोनों ने कभी इस बात की परवाह नहीं की। दोनों ने कभी शादी या लिखकर कोई करार नहीं किया इसके बावजूद चालीस वर्ष [चार दशक ] तक तक एक दुसरे का साथ निभाते रहे। 'अमृता इमरोज ;ए लव स्टोरी' किताब के मुताबित एक रोज अमृता ने मुस्कुराते हुए इमरोज से कहा --'हम एक ही छत के नीचे एक साथ रहते है क्या रिश्ता है हमारा ? इस पर इमरोज ने एक तस्वीर बनाते हुए कहा --
'तु मेरी समाज मैं तेरा समाज बस इससे ज्यादा और समाज नहीं।' दोनों अपनी कभी कभार की अनकही नाराजगी को कविता कहानियों या चित्रकारी में बयां करते। २००५ में अमृता और इमरोज साहब की ४० साल की अनोखी दास्तान हमेशा के लिए खामोश हो गई। उस समय अमृता प्रीतम की आयु 86 और इमरोज की ७९ साल थी।
  परंपरा ये है कि आदमी-औरत एक ही कमरे में रहते हैं. हम पहले दिन से ही एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहते रहे. वो रात के समय लिखती थीं. जब ना कोई आवाज़ होती हो ना टेलीफ़ोन की घंटी बजती हो और ना कोई आता-जाता हो.
उस समय मैं सो रहा होता था. उनको लिखते समय चाय चाहिए होती थी. वो ख़ुद तो उठकर चाय बनाने जा नहीं सकती थीं. इसलिए मैंने रात के एक बजे उठना शुरू कर दिया. मैं चाय बनाता और चुपचाप उनके आगे रख आता. वो लिखने में इतनी खोई हुई होती थीं कि मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थीं. ये सिलसिला चालीस-पचास सालों तक चला.अमृता और इमरोज़ की लव-रिलेशनशिप तो रही है लेकिन इसमें आज़ादी बहुत है. बहुत कम लोगों को पता है कि वो अलग-अलग कमरों में रहते थे एक ही घर में और जब इसका ज़िक्र होता था तो इमरोज़ कहा करते थे कि एक-दूसरे की ख़ुशबू तो आती है. ऐसा जोड़ा मैंने बहुत कम देखा है कि एक दूसरे पर इतनी निर्भरता है लेकिन कोई दावा नहीं है.

     उमा त्रिलोक बताती हैं, ''वो ये कहती थी कि साहिर एक तरह से आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत! साहिर और अमृता का प्लैटोनिक इश्क था. इमरोज़ ने मुझे एक बात बताई कि जब उनके पास कार नहीं थी वो अक्सर उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे."
"अमृता की उंगलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं... चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो. उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया. इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं! लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता है. वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं. मैं भी उन्हें चाहता हूँ.''
    अमृता जहाँ भी जाती थीं इमरोज़ को साथ लेकर जाती थीं. यहाँ तक कि जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया तो इमरोज़ हर दिन उनके साथ संसद भवन जाते थे और बाहर बैठकर उन का इंतज़ार किया करते थे.
वो उनके साथी भी थे और उनके ड्राइवर भी. इमरोज़ कहते हैं, ''अमृता काफ़ी मशहूर थीं. उनको कई दूतावासों की ओर से अक्सर खाने पर बुलाया जाता था. मैं उनको लेकर जाता था और उन्हें वापस भी लाता था. मेरा नाम अगर कार्ड पर नहीं होता था तो मैं अंदर नहीं जाता था. मेरा डिनर मेरे साथ जाता था और मैं कार में बैठकर संगीत सुनते हुए अमृता का इंतज़ार करता था."
"धीरे-धीरे उनको पता चला गया कि इनका ब्वॉय-फ़्रेंड भी है. तब उन्होंने मेरा नाम भी कार्ड पर लिखना शुरू कर दिया. जब वो संसद भवन से बाहर निकलती थीं तो उद्घोषक को कहती थीं कि इमरोज़ को बुला दो. वो समझता था कि मैं उनका ड्राइवर हूँ. वो चिल्लाकर कहता था- इमरोज़ ड्राइवर और मैं गाड़ी लेकर पहुंच जाता था.''
 प्रेम त्रिकोण --

अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी. अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में वो लिखती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे. साहिर के जाने के बाद वो उनकी सिगरेट की बटों को दोबारा पिया करती थीं.
इस तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लगी. अमृता साहिर को ताउम्र नहीं भुला पाईं और इमरोज़ को भी इसका अंदाज़ा था. अमृता और इमरोज़ की दोस्त उमा त्रिलोक कहती हैं कि ये कोई अजीब बात नहीं थी. दोनों इस बारे में काफ़ी सहज थे.
उमा त्रिलोक बताती हैं, ''वो ये कहती थी कि साहिर एक तरह से आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत! साहिर और अमृता का प्लैटोनिक इश्क था. इमरोज़ ने मुझे एक बात बताई कि जब उनके पास कार नहीं थी वो अक्सर उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे."
साहिर अमृता से सीधे सवाल भी करते  -- इमरोज की तुम्हारी जिन्दगी में क्या जगह है ? और अमृता कहती --तुम्हारा प्यार मेरे लिए किसी पहाड़ चोटी है पर चोटी पर ज्यादा डर खड़े नहीं सकते। बैठने को समतल जमीन भी चाहिए। इमरोज मेरे लिए समतल जमीन से है। अमृता ये भी कहती तुम मेरे लिए छायादार घने वृक्ष के समान हो,जिसके नीचे बैठकर चैन सुकून पाया जा सकता है किन्तु रात नहीं गुजारी जा सकती। जब साहिर ये पूछते है --    इमरोज को पता है मैं यहाँ हूँ  ? जवाब में अमृता कहती ---'जब बरसों तक उसकी पीठ पर मैं तुम्हारा नाम लिखती रहती थी यहाँ की ख़ामोशी से वो समझ ही गया होगा कि मैं तुम्हारे साथ हूँ।
   इसी तरह के सवाल और जवाबों के साथ थोड़ी देर दोनों चुप बैठे रहते और उनके बीच की बहती प्रेम धारा और बोलती ख़ामोशी को दोनों शिद्दत से महसूस करते। दोनों ने एकदूसरे के प्रेम में उत्कृष्ट रचनाएँ रच डाली और हमारा साहित्य समृद्ध हुआ।
रसीदी टिकिट से ............
            मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उनके वर्जित मेल से यह सब रचनाएं पैदा हुईं। जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की किस्मत इसकी किस्मत है और इसे सारी उम्र अपने साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगतने हैं।

मन का सपना क्या था, इसकी व्याख्या में जाने की आवश्यकता नहीं है। यह कम्बख्त बहुत हसीन होगा, निजी जिन्दगी से लेकर कुल आलम की बेहतरी तक की बातें करता होगा, तब भी हकीकत अपनी औकात को भूलकर उससे इश्क कर बैठी और उससे जो रचनाएं पैदा हुईं, हमेशा कुछ कागजों में लावारिस भटकती रहीं…”
 वे जानती थीं कि उनके मुक्त व स्वतन्त्र व्यक्तित्व को पुरातनपंथी समाज पचा नहीं सकेगा, लेकिन फिर भी उन्होने स्वयं को बांधना स्वीकार नहीं किया। एक पूरा विद्रोही जीवन जिया और स्याही में कलम डुबोकर बदलाव की इबारत रची। शताब्दियों तक उनका जीवन दूसरों, विशेष कर स्त्रियों को आजादी की उड़ान भरने की प्रेरणा देता रहेगा।

हम प्रति क्षण दो समानान्तर जीवन जी रहे होते हैं एक, जो हमारे बाहर दुनियावी कोलाहल बनकर तैर रहा है, दूसरा जो हमारे भीतर कुलबुला रहा होता है। जब इन दोनों जीवनों के मध्य असमंजस की लहरें उफान लेने लगती हैं, तो सहन करने की एक निश्चित सीमा के उपरान्त विद्रोह का अंकुर फूटता है। इस अंकुर से फूटता है जीवन का वास्तविक अर्थ और स्वयं के अस्तित्व का कारण। अमृता प्रीतम भी जीवन के झंझावतों से जूझती रहीं। बचपन में सगाई और किशोरावस्था में विवाह के उपरान्त दो बच्चों की मां बनीं, लेकिन पारिवारिक बंधन भी उन्हें अधिक समय तक रोक नहीं सके। उन्होने निजी समस्याओं को सिरे पर रख, कालजयी साहित्य रचा। प्रेम भी किया और साहसी हो स्वीकार भी किया।

अमृता के व्यक्तित्व में जो साहस था, सामाजिक वर्जनाओं के विरुद्ध जो विद्रोही भावना थी, वह बचपन के दिनों से ही उपजने लगी थीं। जैसा वे स्वयं लिखती हैं – “सबसे पहला विद्रोह मैने नानी के राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बर्तनों से हटाए हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ तब परछत्ती से उतारे जाते थे, जब पिताजी के मुस्लिम दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज धोकर फिर वहीं रख दिए जाते थे।

उम्र के जिस पड़ाव पर दूसरी लड़कियां गुड़ियाएं सजाने अथवा घर सम्भालने के गुर सीख रही होती थीं, अमृता के मन में कई प्रश्न उबलने लगे थे। जातियता और धर्म के नाम पर बने सामाजिक खांचे उन्हें उद्वेलित करने लगे थे। ग्यारह बरस की उम्र में अमृता ने ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर दिया। उन पर धार्मिक पिता का दबाव था, समाज की अपेक्षाएं थीं, लेकिन वे इन सबसे इतर हर रात, सामाजिक किलों से आजादी के सपने देखती। ऐसे ही एक सपने के बारे में वे लिखती हैं

एक सपना था कि एक बहुत बड़ा किला है और लोग मुझे उसमें बंद कर देते हैं। बाहर पहरा होता है। भीतर कोई दरवाजा नहीं मिलता। मैं किले की दीवारो को उंगलियों से टटोलती रहती हूं, पर पत्थर की दीवारों का कोई हिस्सा भी नहीं पिघलता। सारा किला टटोल टटोल कर जब कोई दरवाजा नहीं मिलता, तो मैं सारा जोर लगाकर उड़ने की कोशिश करने लगती हूं।
         मेरी बांहों का इतना जोर लगता है कि मेरी सांस चढ़ जाती है। फिर मैं देखती हूं कि मेरे पैर धरती से ऊपर उठने लगते हैं। मैं ऊपर होती जाती हूं, और ऊपर, और फिर किले की दीवार से भी ऊपर हो जाती हूं। सामने आसमान आ जाता है। ऊपर से मैं नीचे निगाह डालती हूं। किले का पहरा देने वाले घबराए हुए हैं, गुस्से में बांहें फैलाए हुए, पर मुझ तक किसी का हाथ नहीं पहुंचता।

अमृता ने धार्मिक और जातीय बंधनों के विरोध में कई रचनाएं गढ़ीं, जिसके कारण तत्कालीन सिख समाज उनकी मुखालफत करने लगा। देश के विभाजन के उपरान्त लिखी गई एक कविता ने अमृता को प्रशंसा भी दिलाई, साथ ही कुछ समुदायों ने उन्हें प्रश्नों के घेरे में भी खड़ा कर दिया।
आज वारिस शाह से कहती हूं, अपनी कब्र में से बोलो,और इश्क की किताब का कोई नया पृष्ठ खोलो,ऐ दर्दमंदों के दोस्त! अपने पंजाब को देखो,वन लाशों से अटे पड़े हैं, चिनाव लहू से भर गया है।
अमृता ने कई सामाजिक मंचों और सम्मेलनों में खुलकर एक धर्म मुक्त समाज बनाने जैसी बातें कहीं। तथाकथित धार्मिक मठाधीशों की ओर से उनका विरोध होना स्वाभाविक था। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि भीरू समाज को ऐसे साहसी व विद्रोही स्वर कभी रास नहीं आए। उन्हें चुप करने की कवायदें जोर मारती रहीं। लेकिन क्या उन्हें चुप किया जा सकता है? नहीं, कभी नहीं।
                           अमृता ने विश्व के कई देशों और सभ्यताओं के साहित्यकारों के बीच, अपनी विद्रोही रचनाएं पढ़ी और प्रशंसा बटोरी। उन्होने दूसरे विद्रोही कवियों लेखकों को भी भरपूर सुना और समझा। विश्व का कोई भी कोना ऐसा नहीं है, जहां कोई सामाजिक भेद नहीं हो। हर हिस्से की अपनी समस्या है और ऐसे में ककनूसीनस्ल के साहित्यकार कागजों पर विद्रोह रचते रहे हैं। कलम से युद्ध लड़ते रहे। अमृता लिखती हैं – “मनुष्यों की जिस नस्ल ने हर विनाश में से गुजर सकने की अपनी शक्ति को पहचाना,अपना नाम जल मरने वाले और अपनी राख में से फिर पैदा हो उठने वाले ककनूस से जोड़ दिया।
प्रेम प्राथमिक क्रांति है। स्वतन्त्र व्यक्ति ही सच्चा प्रेम कर सकता है। साहिर से उनका प्रेम खामोशियों के इर्द गिर्द पनपता रहा। जुबां ने मशक्कत नहीं की, लेकिन मन सब कुछ जानता था। साहिर के बारे में, अमृता कुछ यूं लिखती हैं
                   “वह चुपचाप सिर्फ सिगरेट पीता रहता था, कोई आधी सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नई सिगरेट सुलगा लेता था और उसके जाने के बाद केवल सिगरेटों के बड़े बड़े टुकड़े कमरे में रह जाते थे।

