लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

सोमवार, 14 नवंबर 2016

                                                                       अपनी बात
                           ....................वृद्धाश्रम और युवा पीढ़ी एक पुनरावलोकन..........
                                                 ....................शोभा जैन...............................



कभी कभी कुछ उम्मीदों को छोड़ देना ही अंतिम विकल्प होता है विशेषतः तब जब उम्मीद अपने से उम्र और अनुभवों में किसी बड़े से हो,और तब भी जब उम्मीद अपने जीवन के लिए नहीं अपितु उनके जीवन को आसान बनाने के लिए कोई बेहतर सहयोग भरे परामर्श से जुडी हो |ऐसी उम्मीद को कभी -कभी अपने ह्रदय  को कठोर कर छोड़ देना ही अंतिम विकल्प होता है इसलिए नहीं की आप अब परवाह नहीं करते बल्कि इसलिए की वे बड़े खुद को लेकर चिंतनशील नहीं, बेपरवाह है वो शायद आपसे सहयोग तो लेना चाहते है किन्तु उनके परामर्शानुसार।  जो कहीं न कहीं पीढियों के मध्य नकारात्मकता के साथ गहरे  फांसले पैदा करने लगता है जिससे  समाज को ये सन्देश जाता है की बच्चे  सुनते नहीं या साथ नहीं देते| किन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है |दरअसल बच्चे माता -पिता की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर रहते है किन्तु बड़ों को भी समयानुसार खुद को अपडेट कर बच्चों के साथ सामंजस्य स्थापित कर उन्हें उनके [माता -पिता ]जीवन के  निर्णय लेने की न सिर्फ स्वतंत्रता देनी चाहिए बल्कि उनके निर्णयों का सम्मान भी करना चाहिए |कहने का अर्थ बच्चों को सिर्फ अपनी जिम्मेदारी नहीं थोपे  बल्कि सहर्ष उन्हें निर्णय लेने के अधिकारों का भी हस्तांतरण करें तब शायद हमारे देश में वृद्धाश्रम की जरुरत ही महसूस न हो |दरअसल ऐसे मे दो ही स्थितियाँ हो सकती है या तो बच्चे भी अपने जीवन के संघर्ष के दौर से गुजर रहे होते है छोटी मोटी नोकरी से अपना घर खर्च चला रहे होते है और उन्हें इस संघर्ष  के साथ माता -पिता की जिम्मेदारी भी उठाना  है।
  या फिर  कभी -कभी बच्चे उस उम्र में अपने पिता से भी आगे निकल जाते है जिस उम्र में पिता शायद उतने सक्षम नहीं थे जितनी उनकी संतान।  निः संदेह इसका श्रेय उस  सन्तान के परिश्रम शिद्दत और जस्बे के साथ  माता -पिता को भी उतना ही जाता है। अब इन दोनों ही स्थितियों में माता -पिता को बच्चो की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन न हो इस बात को  ध्यान रखते हुए उनके साथ रहने की इच्छा रखनी चाहिए न की अपने हिसाब से उनके साथ  रहने की ख्वाहिश।  समय के साथ घर का मुखिया बदलता है किन्तु व्यक्ति के दर्जे  के साथ समय भी बदलता हैं माता -पिता इस भावनात्मक विचार को थोड़ा गहराई से लें और समझे तो  कोई भी पुत्र अपने माता -पिता को भला क्यों अपने साथ नहीं रखना चाहेगा। अपवादों की बात छोड़ दें,  फिर भी मेरा अनुभव यही कहता है वृद्धाश्रम में बुजुर्ग माता -पिता बच्चों के दुर्व्यवहार के चलते कम किन्तु अपनी खुद की कुछ आदतों और परिवर्तन को सहर्ष न स्वीकारने के चलते आते है। दुनियाँ का शायद ही ऐसा कोई युवा दंपत्ति होगा जो ये नहीं चाहता की वो अपने माता -पिता को अपनी उपलब्धियों का स्वाद चखाए और अपने बच्चों को दादा दादी की छत्र छाया में रखे जिससे वो हमारी परम्पराओं और संस्कारों को उसी रूप में समझ सके जिस रूप में वो है..  