लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

प्रेम के कितने रूप ... 
लेखिका --शोभा जैन
आलेख प्रेम दिवस के उपलक्ष में ---हालाँकि प्रेम को किसी दिवस में बांधा नहीं जा सकता वो तो हर दिन, हर पल, हर क्षण, स्वछंद स्वतंत्र और सदैव उन्मुक्त रहता हैं किन्तु ये आलेख वर्तमान परिप्रेक्ष्य से प्रेरित आपके लिए एक बार अवश्य पढ़े.....
इंसान के जीवन का सबसे खूबसूरत एहसास सबसे संवेदनशील क्षण और कोमलता का पर्याय 'प्रेम' ही होता हैं जो अब रूमानी किस्से कहानियों के बजाय अपराध की दुनियां में दस्तक देता दिखाई दे रहा हैं। यह कैसा प्यार है जिसमें छिपी नृशंसता नित-नए कीर्तिमान बनाने को आतुर रहती है शायद इसे अब उत्पीढन तंत्र का से सम्बोधित करना गलत नहीं होगा ।प्रेम के अर्थ और परिभाषाये ही बदल चुकी हैं प्रेम शायद इंसान की जरूरत हैं लेकिन उपभोग के रूप में या फिर एक व्यवसायी हथकंडा बनकर उसकी वास्तविकता को समझना कितना मुश्किल कर दिया हैं सच हैं ये की हमारे सभ्य समाज में आज ये चिंता की लकीरें खींचता चला जा रहा हैं। प्रेम की छद्मता में क्या हैं जानना बेहद कठिन हैं या फिर प्रेम की वर्तमान परिभाषाये कहती हैं सब जान लिया हैं इंसानी भावनाओं-संवेदनाओं के कुंद हो जाने या पतन की पराकाष्ठा के सिवा क्या कहा जा सकता है--- ''इंसान आहत होने के लिए प्रेम पाना चाहता हैं या फिर वो आहत हैं'' इसलिए दोनों के बीच का फर्क ही वास्तविक प्रेम की सही परिभाषा दे सकता हैं ! प्रेम-त्रिकोण, इकतरफा प्रेम, अवैध संबंधों के शक और जाने कौन -कौन से संदेह आदि के कारण पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका के एक-दूसरे की जान लेने जैसे जघन्य अपराधों की यह सूची लगातार लंबी होती जा रही है किसी को अपराधी साबित करने के लिए प्रेम का मामला उसके साथ जोड़ दिया जाय तो शायद तथ्य और भी मजबूत हो जाय अब यही प्रतीत होता हैं एक बाजारी शब्द बनाकर रख दिया हैं 'प्रेम'को ।प्रेमी-प्रेमिका के बीच ईर्ष्या-द्वेष में परिणत हो जाना सहज मानवीय भावात्मक दुर्बलता बेशक हैं , किन्तु इसके हत्या तक पहुंच जाना किसी भी तर्क की समझ से परे हैं हमारे भारतीय हिंदी साहित्य में प्रेम को जितनी खूबसूरत पंक्तियों दोहों में कवियों ने पिरोया हैं उनसे प्रतीत होता हैं वो वास्तव में उनके अनुभव प्रेम को लेकर ऐसे रहे होंगे क्या इसका अर्थ हम ये समझे की उस समय का प्रेम अनुभूति भरा खूबसूरत एहसास देता था और वर्तमान का प्रेम हमें सिर्फ शिक्षा देता हैं....... अब न तो ऐसे दोहे बन पाते हैं न चौपाइयां शायद एक आलेख या सीख की कुछ लाइने जरूर प्रेम ख़त्म नहीं हो रहा हैं परन्तु उसके जो रूप निकलकर सामने आ रहे हैं वो प्रेम की गहराई, प्रेम के प्रति आस्था और प्रेम की ऊंचाइयों के प्रति नीरसता का सन्देश समाज को भेज रहा हैं आज वर्जनाओं में शिथिलता, शिक्षा के प्रसार, सूचना-संचार की व्यापकता और समाज में चौतरफा खुलापन बेशक आया हो, परन्तु यह खुलापन प्रेम में साथी की भावनाओं-जरूरतों-विवशताओं का सम्मान करने के उच्च तकाजों तक नहीं पहुंच पाया है और वर्तमान समय जिसे परिस्थितियों का अतिरेक कहा जाता हैं उस सम्मान तक पहुंच पाना और भी मुश्किल बना देता हैं ।समाज विज्ञानी, कानूनविद उच्च पदासीन और अपराधशास्त्री अपराधों के बढ़ते ग्राफ पर तो खूब चिंता जताते हैं मगर प्रेम-संबंधों के बीच अपराधों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत महसूस नहीं करते उनके लिए ये सिर्फ भावनाओं की आवृत्ति या फिर पुनरावृत्ति महज़ हैं जो कभी भी कही भी समय के वशीभूत होकर आसामान्य स्थिति पैदा कर देती हैं शायद उनके लिए ये विचार विमर्श का मुद्दा नहीं हैं क्योकि इससे किसी भी ंप्रकार का आर्थिक या देशव्यापी संकट नहीं हैं इसीलिए ‘तू मेरी नहीं तो किसी और की भी नहीं’ जैसी मानसिकता से पोषित प्रतिशोधी विषधर फन फैला कर प्रिय को ही डसने पर उतारू हो जाते है। निः संदेह आज भी हमारे भारतीय सभ्यता और संस्कृति में युवक युवती के सहज प्रेम की स्वीकृति पारिवारिक तौर पर नदारत हैं स्वीकार्यता के इस अभाव से पैदा दबाव से भी प्रेमपाश में बंधे युगल कभी खुद मौत को गले लगा लेते हैं तो कभी प्रिय की ही जान ले बैठते हैं अंततः परिणाम 'प्रेम' को मिलता उसके हिस्से का महान दुःख प्रेम की इस तरह की दुर्गति और अपराधोन्मुख होने की प्रवृत्ति के विषय में हम सबको उसी संवेदन शीलता और भावनात्मकता से विचार विमर्श कर इसे सामाजिक संकट के एक बड़े रूप का मुद्दा समझना होगा ठीक वैसे ही जैसे हम आर्थिक स्तर पर वैश्विक संकट को गंभीरता से लेते हैं ।मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं का इस कदर लहूलुहान होना जीवन मूल्यों के हिफाजत न रहने का एक उदाहरण बनता जा रहा हैं । इसलिए जब तक इंसान हैं तब तक प्रेम तो रहेगा ही अब उसके रूप का निर्धारण हमारी प्रवृति ही करेगी ये भी तय हैं अतः कबीर की उन पंक्तियों को चरितार्थ होने में सहयोग करे ‘प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाय’ कहा था अर्थात हम दो नहीं एक निष्ठ होकर रहे एकनिष्ठता ही प्रेम की सटीक पहचान हैं। भारत जेसे अनुभूति परक देश में 'प्रेम' का निर्मम रूप मुझे कतई स्वीकार्य नहीं और शायद आपको भी ।धन्यवाद --शोभा जैन

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