लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

पुरुस्कारों की वापसी।।।। 
मित्रों पिछले कुछ समय से अख़बारों में पुरस्कारों को लौटाने के चर्चे खुमार पर हैं इसी पर मैं आज अपने विचार आपके समक्ष इस आलेख के माध्यम से रख रही हूँ मुझे व्यक्तितगत रूप से इसका बेहद दुःख हैं की साहित्य के संसार में उसकी विशिष्टता पाने वाले ही उसे लौटाकर उसका निरादर कर रहे हैं मैं इस विषय के कारणों पर कतई नहीं जाना चाहती पर पिछले समय में इतने वरिष्ठ साहित्यकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कारों से नवाजा गया जिनमे से आलोचक अशोक बाजपाई जी भी थे जिन्होंने नए रचनाकारों और उनकी रचनाओं पर कटाक्ष भी किया था उन्होंने भी इस सम्मान को लौटाया ये जानकर दुःख हुआ हम उनसे सीखते हैं समझते हैं पर फिर भी निराश हैं उनके इस निर्णय से.. उनके इस कटाक्ष को अपने पिता तुल्य होने और इस क्षेत्र की वरिष्ठ गरिमा होने के नाते हम उनकी बातों का विद्रोह नहीं कर रहे पर विरोधाभास अवश्य महसूस हो रहा हैं पुरस्कार लौटने के लिए नहीं दिए जाते ये कही न कही उनका तिरस्कार हैं पाने वाले के प्रति पाठको की आस्था पर प्रश्न चिन्ह भी. क्या हम इसलिए उन्हें अपनी प्रेरणा मानते हैं ये अभी निरतंर हो रहा हैं दरअसल सेकुलर साहित्यकारों द्वारा साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने की घटना ने कार्लमार्क्स के सिद्धांत को पुनरुज्जीवित कर दिया। मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक वस्तु या व्यवस्था के नष्ट होने के गुण उसमें ही स्थित होते हैं. पहले वाद होता है , उससे विवाद निकलता है फिर वाद-विवाद से संवाद चलता है और उससे एक नया वाद बनता है.ये तथाकथित साहित्यकार अपने वाद का स्वयं विवाद बन गए. अपने द्वारा बनाए गए माटी के घरौंदे वे स्वयं ही गिराने लगे क्योंकि वे जर्जर हो गए हैं। किसी भी बात का गुस्सा साहित्य अकादमी पर निकालना तथा कथित महान साहित्यकारों की सोच विचार और भावभूमि को इंगित करता हैं जबकि साहित्य समाज और देश को कितना प्रभावित करता हैं इस बात से वे भली भाति पररिचित हैं. ये सृजन, संवेदना, अनुभूति, अभिव्यक्ति का तिरस्कार हैं जिनसे मिलकर साहित्य बनता हैं मेरा अनुरोध हैं सम्माननीय समस्त वरिष्ठ साहित्यकारों से की कृपया साहित्य की गरिमा और पाठको के उत्साह के लिए ही सही इसें किसी भी रूप में व्यक्तिगत न ले न ही इसे राजनीति से जोड़े साहित्य का अपना एक अलग संसार हैं जो बेहद मार्मिक पारदर्शी और संवेदनशील हैं उसमे सृजन होता रहे न की वो पुरस्कारों को लौटाने से एक निर्जर भूमि बन जाय ,साहित्य अकादमी पुरस्कार साहित्य की गरिमा हैं टैगोर ने भी भी लौटाया था पर 'नाइटहुड' साहित्य का नोबल नहीं। यह सम्मान लेखकों की उपलब्धि पर हमारे समाज की भावांजलि हैं कही ऐसा न हो जाय की मूल्यों के द्रण रहने के संकल्प और असहिष्णुता के वातावरण में एक समय ऐसा न आ जाय की लेखक पुरस्कार वापस पाने के लिए अनुरोध करे। निः संदेह विरोध करने वाले लेखकों का विरोध वाजिब भी हो सकता हैं आखिर वे समाज के मार्गदर्शक हैं गलत अभियक्ति नहीं देंगे परन्तु लेखन में रचनात्मकता को बढ़ावा देने और उपलब्धियों की गरिमा को सजीव रखने के लिए बौद्धिक स्वतंत्रता का वातावरण बहुत जरुरी हैं मेरे विचार में किसी भी तरह के विरोधाभास को अभिव्यक्त करने के लिए पुरस्कार लौटना अंतिम विकल्प नहीं हो सकता। अगर मेरे इस आर्टिकल से किसी की व्यक्तिगत रूप से भावनायें आहत हुई हैं तो मैं तहे दिल से क्षमा प्रार्थी हूँ मेरा उद्देश्य निश्चिततौर पर स्पष्ट हैं इसलिए इसे कतई व्यक्तिगत न लें 

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