अपनी बात
शोभा जैन
जीवन में बहुत बार कुछ ऐसा घटित होता है जिसका आभास आपको पहले से ही होता है की इसका परिणाम यही होगा |किन्तु उसे रोक पाना या विराम दे पाना आपके वश में नहीं होता फलस्वरूप आप कभी- कभी अपने आँखों के सामने वो होता देखते हो जो आप नहीं देखना चाहते थे |अक्सर कुछ पारिवारिक निर्णयों में प्रतिफल स्वरुप यही मिलता है तब जब कोई सही सलाह देने के साथ सहयोग भी देने को तत्पर है किन्तु सहयोग लेने वाला अपने उम्र, अनुभवों और स्वाभिमान के चलते सही होने के बावजूद भी उस निर्णय को बिना किसी संकोच स्वीकारने को तैयार नहीं| या फिर निर्णय को ओपचारिक तौर पर मानने को तो तैयार है[आदरस्वरुप सामने वाले की बात रखने के लिए ] किन्तु उसके क्रियान्वयन के [एग्ज्क्युशन ]समय उसमें अपना हस्तक्षेप निरंतर बनाये रखना या स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने पर विवश करने जैसी स्थिति पैदा कर दी जाती है जिससे निर्णय और सहयोग देने वाला स्वतः ही पीछे हट जाता है या फिर स्वयं ही अपने निर्णय को गलत करार दे देता है |कहने का तात्पर्य केवल इतना सा है की अगर आप किसी को कोई जिम्मेदारी सौंपते है तो फिर उसे स्वतंत्रता पूर्ण समय -समय पर निर्णय लेने के अधिकार भी देवे |केवल जिम्म्मेदारियाँ सौपने से 'कर्ता' को सिर्फ निराशा ही हाथ लगती है क्योकि उस जिम्मेदारी से जुड़े प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष छोटे छोटे और बड़े -बड़े अहम फैसलों के लिए वो किसी दूसरे निर्णायक पर निर्भर रहता है जो उसके मनोबल को कम करता है |साथ 'कर्ता' के मन में इस भाव को भी जन्म देता है की इतना ही दिमाग था पहले ही खुद कर लेते अब मैं कर रहा हूँ /रही हूँ / तो ऊँगली कर रहें है |अतः जिम्मेदारियों के साथ अधिकारों का भी हस्तांतरण होंवे फिर उसमें हस्तक्षेप न करें अगर अपनी बात रखें भी तो केवल एक परामर्श के तौर पर उसे माना ही जायेगा इस अपेक्षा को अपने मस्तिष्क से निकाल फेंके अन्यथा कभी -कभी आप एक अच्छा 'सहयोगी' भी खो देते है |
शोभा जैन
जीवन में बहुत बार कुछ ऐसा घटित होता है जिसका आभास आपको पहले से ही होता है की इसका परिणाम यही होगा |किन्तु उसे रोक पाना या विराम दे पाना आपके वश में नहीं होता फलस्वरूप आप कभी- कभी अपने आँखों के सामने वो होता देखते हो जो आप नहीं देखना चाहते थे |अक्सर कुछ पारिवारिक निर्णयों में प्रतिफल स्वरुप यही मिलता है तब जब कोई सही सलाह देने के साथ सहयोग भी देने को तत्पर है किन्तु सहयोग लेने वाला अपने उम्र, अनुभवों और स्वाभिमान के चलते सही होने के बावजूद भी उस निर्णय को बिना किसी संकोच स्वीकारने को तैयार नहीं| या फिर निर्णय को ओपचारिक तौर पर मानने को तो तैयार है[आदरस्वरुप सामने वाले की बात रखने के लिए ] किन्तु उसके क्रियान्वयन के [एग्ज्क्युशन ]समय उसमें अपना हस्तक्षेप निरंतर बनाये रखना या स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने पर विवश करने जैसी स्थिति पैदा कर दी जाती है जिससे निर्णय और सहयोग देने वाला स्वतः ही पीछे हट जाता है या फिर स्वयं ही अपने निर्णय को गलत करार दे देता है |कहने का तात्पर्य केवल इतना सा है की अगर आप किसी को कोई जिम्मेदारी सौंपते है तो फिर उसे स्वतंत्रता पूर्ण समय -समय पर निर्णय लेने के अधिकार भी देवे |केवल जिम्म्मेदारियाँ सौपने से 'कर्ता' को सिर्फ निराशा ही हाथ लगती है क्योकि उस जिम्मेदारी से जुड़े प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष छोटे छोटे और बड़े -बड़े अहम फैसलों के लिए वो किसी दूसरे निर्णायक पर निर्भर रहता है जो उसके मनोबल को कम करता है |साथ 'कर्ता' के मन में इस भाव को भी जन्म देता है की इतना ही दिमाग था पहले ही खुद कर लेते अब मैं कर रहा हूँ /रही हूँ / तो ऊँगली कर रहें है |अतः जिम्मेदारियों के साथ अधिकारों का भी हस्तांतरण होंवे फिर उसमें हस्तक्षेप न करें अगर अपनी बात रखें भी तो केवल एक परामर्श के तौर पर उसे माना ही जायेगा इस अपेक्षा को अपने मस्तिष्क से निकाल फेंके अन्यथा कभी -कभी आप एक अच्छा 'सहयोगी' भी खो देते है |
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