लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

★ श्री सम्मेत शिखर – एक महान तीर्थ ★


सम्मेत शिखर और शत्रुंजय तीर्थ भारतवर्ष के सम्पूर्ण जैन तीर्थों में प्रमुख हैं । पश्चिमी भारत के शिखर पर शत्रुंजय तीर्थ है और पूर्वी भारत में सम्मेत शिखर । किसी तीर्थकर के किसी एक कल्याणक से जब कोई भूमि तीर्थ बन जाया करती हैं, तब उस तीर्थ की पावनता और शक्ति का आकलन करना तो मानव बुद्धि के लिए असम्भव होगा, जहाँ बीस – बीस तीर्थंकरों ने निर्वाण की अखण्ड ज्योति जलाई हो । निर्वाण की पहली ज्योति अष्टापद में जली थी, जहाँ प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव भगवान निर्वाण को प्राप्त हुए थे, लेकिन आज हमारे लिए वह तीर्थ अदृश्य हैं । ऎसी स्थिति में सम्मेत शिखर वह तीर्थ हैं, जिसे ह्म निर्वाण की आदि ज्योति का शिखर कह सकते हैं । निर्वाण की सर्वोच्च ज्योति ही सम्मेत शिखर है । तीर्थकर ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीर को छोडकर जैन धर्म के बीस तीर्थकरों ने यहाँ निर्वाण पद को प्राप्त किया ।
सम्मेत शिखर वह सशक्त स्थान है, जहाँ बीस बीस तीर्थकरों ने देहोत्सर्ग किया है । पर्वत शिखरों पर देहोत्सर्ग करने की जैनों में अपनी सिद्धान्त – सिद्ध परम्परा रही है । समाधि का यह रुप वास्तव में निरवद्द संल्लेखना है । प्रश्न स्वाभाविक है कि बीस बीस तीर्थकरों ने अपने देहोत्सर्ग एवं अन्तिम समाधि के लिए सम्मेत शिखर को ही क्यों चुना ? हर तीर्थकर ने अपनी चैतन्य विद्युत धारा से उस शिखर को चार्ज किया है । एक तीर्थकर ने वहाँ अपनी समाधि लगाई उनके हजारों वर्षों बाद हुए दूसरे तीर्थंकर और दूसरे के बाद तीसरे, यों पूरे बीस तीर्थकरों ने वहाँ निर्वाण प्राप्त किया । एक तीर्थकर की विद्युत धारा क्षीण होती, तब दूसरे तीर्थकर ने पुन: उसे अभिसंचित कर दिया । लाखों वर्षों से वह स्थान स्पन्दित, जागॄत और अभिसंचित होता रहा । चेतना कॊ ज्योति वहाँ सदा अखण्ड बनी रही । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सम्मेत शिखर कितना अद्‍भूत, अनूठा, जागृत पुण्य क्षेत्र है ।
अरिहंतों का निर्वाण स्थल - निश्चित रुप से यह मानवजाति के लिए सौभाग्य की बात है कि उसे अपने आराध्य के निर्वाण स्थल, दर्शन – पूजन के लिए उपलब्ध है । सम्मेत शिखर कि महिमा का मूल कारण यहाँ के चन्दन के बगीचे, चमत्कारी भोमियाजी या पर्वत की ऊँचाई या तीर्थकर पुरुषों का विचरण ही नहीं हैं, क्योंकि यह सब कुछ तो अन्यत्र भी उपलब्ध हो सकता है । सम्मेत शिखर इसलिए महिमावंत है क्योंकि यहाँ एक नहीं बीस बीस तीर्थंकरों ने जीवन का चरम लक्ष्य – मोक्ष प्राप्त किया है । यह शिखर मात्र पत्थरों का समूह नहीं हैं अपितु आत्म – विजेता अरिहंतों के ज्योतिर्मय मदिंरों का समूह है । अष्टापद, चम्पापुरी, गिरनार या पावापुरी इस चार तीर्थों को छोडकर सम्पूर्ण विश्व में सम्मेत शिखर ही तो एक पावन धाम है जहाँ तीर्थकर आत्माओं ने निर्वाण प्राप्त किया है । सम्पूर्ण विश्व में किसी भी धर्म का कोई भी ऎसा तीर्थ नहीं जहाँ उस धर्म के बीस बीस आराध्य पुरुषॊं ने निएवाण प्राप्त किया हो । तीर्थकर आदिनाथ, वासुपूज्य स्वामी, नेमिनाथ भगवान और महावीर स्वामी को छॊडकर शेष बीस तीर्थकर – अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनंदन स्वामी, सुमतिनाथ, पद्‍मप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभु, सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसिव्रत स्वामी, नमिनाथ एवं पार्श्वनाथ भगवान ने यहाँ आकर जीवन की संध्या वेला पूर्ण की एवं परमपद मोक्ष प्राप्त किया ।
सम्मेत शिखर का शाब्दिक अर्थ - सम्मेत शिखर जा सीधा सा अर्थ है – ’समता का शिखर’, लेकिन इससे भी अधिक प्रभावशाली इसका अर्थ यह है कि समता के शिखर पुरुषों ने अपने श्रीचरणों का संस्पर्श कर जिसे पवित्र और पावन किया हो, समता के शिखर पुरुष जहाँ समवेत रुप में रहे हों, व्वह सम्मेत शिखर है । सम्मेत शिखर का प्राचीन नाम भी समवेत ही था । सम्मेत शब्द दो पदों से बना है – सम्म+एत । अर्थ हुआ, सम्यक् भाव को प्राप्त सुन्दर और प्रशक्त पर्वत । सम्मेत शिखर का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख ज्ञाताधर्म कथा नामक आगम के मल्लिजिन अध्ययन में हुआ है । वहाँ तीर्थकर मल्लिनाथ के निर्वाण का वर्णन करते हुए इस पर्वत के लिए दो शब्दों का प्रयोग किया गया है – ’सम्मेय पव्वए’ और ’सम्मेय सेल सिहरे’ । कल्पसूत्र के पार्श्वनाथ भगवान के चरित्र में तीर्थकर पार्श्व के निर्वाण का वर्णन करते हुए सम्मेत – शिखर के लिए ’सम्मेय सेल सिहरंमि’ शब्द अभिहित है । मध्यकालिन साहित्य में सम्मेत शिखर के लिए समिदिगिरि या समाधिगिरि नाम भी प्राप्त होता है । स्थानीय जनता इस पर्वत को पारसनाथ हिल नाम से सम्बोधित करती है । यह उल्लेखनीय है कि इस तीर्थ को श्वेताम्बर परम्परा में सम्मेत शिखर कहा जाता है और दिगम्बर परम्परा में सम्मेद शिखर कहा जाता है । इसका मुख्य कारण परम्परा भेद नहीं, अपितु प्राचीन भाषा के भेद का है । श्वेताम्बर परम्परा में अर्धमागधी प्राकृत प्रचलित है पुर दिगम्बर परम्परा में सौरसेनी । जैसा कि भाषाविद जानते हैं कि सौरसेनी प्राकृत में त का द प्रयोग हो जाता है । इसलिए दिगम्बर परम्परा में सम्मेत को सम्मेद कहा जाता है ।

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