लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

                                                  अपनी बात
                                                   शोभा जैन

कभी कभी हम अपनी मानसिकता के इस कदर शिकार हो जाते है की हम किसी दूसरे की बात को समझने की क्षमता ही खो देते है हम केवल वही सुनते है जो हम सुनना चाहते है भले ही वो अनुचित या अनुपयोगी हो |किन्तु किसी बात का वैचारिक सैलाब  कभी -कभी इस कदर मानसिकता पर हावी हो जाता है की सही को गलत और गलत को सही दिखाई देने लगता है |हम वही देखते है जो हम देखना चाहते है |अपनी शैल से बाहर आकर दूसरे पहलु से अवगत होना ही नहीं चाहते |अक्सर ऐसे लोगो को जिद्दी माना जाता है किन्तु जिद में अगर समझदारी या बुद्धिमानी हो तो काम की |जो आप सोचते हो या जो आपके विचारों में चलता है वही सही हो ये जरुरी नहीं |हमारे भीतर विचारों का सैलाब होता है हमकों उसमें से एक -एक लहर की परत खोलनी होती है फिर चिन्तन के योग्य विषयों का चुनाव करना पड़ता है सारे ही विचार चिन्तन का विषय नहीं होते |अक्सर विचारों में अधिक उलझने वाले सही और गलत का फर्क नहीं समझ पाते और हर उस सोच को जो उनके मन में चल रही होती है उसे ही पुख्ता सच समझकर निर्णय ले लेते है |कहने का तात्पर्य विचार तो अथाह हमारे दिमाग में आते है किन्तु चिन्तन का विषय हमें चुनना पड़ता है उस चिन्तन से फिर निष्कर्ष निकलकर सामने आना चाहिए विचारों से कभी भी निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता |

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