और ये कार्य घर के बड़े बुजुर्ग से बेहतर कोई नहीं कर सकता। भले ही  आर्थिक रूप से सक्षम हो या मध्यम वर्गीय संघर्षरत दंपत्ति, दोनों की ही सोच में ये बात किस स्ट्रीम लेवल  में जाकर  उपजती होगी की माता -पिता को साथ रखने से घर के खर्च बड़ जायेंगे अव्यवस्था बन जाएगी  दरअसल ये  सोच कमजोर आर्थिक स्थिति से कहीं अधिक माता -पिता के जिद्दी स्वभाव के चलते अधिक उपजती है किसी भी  संतान के मन में...  किन्तु दोष अक्सर युवा पीढ़ी को ही दिया जाता है की आज की युवा पीढ़ी माता -पिता को घर से वृद्धाश्रम भेज रही है किन्तु इसके मूल बिंदु और जड़ों पर कार्य करें तो कारण कुछ और भी हो सकते है अपवादों को छोड़ दें तो ।ये आलेख मैंने कुछ प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर लिखा है दुःख होता है जब माता -पिता बच्चों के साथ रहने की इच्छा से ज्यादा अपने मुताबित अपना जीवन बसर करने का दबाव उन पर बनाते है उनके निर्णयों में बार -बार हस्तक्षेप कर उनके मनोबल पर अंकुश लगाते है।या तो एक समझदार माता -पिता अपने बुढ़ापे की व्यवस्था इतनी मजबूत कर ले की उन्हें कभी भी अपनी संतान पर विशेषतः आर्थिक रूप से आश्रित  रहना ही ना पड़े फिर संतान से रिश्ते ता उम्र मधुर बने रहेंगे क्योकि अक्सर पैसा ही रिश्तों में फासले पैदा करता है।  या फिर अगर संतान के साथ रहने का सुख भोगना है तो समय के बदलाव के साथ अपनी आदतों में भी थोडा सा बदलाव बनता है और युवा पीढ़ी भी अपने माता -पिता के समर्पण का सम्मान करें क्योकि हो सकता है आपका पेट भरने के लिए माँ कई रातें  भूखी रही हो ये भी हो सकता है माता -पिता घर में मिठाई केवल इसलिए लाते थे की उनका बच्चा मिठाई क्या होती है ये समझ सके जबकि उन्होंने तो कभी उसका स्वाद चखा ही नहीं मैं ऐसे कई बुजुर्ग माता -पिता से परिचित हूँ जिन्होंने खुद कभी काजू बादाम नहीं चखा लेकिन अपने बच्चों को हर रोज बादाम भिंगोकर दी ताकि उनके बच्चे की आँखे लम्बे समय तक तंदरुस्त रह सके भले ही  उनकी आंखे जवाब दे चुकी हो... ये भी हो सकता है असंख्य पिता ने कभी दफ्तर से छुट्टी ही न ली हो केवल इसलिए की उनकी एक दिन की तनख्वा नहीं कट जाये... माँ ने कई रातें पिता की नाईट ड्यूटी और दिन सिलाई मशीन पर गुजारा हो पिता ने अपना सारा जीवन साईकल पर निकाला केवल इसलिए की उनका बेटा अच्छे कालेज में दाखिला ले सके उसकी ट्यूशन की फीस जुटाई जा सके वो एम.बी.ए.या इंजीनियरिंग कर सके ये सब शायद सिर्फ इसलिए की उनकी संतान वो सब कर पाये जो वो नहीं कर सके कम से कम एक मजदूर या श्रमिक बनने से उपर के सपने वो अपने बेटे के लिए देखता है और उन सपनों में माता -पिता स्वयं को जीते है ।कभी -कभी उनके हालात बयां करने लायक स्थिति में भी नहीं होते कभी माँ की हथेलियों की किसी ने देखा है चर्म से अधिक धारियां दिखाई देंगी जो शायद ये महसूस करवा दे की माँ ने तो कभी साबुन सोडा तेल इस्तेमाल ही नहीं किया..लेकिन मुझे दिया एक लम्बा चौड़ा बाथरूम नहाने के लिए जिसमें वो सारी  सुविधाएँ जिसका उन्हें शायाद ठीक तरह से इस्तेमाल करना ही नहीं आता जिसके बिना मेरा आज काम ही नहीं चलता ...
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