कभीएक बार उसके हाथ को छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी, जो तय नहीं होती थी। उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेटों के टुकड़ों को सम्भाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक एक टुकड़े को अकेले बैठकर जलाती थी। और जब अंगुलियों के बीच पकड़ती थी, तो लगता था, जैसे उसका हाथ छू रही हूं।
                     जिससे एक मर्तबा प्रेम हो जाए, फिर जीवन भर नहीं छूटता। अतीत की स्मृतियों से वह कभी रिक्त नहीं होता। प्रेम की मृत्यु हमारी आंशिक मृत्यु है। हर बार प्रेम के मरने पर हमारा एक हिस्सा भी हमेशा के लिए मर जाता है। जब साहिर की मृत्यु हुई, तो अमृता ने लिखा – “सोच रही हूं, हवा कोई भी फासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फासला तय किया करती थी। अब इस दुनिया और उस दुनिया का फासला भी जरूर तय कर लेगी…”

अमृता प्रेम में रहीं और मुक्त भी रहीं। सच्चा प्रेम कभी बांधता नहीं है। वे प्रेम में और स्वतन्त्र होती गईं। जब उन्हें इमरोज से इश्क हुआ, तो कई बरस उनके साथ रही। जीवन की धूप छांव में दोनों एक दूसरे का हाथ थामे रहे। एक दूसरे पर कुछ थोपे बिना, सदा साथ बने रहे।

                          रसीदी टिकट का हर पन्ना बयां करता है कि कैसे अमृता ने एक स्त्री होते हुए, बन्धनों के बीच, बन्धनों का सशक्त विरोध किया। अन्याय और असमानताओं के खिलाफ लिखती बोलती रहीं।एक स्त्री, एक मां, एक प्रेमिका और एक लेखिका होने के बीच उलझतीं रही और निकलने को राह भी बनाती रहीं। उनके लिए, जीवन यथार्थ से यथार्थ तक पहुंचने का सफर रहा। यथार्थ को पाने का हासिल, आखिर कितनों का मकसद होता है और कितने उसे छू भर भी पाते हैं? अमृता जैसी साहसी लेखिका कागज पर काले अक्षरों से सुनहरा इतिहास लिख जाती हैं और हम पन्ने पलट पलट कर उनकी छाया का महज अनुमान लगा सकते हैं। एक कभी न मिटने वाली छाया। तमाम उम्र वे कंकड़ों पर चलीं, लेकिन लौटी नहीं। अपने सपनों को जिया। पूरी बांहों का जोर लगा कर, सचमुच किले की नहीं पिघलने वाली दीवारों से बहुत ऊपर उठ गईं।  धरती से ऊपर उठ, आसमां में उड़ान भरने लगी। किले पर पहरा देने वाले उन्हें यूं उड़ता देख घबराए, गुस्से में बांहें फैलाए रहे, लेकिन फिर कोई हाथ उन तक पहुंच नहीं सकता था।
संक्षेप ----
जीवन परिचय के तौर पर ... [निम्नलिखित जानकारी भारत खोज से अवतरित है - [http://bharatdiscovery.org/india]
          अमृता प्रीतम (अंग्रेज़ी: Amrita Pritam, जन्म: 31 अगस्त, 1919 पंजाब (पाकिस्तान) मृत्यु: 31 अक्टूबर, 2005 दिल्ली) प्रसिद्ध कवयित्री, उपन्यासकार और निबंधकार थीं जिन्हें 20वीं सदी की पंजाबी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री माना जाता है। इनकी लोकप्रियता सीमा पार पाकिस्तान में भी बराबर है। इन्होंने पंजाबी जगत में छ: दशकों तक राज किया। अमृता प्रीतम ने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्म विभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।
   सम्मान और पुरस्कार

अमृता प्रीतम
अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया, जिनमें प्रमुख हैं 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, 1988 में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार; (अन्तर्राष्ट्रीय) और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार। वे पहली महिला थीं जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थीं जिन्हें 1969 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया।[1]

साहित्य अकादमी पुरस्कार (1956)
पद्मश्री (1969)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (दिल्ली युनिवर्सिटी- 1973)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (जबलपुर युनिवर्सिटी- 1973)
बल्गारिया वैरोव पुरस्कार (बुल्गारिया – 1988)
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (विश्व भारती शांतिनिकेतन- 1987)
फ़्रांस सरकार द्वारा सम्मान (1987)
पद्म विभूषण (2004)


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