किसानों की तरह छात्रों की आत्महत्या में भी दिन ब दिन इजाफ़ा हो रहा हैं हर दिन दो या तीन खबरे सुबह -सुबह अखबार में पढ़ने को मिलती हैं लकिन पढ़ने के बाद पूरा दिन उसी सोच में गुजर जाता हैं ऐसा क्यों ....... कारण कई हैं आप भी सोचिये पारिवारिक नजरिये और सामाजिक दृष्टि से कही हम कोई चूक तो नहीं कर रहे भारत को यंग कंट्री कहा जाता हैं युवा जब इस संख्या में खुद को कम कर रहे हैं तो भविष्य में क्या रह जायेगा हमारे पास सिर्फ़ एक महान दुःख, और कारणों पर चर्चा करते अखबार की सुर्खिया और आत्महत्या जैसे विषय पर लिखे जा रहे हजारो आर्टिकल इसके सिवा कुछ भी नहीं। ठहर कर सोचने की जरुरत हैं ......
बाजार और विज्ञापन की ताकतों ने सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन ला दिया हैं प्रतियोगिता के भीषण दौर में वे एक दूसरे को जान से मारने या इस कार्य को करने के लिए विवश करने तक पर उतारू हो गए हैं लेकिन क्या जड़ यही हैं.... उनके अधड से सिर्फ परिवार ही टकरा सकता हैं क्योकि हर बच्चे का प्रथम स्कूल घर ही होता हैं और स्कूल को घर से दूर घर होना चाहिए परन्तु धन कमाने के लोभ में स्कूल एक गोडाउन बन गया हैं जहाँ माल [छात्र ] ठूस ठूस कर भरे जाते हैं। स्कूलों में अक्सर पढाई का ढोंग होता हैं इसलिए प्राइवेट ट्यूशन आज कुटिल उद्द्योग बन गया हैं जो आयकर विभाग की नजरों से अभी बचा हैं। आज के बच्चे किस स्कूल में एडमिशन ले इस विषय पर कम लकिन किस कोचिंग में जाना हैं इस बात पर ज्यादा गंभीरता दिखाते हैं।ये विषय बहुत बड़ा और उतना ही गहरा हैं अपने बच्चो के जीवन में झांक कर देखिये थोड़ा समय निकालिये सिर्फ नर्सरी क्लास तक नहीं उनकी हायर सेकेंडरी से कॉलेज लाइफ तक आपकी जिम्मेदारी बनती हैं उन्हें जीवन की व्यवहारिक शिक्षा को नैतिक मूल्यों से जोड़कर उन्हें जीवन को सहजता से जीने की प्रेरणा दे। घर पर भी इस तरह की चर्चा किया करे सिर्फ सोशल साइड पर नहीं हमारी संस्कृति, धर्म,साहित्य दर्शन जैसे विषय नए पाठ्यक्रम में जुड़े और घर की चर्चाओं में भी....... जब ये बातें जीवन से जुड़ने लगती हैं तो आत्महत्या और उस जैसे कई नकारात्मक ख्याल स्वतः ही बच्चो के विचारों में बदलाव लाते हैं इसके लिए स्कूल को घर और घर को ऐसी चर्चाओं का समय भी देना होगा। ... इस समय भारत के 1. 35 करोड़ लोग विदेशों में बसे हैं और वे केवल भारतीय सुशिक्षित संस्कारवान बहु पाने के लिए भारत आते हैं। जीवन में आगे बढ़ना गलत नहीं हैं लकिन जड़ों से अलग होकर जमीन को अपनाना भीतर से नहीं जोड़ पाता देश छोड़कर हम अपनी जमीन को क्या दे रहे हैं इस बात पर भी विचार हो। इस एक बात में कई अर्थ छिपे हैं जैसे ---आत्म हत्या का दर्द भी। साथ में एक ही स्कूल में पढ़कर साथी के विदेश चले जाने और स्वयं को अपने ही देश में एक नौकरी न मिल पाने का अवसाद। और टेलेंट को देश से बाहर चले जाने का मलाल भी। सामाजिक मूल्यों और व्यवहारिक शिक्षा, साहित्य के जीवन से दरकिनार होने की टीस भी.... क्योकि विज्ञानं हर जगह लेकिन साहित्य जीवन में इस तरह नहीं घुल पा रहा वरना शायद हम एक दूसरे को बेहतर समझ पाते घर और बाहर दोनों क्षेत्र में. दरअसल शिक्षा संस्थानों ने भी वाशिंगटन की नीति अपनाई। उन्हें भारतीय बहू कन्याओं को आदर्श एन आर आई बहू मटेरियल जो बनाना था
मैं पुनः आत्महत्या की टीस पर आती हूँ मेरा अनुरोध हैं परिवार और विद्यालय में महाविद्यालय में साहित्य दर्शन और धर्म जैसे विषयों को उतनी ही गंभीरता से लिया जाय जितना गणित विज्ञानं को लिया जाता हैं शायद साहित्य के जुड़कर उसे समझने वाला आत्महत्या के बारे में नहीं सोचेगा क्योकि जिस मनः स्थिति में छात्र आत्म हत्या कर रहे हैं उसमे सबसे मुख्य कारण उनका अकेलापन या फिर अपनी बात किसी से न कह पाने का डर और दुःख हैं या फिर खुद को असुरक्षित महसूस करना होता हैं गलत को छुपाना। लेकिन साहित्य और दर्शन से जुड़कर जब वो उसे समझेगा तो अपनी बात भले वो कह न पाये पर लिखकर आत्म हत्या के गुबार से जरूर बहार आ सकता हैं लिखने से हम क्रोध और आवेग पर नियंत्रण पा सकते हैं साहित्य हमें एकाग्र बनाता हैं सोच में गहराई देता हैं इसलिए इसे जीवन का अहम हिस्सा बनाये बहुत सारी समस्याए समय के साथ -साथ बहुत छोटी प्रतीत होने लगेगी। शुभाशीष
