कूड़े जैसे ढेर.....
भोजन की तलाश में गाँव से शहर आने वाले मजबूर लोग भीख में रोटी चावल की उम्मीद नहीं करते थे, वे भीख में बस चावलकी माड़ी मांगते थे। प्रेमेन्द्र लिखते हैं,
'शहर की सड़कों पर देखें हैं,
कुछ अजीब जीव/
बिल्कुल इंसानों जैसे/या,
कि इंसानौं जैसे नहीं/
मानों उनके व्यंग्य चित्र, विद्रूप विकृत!/
फिर भी वे हिलते डुलते हैं बतियाते हैं, और
सड़क किनारे कूड़े जैसे ढेर बनाते हैं/
जूठन के कूड़ेदानों पर, बैठे हांफते/और माड़ी मांगते।'
'शहर की सड़कों पर देखें हैं,
कुछ अजीब जीव/
बिल्कुल इंसानों जैसे/या,
कि इंसानौं जैसे नहीं/
मानों उनके व्यंग्य चित्र, विद्रूप विकृत!/
फिर भी वे हिलते डुलते हैं बतियाते हैं, और
सड़क किनारे कूड़े जैसे ढेर बनाते हैं/
जूठन के कूड़ेदानों पर, बैठे हांफते/और माड़ी मांगते।'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें