लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

गुरुवार, 13 सितंबर 2018


अखंड भारत की परिकल्पना को साकार करती एक भाषा के रूप में हिंदी की भूमिका आम आदमी के सपने और हकीकत के बीच संतुलन बनाती हुई भाषा की है |थोडा संघर्ष अवश्य कर रही है | राज शक्ति और लोक शक्ति का सामजस्य इसकी सुद्रणता निश्चित कर सकता है | हमें नहीं भूलना चाहिए अंग्रेजी केवल एक भाषा का ज्ञान है इससे अधिक उसका अस्तित्व हमारे लिए नहीं | अंग्रेजी की मानसिकता ने हिंदी के लिए थोड़ी चुनोतियाँ बढ़ा दी है ऐसा हमें लगता है जबकि हिंदी की सबसे बड़ी ताकत लोकशक्ति ही  है वह अपने स्वभाव और बुनियाद को कभी छोड़ नहीं सकती |आज हिंदी कई दृष्टियों से अन्तराष्ट्रीय स्तर पर मौजूद है |भारत के बाहर भी व्यापक भू –भाग में फैली है फिर चाहे वो सूरीनाम हो मारीशस ही क्यों न हो इसकी वजह एक मात्र है की अनुभूतियों और संवेदनाओं की अनुगूँज हिंदी से ही संस्पर्श करती है प्रवासी भारतीय लेखिका पुष्पिता अवस्थी का लेखन(विशेषकर-संवेदना की आद्रता ) उनके विश्व बंधुत्व से प्रेरित ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के भाव को सम्प्रेषित करते है  हिंदी की सर्वव्यापकता में इस तरह लेखकों का जिक्र अवश्य होना चाहिए क्योकि वो बाहर रहकर स्वतंत्र भाव से  हिंदी के लिए समर्पित है हम भीतर रहकर थोड़ा संकुचित है जिसका एक कारण निः संदेह शिक्षा के माध्यम में हिंदी के प्रति उदासीनता भी है |बकौल  गिरिश्वर मिश्र जी—‘’कुछ ओपनिवेशिक परम्परा ने हिंदी को अयोग्य ठहरा उसके उपयोग पर प्रतिबन्ध कर दिया जिसके उदाहरण के रूप में उन्होंने गुवाहाटी विश्वविद्यालय के शोध प्रबंध को अंग्रेजी में ही स्वीकार करने की बात स्पष्ट की है |’’ भाषा के युग पुरुष के रूप में जाने जाते डॉ.रामविलास शर्मा ने भाषा पर बहुत अधिक काम किया है उन्होंने अपनी पुस्तक ‘भारत की भाषा समस्या’ की भूमिका में इस विषय पर धारदार टिप्पणियां की है |भाषा के सन्दर्भ में वे कहते है ----हिंदी भाषी आगरा,अवध,बिहार,मध्यप्रदेश,राजपूताना,पंजाब और देशी रियासतों में हजारों की संख्या में उच्च शिक्षित,वकील,बैरिस्टर,डॉक्टर और प्रोफेसर आदि हैं पर उनमें से कितने ऐसे है जो मात्रभाषा की सेवा के लिए उसके प्रचार प्रसार के लिए सेवा कर रहें है ? विचारणीय है की हाई कौर्ट के सभी नोटिस सूचना-पत्र अंग्रेजी में ही प्राप्त होते है |ऐसा न करने का कारण केवल यही है की उन्हें हिंदी लिखना नहीं आता या वे हिंदी का उच्च शिक्षा पुस्तकों के भीतर प्राप्त नहीं पाते | जिस भाषा को लोग अपने पैदा होने से लेकर अपने जीवन भर बोलते है लेकिन आधिकारिक रूप से दूसरी  भाषा पर निर्भर रहना पड़े तो कही न कही उस देश के विकास में उस देश की अपनाई गयी भाषा ही सबसे बड़ी बाधक बनती है| हिंदी भारत की राजभाषा,संपर्क भाषा,राष्ट्र भाषा से आगे बढ़ते हुए विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है | हिंदी की वर्तमान स्थिति में कहीं न कहीं वैश्वीकरण का भी योगदान है | हालाँकि विश्लेषक वैश्वीकरण को मूलतः एक आर्थिक संकल्पना मानते है | किन्तु इससे जुड़े सभी पहलुओं (व्यापार, निवेश, राजनितिक और सांस्कृतिक व्यवस्था )में भाषा की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है |अंग्रेजी,भाषा जिसे समझने वाले कुल दस प्रतिशत भारतीय है तो क्या हम इस बात पर विचार नहीं कर सकते कि इसके बिना काम कैसे चलाया जाय |किसी भी भाषा का ज्ञान होना बुरा नहीं होता पर हमें पीढ़ियों को अपनी विरासत सौपनी है |हिंदी हमारी अपनी है |समर्थ भारत के लिए आर्थिक विकास के साथ  भाषा नियोजन भी उतना ही जरुरी है |बकौल वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश चौकसे -- इसे केवल ‘हिंदी दिवस’ की रस्मअदायगी के रूप में न लें| भाषा परिवार के राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को ‘महाभाषा’ के रूप में अपनायें |||हिंदी जयतु ||-शोभा जैन

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