हम प्रति क्षण दो समानान्तर जीवन जी रहे होते हैं – एक, जो हमारे बाहर दुनियावी कोलाहल बनकर तैर रहा है, दूसरा – जो हमारे भीतर कुलबुला रहा होता है। जब इन दोनों जीवनों के मध्य असमंजस की लहरें उफान लेने लगती हैं, तो सहन करने की एक निश्चित सीमा के उपरान्त विद्रोह का अंकुर फूटता है। इस अंकुर से फूटता है जीवन का वास्तविक अर्थ और स्वयं के अस्तित्व का कारण।---शोभा जैन
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