बाजार और विज्ञापन की ताकतों ने सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन ला दिया हैं प्रतियोगिता के भीषण दौर में वे एक दूसरे को जान से मारने या इस कार्य को करने के लिए विवश करने तक पर उतारू हो गए हैं लेकिन क्या जड़ यही हैं.... उनके अधड से सिर्फ परिवार ही टकरा सकता हैं क्योकि हर बच्चे का प्रथम स्कूल घर ही होता हैं और स्कूल को घर से दूर घर होना चाहिए परन्तु धन कमाने के लोभ में स्कूल एक गोडाउन बन गया हैं जहाँ माल [छात्र ] ठूस ठूस कर भरे जाते हैं। स्कूलों में अक्सर पढाई का ढोंग होता हैं इसलिए प्राइवेट ट्यूशन आज कुटिल उद्द्योग बन गया हैं जो आयकर विभाग की नजरों से अभी बचा हैं। आज के बच्चे किस स्कूल में एडमिशन ले इस विषय पर कम लकिन किस कोचिंग में जाना हैं इस बात पर ज्यादा गंभीरता दिखाते हैं।ये विषय बहुत बड़ा और उतना ही गहरा हैं अपने बच्चो के जीवन में झांक कर देखिये थोड़ा समय निकालिये सिर्फ नर्सरी क्लास तक नहीं उनकी हायर सेकेंडरी से कॉलेज लाइफ तक आपकी जिम्मेदारी बनती हैं उन्हें जीवन की व्यवहारिक शिक्षा को नैतिक मूल्यों से जोड़कर उन्हें जीवन को सहजता से जीने की प्रेरणा दे। घर पर भी इस तरह की चर्चा किया करे सिर्फ सोशल साइड पर नहीं हमारी संस्कृति, धर्म,साहित्य दर्शन जैसे विषय नए पाठ्यक्रम में जुड़े और घर की चर्चाओं में भी....... जब ये बातें जीवन से जुड़ने लगती हैं तो आत्महत्या और उस जैसे कई नकारात्मक ख्याल स्वतः ही बच्चो के विचारों में बदलाव लाते हैं इसके लिए स्कूल को घर और घर को ऐसी चर्चाओं का समय भी देना होगा। ... इस समय भारत के 1. 35 करोड़ लोग विदेशों में बसे हैं और वे केवल भारतीय सुशिक्षित संस्कारवान बहु पाने के लिए भारत आते हैं। जीवन में आगे बढ़ना गलत नहीं हैं लकिन जड़ों से अलग होकर जमीन को अपनाना भीतर से नहीं जोड़ पाता देश छोड़कर हम अपनी जमीन को क्या दे रहे हैं इस बात पर भी विचार हो। इस एक बात में कई अर्थ छिपे हैं जैसे ---आत्म हत्या का दर्द भी। साथ में एक ही स्कूल में पढ़कर साथी के विदेश चले जाने और स्वयं को अपने ही देश में एक नौकरी न मिल पाने का अवसाद। और टेलेंट को देश से बाहर चले जाने का मलाल भी। सामाजिक मूल्यों और व्यवहारिक शिक्षा, साहित्य के जीवन से दरकिनार होने की टीस भी.... क्योकि विज्ञानं हर जगह लेकिन साहित्य जीवन में इस तरह नहीं घुल पा रहा वरना शायद हम एक दूसरे को बेहतर समझ पाते घर और बाहर दोनों क्षेत्र में. दरअसल शिक्षा संस्थानों ने भी वाशिंगटन की नीति अपनाई। उन्हें भारतीय बहू कन्याओं को आदर्श एन आर आई बहू मटेरियल जो बनाना था
मैं पुनः आत्महत्या की टीस पर आती हूँ मेरा अनुरोध हैं परिवार और विद्यालय में महाविद्यालय में साहित्य दर्शन और धर्म जैसे विषयों को उतनी ही गंभीरता से लिया जाय जितना गणित विज्ञानं को लिया जाता हैं शायद साहित्य के जुड़कर उसे समझने वाला आत्महत्या के बारे में नहीं सोचेगा क्योकि जिस मनः स्थिति में छात्र आत्म हत्या कर रहे हैं उसमे सबसे मुख्य कारण उनका अकेलापन या फिर अपनी बात किसी से न कह पाने का डर और दुःख हैं या फिर खुद को असुरक्षित महसूस करना होता हैं गलत को छुपाना। लेकिन साहित्य और दर्शन से जुड़कर जब वो उसे समझेगा तो अपनी बात भले वो कह न पाये पर लिखकर आत्म हत्या के गुबार से जरूर बहार आ सकता हैं लिखने से हम क्रोध और आवेग पर नियंत्रण पा सकते हैं साहित्य हमें एकाग्र बनाता हैं सोच में गहराई देता हैं इसलिए इसे जीवन का अहम हिस्सा बनाये बहुत सारी समस्याए समय के साथ -साथ बहुत छोटी प्रतीत होने लगेगी। शुभाशीष
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