लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन Protected by Copyscape

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

चंद्रकांत देवताले की कविता 

औरत


वह औरत 
आकाश पृथ्‍वी के बीच
कबसे कपड़े पछीट रही है?
पछीट रही है शताब्‍दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्‍प की गुहा में
कितना आटा गूँथ रही है?
गूँथ रही है टनों आटा
असंख्‍य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है
एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को 
फटक रही है
एक औरत
वक़्‍त की नदी में
दोपहर के पत्‍थर से
शताब्‍दियाँ हो गयीं 
एड़ी घिस रही है
एक औरत अनंत पृथ्‍वी को 
अपने स्‍तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत अपने सिर पर
घास का गठ्‌ठर रखे
कबसे धरती को नापती ही जा रही है
एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास 
निर्वसन जागती
शताब्‍दियों से सोयी है।
एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव 
जाने कब से सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं।

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